कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।।
जन्मकाल से ही उपेक्षा का प्रहार सहने वाले कबीर आजीवन आत्म-विश्वास की अलख जगाते रहे। तथाकथित निम्न समाज में घेरे में पलने वाले कबीर का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। वह भगवान के साकार-सगुण रूप में विश्वास नहीं रखते थे, बल्कि उसे निर्गुण-निराकार बतलाते थे।
भारत भूमि पर जन्मे महान संत कबीरदास॒ का जन्म लहरतारा (काशी) के पास सन् 1398 ई. में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ। माता नीमा एवं पिता नीरू के घर-जुलाहा परिवार में इनका लालन-पालन हुआ। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम समाजों में व्याप्त रूढ़िवाद, अंधविश्वास तथा कट्टरवाद का निडरता से विरोध किया। उनके उपदेश, बाणी, साखी, शबद, रमैनी, बीजक, बावन अक्षरी तथा उलटबांसी में पढ़े जा सकते हैं। कबीर के बारे में कहा गया है कि वे पढ़े-लिखे नहीं थे- ‘मसि कागद छुओ नहीँ, कलम गही नहीं हाथ’ उन्होंने जो कुछ भी मुंह से बोला, उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया था।
हिन्दी के जागरण का उदय कबीर के साथ हुआ। उन्होंने अपनी देशज भाषा- भोजपुरी के द्वारा अपनी बात-विचारों को कहने का माध्यम बनाया था। झीनी-झीनी-बीनी चदरिया, में जो महीन और मानवतावादी दृष्टि मौजूद है, जिस तार से उन्होंने चदरिया बुनी है, उसी को उन्होंने ब्राह्मणवादी साखाद को नंगा किया है। ‘जो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली किन्हीं चदरिया’। दास कबीर-जतन से ओढ़ी, जस की तस धर दीन्हीं चदरिया में आम आदमी का सत्य जो कबीर जैसे जुलाहे की तरह ही अपनी जीवआत्मा को मैला नहीं देता। इसमें सारे विश्व की सच्चाई समाये हुई है। कबीर का दौर नाथपंथियों का दौर भी था। यही वह समय था, जिसमें प्रचलित पांखडों, पूजा-अर्चना, कर्मकांडी जीवन पद्धति, व्रत-उपासना और पुरोहित वादी रूढ़ियों को चुनौती दी थी।
कबीर ही सबसे मुखर और प्रखर वेद विरोधी स्वर रहे हैं। विरोध और कर्मकांडी पुरोहित वादी दर्शन के निषेध की परंपरा बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि के साथ ही गुरूनानक और अब बाबा साहब डा.अम्बेडकर से चली आ रही है| सामाजिक न्याय और आध्यात्मिक न्याय के क्षेत्र में कबीर की यही जन जागृति आज भी उतनी ही प्रासंगिक और सक्रिय रही है।
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि कमलेश्वर ने कबीर के बारे में लिखा है कि वे भक्ति काव्य परम्परा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीर के जन्म के समय मुसलमान शासक अपनी मनमर्जी से शासन करते थे। वहीं हिन्दू धार्मिक कर्मकाण्डों में लिप्त रहते थे। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले हुए थे। कबीर हिन्दी साहित्म्य के भक्तिकाल के ऐसे इकलौते कवि थे, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडम्बरों, अंधविश्वासों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे, जिसकी झलक उनकी प्रत्येक रचनाओं में देखने को मिलती है। सिक्खों के महान गुरू ग्रंथ साहिब में भी कबीर की वाणी को शामिल किया गया है। उनकी वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है। हिन्दी साहित्य के एक हजार साल के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक, कवि पैदा नहीं हुआ।
कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक थे। वे अंधविश्वास के सख्त विरोधी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि कर्मों के अनुसार ही जीवन को गति मिलती है। किसी जाति, स्थान या धर्म विशेष के कारण नहीं। सिक्ख धर्म के धर्मग्रंथों में कबीर के अनेक दोहे मिलते हैं।
हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका भावना शुक्ल ने कबीर के दर्शन के बारे में लिखा है कि उनके अनुसार ईश्वर एक है। उन्होंने गुरू रामानन्द जी से राम भक्ति का मंत्र प्राप्त किया था। राम को निर्गुण एवं निराकार रूप में स्वीकार हुए… कबीर ने उपदेश दिया कि निर्गुण राम- निर्गुण राम जपहु मेरे भाई। इसी तरह- “एक राम घट-घट बोलै, एक राम दशरथ घर डोलै, / एक रोम का सकल पसारा, एक राम इन सबसे न्यारा।’ का उपदेश दिया।
कबीर मुसलमानों के एकेश्वरवाद या एक खुदावाद के समर्थक नहीं थे। उनका निर्गुण संबंध-दृष्टिकोण इस्लाम के अनुकूल नहीं है। कबीर के अनुसार आत्मा ही परमात्मा है। यथा- “सब तीर्थ में जल है, कछु न होई, नहा के देखा। / सब की पत्थर है, बोले नहीं, बोला के देखा। कबीर की विचारधारा जीव जगत और ब्रह्म की एक आम सत्ता है। उसके अलावा संसार में और कुछ नहीं है। सारे विश्व की उत्पत्ति ब्रह्म से है। व्यक्ति जहां से आया है, ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है। “पानी ही ते हिम भया, हिम है गया विलाय। / जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा ना जाय॥
जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी संपूर्ण जगत में व्याप्त है। जब वह अपनी लीला का विस्तार करता है तो उस नाम रूपात्मक जगत की सृष्टि होती है, जिसे वह अपनी इच्छानुसार स्वयं ही समेट लेता है। “जल में कुंभ-कुंभ में जल है, बाहरि भीतर पानी। / ‘फूटा कुंभ जल जलहि समानी, मूत-लत कथा गियानी।’
संसार के मित्थापन एवं माया-जन्म भ्रम का व्याख्यान भी कबीर ने अद्वैतवादी विचारधारा के अनुसार दिया है। वह अद्वैतवाद के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति पर बल देते हैं। किन्तु कबीरदास ने इनके स्थान पर ‘प्रेम’ की प्रतिष्ठा की है। वे ज्ञान की अपेक्षा प्रेम की महत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकारते हैं। यथा- पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। / ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।
उन्होंने दोनों के धर्मों की बुराईयों का निष्पक्ष खंडन किया है। हिन्दुओं के व्रत, उपवास, जप तथा मुसलमानों की नवाज, जीव हत्या आदि का तीव्र विरोध किया। वे कहते हैं कि जोर-जोर से नवाज पढ़ने से या पत्थर (मूर्ति) को पूजने से ईश्वर की उपासन होती है क्या? इससे ईश्वर मिले हैं क्या? “कंकड़ पत्थर जोड़िये मस्जिद लई बनाय। / ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
हिंदुओं की मूर्ति पूजा की आलोचना करते हुए कहते हैं कि- “पाहन पूजै हरि मिलें, ज्यों में पूजूं पहार। / ताते ये चखिया भली, पीस खाय संसार’॥ बिना किसी ढोंग दिखावे के सच्चे मन से ईश्वर की वंदना कहीं भी की जा सकती है। इसके लिए पत्थर की मूर्ती या माला की जरूरत नहीं है। इसी तरह अनेक महत्वपूर्ण बातों-विषयों पर उनकी वाणी, अद्भुत रही है।
हिन्दू-मुस्लिम एकता पर- “वोही मोहम्मद, वो ही महादेव, ब्रह्मा आदिम कहिए, / को हिन्दू को तुरक कहाए, एक जिमि पर रहिए!।।
संसार की नश्वरता पर- ‘झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोह। / जगत चबैना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद’॥
जाति-धर्म-ऊंच-नीच पर- “एक बूंद एक चाम, एक गुदा, एक ज्योति थे सब अपना, कौन ब्राह्मण कौन सूदा / जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी को जाया, और राह देह काहे ना आया। / जो तू तुरक तुरकनि को जाया, / पेट ही काहे ना सुन्तति कराया, / एके जनी, जना संसारा, कौन ज्ञान से भयो निनारा’॥
कबीर दास के एक-एक वचन को हजारों शास्त्रों का सार बताते हुए उनके व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए आचार्य रजनीश ने कहा है कि- मनुष्य जाति के इतिहास में कबीर की बाणी का कोई मुकाबला नहीं है। इससे सरल और सीधे, इतने स्पष्ट और साफ वचन पृथ्वी पर कभी नहीं बोले गये हैं। दुर्भाग्य की बात है कि कबीर भारत के बाहर न के बराबर परिचित हैं, अन्यथा झेन फकीर,’फीके पड़ जाबें। हमीद- फकीरों का नाम लोग भूल जावें। सूफियों को तो बिसात क्या है। कबीर का एक-एक वचन (वाणी) हजारों शास्त्रों का सार है।
कबीर साफ मन के भक्त कवि थे। वह भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक नित और शाश्वत रहेगी। यह एक संयोग ही है कि कबीर साहब का दर्शन जो भगवान बुद्ध के समता, स्वतंत्रता बंघुत्व (प्रेम) एवं सामाजिक न्याय का मार्ग है, से पूर्ण रूप से मिलता है। महान संत कबीरदास का दर्शन भारत के लिए ही नहीं बल्कि समस्त दुनिया के लोगों के लिए प्रासंगिक है एवं उनकी बाणी मानव कल्याण के लिए शाश्वत रहेगी।
कबीर हिन्दी साहित्म्य के भक्तिकाल के ऐसे इकलौते कवि थे, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडबम्बरों, अंधविश्वासों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे, जिसकी झलक उनकी प्रत्येक रचनाओं में देखने को मिलती है। कबीर का दौर नाथपंथियों का दौर भी था। यही वह समय था, जिसमें प्रचलित पांखडों, पूजा-अर्चना, कर्मकांडी जीवन पद्धति, व्रत-उपासना और पुरोहित वादी रूढ़ियों को चुनौती दी थी। कबीर ही सबसे मुखर और प्रखर वेद विरोधी स्वर रहे हैं। विरोध और कर्मकांडी पुरोहित वादी दर्शन के निषेध की परंपरा बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि के साथ ही गुरूनानक और अब बाबा साहब डा.अम्बेडकर से चली आ रही है| सामाजिक न्याय और आध्यात्मिक न्याय के क्षेत्र में कबीर की यही जन जागृति आज भी उतनी ही प्रासंगिक और सक्रिय रही है।
कबीर के एक-एक वचन को हजारों शास्त्रों का सार बताते हुए उनके व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए आचार्य रजनीश ने कहा है कि- मनुष्य जाति के इतिहास में कबीर की बाणी का कोई मुकाबला नहीं है। इससे सरल और सीधे, इतने स्पष्ट और साफ वचन पृथ्वी पर कभी नहीं बोले गये हैं। दुर्भाग्य की बात है कि कबीर भारत के बाहर न के बराबर परिचित हैं, अन्यथा झेन फकीर, फीके पड़ जाबें। हमीद-फकीरों का नाम लोग भूल जावें। सूफियों को तो बिसात क्या है। कबीर का एक-एक वचन (वाणी) हजारों शास्त्रों का सार है।
कबीर भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक नित और शाश्वत रहेगी। यह एक संयोग ही है कि कबीर साहब का दर्शन जो भगवान बुद्ध के समता, स्वतंत्रता बंघुत्व (प्रेम) एवं सामाजिक न्याय का मार्ग है, से पूर्ण रूप से मिलता है। महान संत कबीरदास का दर्शन भारत के लिए ही नहीं बल्कि समस्त दुनिया के लोगों के लिए प्रासंगिक है एवं उनकी बाणी मानव कल्याण के लिए शाश्वत रहेगी।
अनिश्चित जन्म, धर्म-समन्वयी विचार और मिली-जुली भाषा ही वह कारण है जिसके चलते सन 1518 ई. में कबीर का निधन हुआ तो हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़ा शुरु हो गया। हिंदू कहते थे कि कबीर हिंदू हैं, उनकी अंत्येष्टि-क्रिया हिंदू रीति-रिवाज से होनी चाहिए; मुसलमान कहते थे कबीर मुसलमान है, उन्हें मुसलमानों की तरह दफनाना चाहिए।
वस्तुतः कबीर जैसे स्पष्ट-वक्ता निष्णात भक्त और विश्वबंधुत्व की भावना से ओतप्रोत महात्मा के निधन संस्कार के समय जातियों में विवाद न छिड़ता तो वही आश्चर्यजनक होता। वस्तुतः राष्ट्रभाषा के लिए से बढ़कर गौरव का विषय और क्या हो सकता है कि उसके इस कवि की वाणी विश्व कल्याण की सुधावाणी बन गई।