१. अपरधनसमोषं स्वार्थसिद्धौ निमग्नं,
सदयवनकृशानुं कुम्भिसामग्रगण्यम् |
सकलखलनिधानं तस्कराणामधीशं,
मलिनमतिनिकृष्टं भ्रष्टकारं नमामि ||
दूसरों के धन को चुराने वाले, अपने स्वार्थ में निमग्न (डूबा हुआ) , करुणा (सदयता, दया) रूपी वन के लिए अग्नि स्वरूप, पापियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण दुष्टों के निधान, तस्करों के स्वामी और मलिन बुद्धि से निकृष्ट भ्रष्टाचार करने वाले को मैं नमस्कार करता हूँ|
२. धूर्तस्वार्थीकुटिलकुमुदां सन्निपात: क्व दुष्ट:,
सातिर्वार्ता: क्व नयकुटुपैर्मानवै: प्रापणीया:|
मेध्यामेध्यस्य मतिविमुख: कामुकस्तं लुलुण्ठ,
संहर्ता हि प्रकृतिकृपणाश्शिष्टता शोभनेषु ||
धूर्त, स्वार्थी, बेईमान और कृपाशून्य लोगों का सन्निपात – दुष्ट व्यक्ति कहाँ? सरल स्वभाव ऋषिकल्प मानवों द्वारा भेजी गई परस्पर परोपकार (सहयोग) की बातें कहाँ? संसार में उचित और अनुचित (धर्म- अधर्म, विवेक- अविवेक) के ज्ञान से शून्य कामुक (कामी) ने उस सज्जन को लूट लिया| क्योंकि सर्वस्व हरण करने वाले शिष्टता पूर्वक किये गये व्यवहार में स्वभाव से दीन (कंजूस) होते हैं|
३. जातं वंशे भुवनविदिते वञ्चकावेष्टितानां ,
जानामि त्वां कलुषपुरुषं दस्युरूपं गृधिन: |
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशात् सद्य लुण्ठिर्गतोऽहं,
भूलोकेऽस्मिन् वरमवगुणी साम्प्रतं नो दयालु:||
(हे लुटेरे!) तुमको संसार में प्रसिद्ध ठगों (वञ्चकों) से घिरे वंश में उत्पन्न लोभी के दस्युरूप कलङ्कित पुरुष के रूप में जानता हूँ| इसलिए भाग्यवशात् आज में लूटा गया तुम्हारे विषय में याचकत्व को प्राप्त हुआ हूँ| इस संसार में अब कपटी (धूर्त, ठगिया) झूठे लोग ही श्रेष्ठ हैं, सज्जन नहीं|
४. मूलं चौर्यधनं श्रियो व्यसनमेव भ्रातृभावो ध्रुवं,
मिथ्यावाक् विरुदस्तथा परिभवोऽन्येषां सुवृत्त: परम्|
शैथिल्यं हि सुहृद् वृथेतरजुगुप्सा सन्ततं भूषण,
वैमत्यं लभते सदैव निखिलं विश्वं प्रयायावरम्||
चोरी का धन लक्ष्मी का मूल है, दुराचार ही निश्चित रूप से भाईचारा है| झूठ बोलना ही ख्याति है तथा दूसरों का तिरस्कार (अपमान) करना अच्छा व्यवहार (श्रेष्ठ आचरण) है| आलस्य ही मित्र है एवं बेकार में दूसरों की निन्दा (दूसरे से घृणा) करना हमेशा आभूषण ( सुन्दरता) है, क्योंकि परिवर्त्यमान यह सम्पूर्ण जगत् सदैव वैमत्य (प्रतिकूलता) को प्राप्त (धारण) करता है|
५. तिग्मांशोरुदिते शुभां हि लभते पद्मादियुक्तं सरस्,
ज्योत्स्नाया: स्फुटिते द्युतिं कुमुदिनी नूनं समायाति हि|
शुश्रूषा व्यथितस्य शिष्टसदने सौख्यं विधत्ते ध्रुवं,
भ्रष्टाचारसमागते भवति भद्रं पुष्कलं सर्वदा ||
सूर्य के उदय होने पर कमलों से आच्छादित सरोवर केवल शोभा को प्राप्त करता है| शुभ्र चांदनी के खिलने पर कुमुदिनी निश्चित ही प्रसन्नता को प्राप्त करती है| पीड़ित (दु:खी) की सेवा सज्जन के घर में केवल सुख का आधान करती है| परन्तु भ्रष्टाचार के आगमन पर तो सभी प्रकार का कल्याण हमेशा होता है|