युवा संस्कृत ग़ज़लकार डॉ.राजकुमार मिश्र(असिस्टेण्ट प्रोफेसर संस्कृत विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय पलवल हरियाणा) नये ढाँचे, नये नक़्शे और नये रंग-रूप के साथ ग़ज़ल की नयी इमारत का निर्माण करने वाले ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिससे ग़ज़ल कहने के उनके ताज़गी भरे हुनर का एहसास और भरोसा होता है। यह नयापन उनके कथ्य में तो है ही, ग़ज़ल के प्रस्तुतिकरण में भी है। बहुत थोड़े समय में ही इस युवा शायर ने अपनी ग़ज़लों में ग़ज़ल के उन सूक्ष्म बिन्दुओं पर अपनी पैठ बना ली, जिन्हें ग़ज़ल के विकास क्रम में आज की ग़ज़ल में होना चाहिए।
डॉ.राजकुमार मिश्र आज के दौर के संस्कृत ग़ज़ल के ऐसे युवा शायरों में से हैं, जिनके दिल में बेशक एक तरफ़ इश्क़ की हिलोरें उठती हैं दूसरी तरफ अपने परिवेश और समय पर बराबर गड़ी हुई है। वे बहुत सजगता और सूक्ष्मता से अपने आस-पास की चीज़ों पर निगाह रखते हुए उन्हें अपने शेरों में ढालते हैं। शेर कहने के उनके अंदाज़ में ताज़गी है। उनमें नई सोच और युवा अनुभूतियों का जीवन्त समावेश है।
डॉ.राजकुमार मिश्र की ग़ज़लों का रसायन वास्तविकता की परखनलियों में तैयार हुआ है, जिसे उन्होंने धीरे-धीरे वक्त की आँच में पकने दिया है । उनकी ग़ज़लों में वसीयत के बँटवारे से लेकर संसद के बंदरबांट तक के जरुरी और कड़े सवाल हैं । यह किताब उनकी अनुभवी जिन्दगी का तल्ख आईना भी लगती है । सियासत की रंगो-बू, युवा पीढी का भटकाव, परिवारों के रेशमी ताने-बाने की उधेडबुन, भ्रष्टाचार जैसे विषय संग्रह के केन्द्रबिन्दु हैं ।
लुठितं गृहं हा तस्करै: क्व नु लेखयामि व्यथामहम् ।
अधुनाऽपराधिगृहे स्थिता न्यायालया दृष्टा मया ॥1॥ पृष्ठ 36
चोरों ने जी भर घर लूटा है मैं अपनी पीड़ा की रिपोर्ट कहाँ लिखवाऊँ? क्योंकि मैंने अपराधियों के घर में ही न्यायालयों को चलते देखा है ।
वयोभिश्चाल्पमात्रैस्ते ‘कुमारा:’।
कुतो जानन्ति केलिं वृद्धचिन्ता ॥6॥ पृष्ठ 40
आजकल के कुँवारे छोटी उम्र में ही (विद्यालय की पढ़ाई छोड़कर) प्रेम प्रसंग में मशगूल हैं इसलिए बुजुर्गों को चिन्ता है ।
संवेदनशीलता और मूल्यों की ढ़हती दीवारों के बीच यह संग्रह हमें आदर्शवाद का कोरा पाठ नहीं पढ़ाता, बल्कि हकीकत से रूबरू करवाता है और वक्त से दो-दो हाथ करने का साहस देता है । लेखक की साफगोई उनकी ग़ज़लों के माध्यम से पाठकों के सामने प्रस्तुत है ।
वर्तमान व्यवस्था की नाकामी पर प्रहार करते हुए और उसे झेलने वाले इस समाज की त्रासदी पर उनके दिल की गूँज इन शेरों में यूँ उभरकर आती है-
अयं निर्वाचने नेता कदाचिद् ह्युद्धरेदस्मान् ।
निजोद्धारप्रतीक्षायां व्यतीतं वर्षतो वर्षम् ॥3॥ पृष्ठ 30
कुछ लोग बिना परिश्रम के ही उस अपार यश को पाना चाहते हैं, जिसे पाने में पूर्व मनीषियों के वर्ष से वर्ष बीत गये ।
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युक्तया सखे! नियुक्तिं लब्ध्वा वहेर्न गर्वम् ।
जानासि तं द्वितीयं यो नो चितोऽस्ति कच्चित् ॥6॥ पृष्ठ 32
हे मित्र! अनेक प्रपञ्चों से विद्यालय में नियुक्ति पाकर इतना मत इठलाओ, उस व्यक्ति को जानते हो जो तुम्हारे जाल में फँसकर दूसरे नंबर पर रह गया ।
हमारे समाज की विडंबनात्मक स्थिति पर शायर की सजग और संवेदनात्मक दृष्टि से निकला यह अकेला शेर कितना कुछ कह जाता है-
व्यस्ता धनार्जनार्थं पुत्रास्समे विदेशे ।
एकाकिनो रुदन्तस्ताताश्च जीर्णगात्रा: ॥3॥ पृष्ठ 28
सारे पुत्र विदेश में धन कमाने में व्यस्त हैं, जीर्ण शरीर वाले माता-पिता अपने-अपने सूने घरों में अकेले पड़े हैं ।
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उद्घोष्य जोषमास्ते मृत्युं स्वसैनिकानाम् ।
जीवन्ति तत्सदस्या:, प्रष्टुं गतोऽस्मि कच्चित् ॥3॥ पृष्ठ 32
सैनिकों के शहीद होने पर (आर्थिक मदद की) घोषणा करके तुम (नेता) लोग चुप हो गये, कभी उनके घर पूछने भी गये कि-‘उनके परिवार में सब कुशल तो है’ ?
हालाँकि आज की ग़ज़ल पारम्परिक ग़ज़ल वाले इश्क़-मुहब्बत के दायरे को पार कर आमजन और समाज के बीच की अभिव्यक्ति बन चुकी है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि प्यार-मुहब्बत आज की ग़ज़ल से बिल्कुल बाहर हो गये हों; यह मानव मन के मूल का एक शाश्वत विषय है और डॉ. राजकुमार मिश्र भी इससे अछूते नहीं हैं । प्रस्तुतिकरण में एक नयेपन के साथ कवि की युवा धड़कनों से कुछ अशआर यूँ निकलकर आ खड़े होते हैं-
द्विरेफोऽयमस्ति प्रिये त्वद्गुणानाम्
दयापात्रतां देहि यो नो सकाम: ॥3॥ पृष्ठ 46
प्रियतमे! यह तुमहारे सद्गुणों का (मूल्यवेत्ता) भ्रमर है, अत: इसके ऊपर दया करो, जो काम से युक्त नहीं है (अर्थात् निस्वार्थ है)।
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अनङ्गेनाऽद्य चाऽसह्यं शरव्यं प्रापितोऽकस्मात्
न चेद् बोध्या मनस्तापास्त्वया मे, ते कया बोध्या:? ॥6॥ पृष्ठ 58
काम ने लीला-पूर्वक बाणों से मुझे लक्ष्य बनाया है, अत: हे प्रिये! यदि मेरे मन के ताप तुम्हारे द्वारा बोध्य नहीं होंगे तो किसके द्वारा बोध्य होंगे ।
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सकृन्मेऽन्तरालं निपीयाऽद्य गच्छे:
ध्रुवं ज्ञास्यसे ते कृते चण्डि ! कोऽहम् ॥4॥ पृष्ठ 134
हे चण्डि ! थोड़ा मेरे हृदय के भाव को समझ लो फिर जहाँ जाना चाहती हो चले जाना, तुम्हें ज्ञान हो जाएगा कि मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ ।
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प्रेमाब्धौ मादृशे तीरे स्थिरेऽपि नो समुच्छलेत्
आश्रयेऽपि भयं कुर्यात् तदा दु:खं महत्तरम् ॥2।। पृष्ठ 140
प्रेम के समुद्र सरीखे मुझ जैसे तट को पाकर भी जो विश्वस्त न हो, और (तटरूप) आश्रय में ही भय करने लगे तब बहुत दु:ख होता है ।
यह संग्रह पढ़ने बाद कहा जा सकता है कि इनकी ग़ज़लें वर्तमान समय की बेबाक अभिव्यक्ति है। पुस्तक के रचनाकार डॉ.मिश्र कभी सत्ता, कभी समाज तो कभी ख़ुद को अपनी कमियों के लिए लताड़ते हैं। यानी एक रचनाकार के रूप में वे पूरी तरह से सजग हैं। समाज और अपने आसपास को सचेत करते रहने का गुण ही तो संस्कृत ग़ज़ल के प्रमुख गुणों में एक है। डॉ.राजकुमारमिश्र अपनी ग़ज़लों के ज़रिए यह काम बा-ख़ूबी करते हैं-
नृदैत्यैर्नि:पटां कन्यां दयन्ते नाऽध्वनि क्षिप्ताम्
नृणां संवेदनानाधारास्सदाचारा: क्व यातास्ते? ॥3॥ पृष्ठ 92
(प्रिये!) पहले (युवावस्था में) बिना क्रम के वार्तालाप के मध्य मुझे बिना यत्न के ही मिल जाते थे वे तुम्हारे हाथों के निर्मित गलहार कहाँ चले गये ?
इनकी ग़ज़लें सामान्य आदमी की अपनी भाषा और परिवेश की ग़ज़लें हैं। बिना किसी भारी शब्द का इस्तेमाल किये; वे एक सामान्य आदमी के जीवन से जुड़े अनुभवों और भावों को अपने शेरों में पिरोते हैं।
इदं मे रहस्यं सुखस्याऽस्ति बन्धो !
यतश्चिन्तितो नो मनस्तो निकार: ॥6॥पृष्ठ 78
भाई! मेरे सुख का यही रहस्य है कि मैंने जीवन में मन से भी किसी को अपमानित करने का नहीं सोचा ।
डॉ.मिश्र की सीधी-सपाट अभिव्यक्ति की ग़ज़लों में कहीं-कहीं प्रतीकात्मकता के भी दर्शन होते हैं। प्रतीकात्मकता ग़ज़ल ही नहीं, सम्पूर्ण कविता का महत्वपूर्ण गुण है। हालाँकि संस्कृत की ग़ज़लें अक्सर ही बहुत सपाट होती दिखती हैं। कविता के इस दौर में सपाटबयानी भी ज़रूरी है लेकिन प्रतीकात्मकता की अपनी अहमियत है।
भयेयुर्हन्त दूरस्था द्विरेफा: पुष्पत: कामम्
सुमानां चेत् सुगन्धानाम् स नाशो वस्तुतो नाश: ॥5॥पृष्ठ 80
भ्रमर भले ही किसी कारण फूलों से दूर हो जाएँ (सह्य है) किन्तु यदि फूलों की सुगन्धों का नाश हो गया तो वही नाश वस्तुत: नाश है ।
आज हर ओर स्वार्थ हावी है। चाहे वह समाज का कोई भी क्षेत्र हो, पूछ पैसे और पद की है। व्यक्तित्व और भावनाओं से किसी को सरोकार नहीं। हर कोई स्वार्थवश समर्थ व्यक्ति के आसपास इस उम्मीद से मंडराता है कि किसी तरह उसकी कोई साध पूरी हो जाए। मधुमक्खियों को फूलों की रंग-सुगंध से क्या सरोकार! उन्हें केवल रस चाहिए होता है। वह मिल गया फिर जय राम जी की। समाज में दिखलाई पड़ते इस तरह के दृश्यों को शब्द देकर रचनाकार कुछ इस तरह यथार्थ बयान करते हैं-
सद्व्याहृतिं परेषु स्वीयेषु भेददृष्टिम् ।
स्वार्थाय हन्त लोका: किं किं न दर्शयन्त: ॥6॥ पृष्ठ 35
पराये से अच्छा व्यवहार अपनों से भेदभाव, आश्चर्य है कि लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कौन-कौन सी लील नहीं दिखाते ।
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इमा या हन्त जीवन्त्यो मृता बाला बलात्कारै:
व्यथावस्त्रै: परिछिन्नान् शवान् तासां प्रपश्येत् क:? ॥2॥पृष्ठ 112
वे कन्याएँ जो राक्षसों के द्वारा किये गये बलात्कार से जीते जी ही मर गईं उनके व्यथारूपी वस्त्रों से ढके हुए लाशों को भला कौन देखे?
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अलं मर्यादया बन्धो! ह्यलं त्वद्भाषणेनापि
स्थित: त्यत्तवाऽस्यहो! हंसान् बकान् तान् मानसे कृत्वा ॥2॥पृष्ठ 82
भाई! मर्यादा दिखाना बन्द करो और तुम्हारे प्रवचन से भी कोई लाभ नहीं, क्योंकि तुम अपने मानस से हंसों को निकाल कर उसमें बगुले बैठाये हो ।
डॉ.राजकुमार मिश्र की ग़ज़लें निम्न वर्ग और वंचितों की आवाज़ बनती दिखती हैं। इनके लेखन में सभी के कल्याण का भाव दृष्टिगत होता है, अम्न की चाहत दिखाई देती है। इनकी ग़ज़लें आज के समय का चित्रांकन करती हैं। यानी इनके लेखन में वे गुण हैं, जो उत्कृष्ट साहित्य की माँग होते हैं
भैक्ष्यं वरं मत्वाऽपि भूरिह रक्षिता या पूर्वजै:
विक्रीय तां ‘धनिनो वयं’कथनोद्यता दृष्टा मया ॥3॥ पृष्ठ 36
भीख माँगना ठीक है, ऐसा सोचकर जिन्होंने पूर्वजों की जमीन की रक्षा की उसी को बेंचकर ‘मैं अमीर हूँ’ऐसा कहते हुए लोगों को मैंने देखा ।
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अद्यापि कार्यदरिद्रताऽऽगतहतमुखं श्रमिकं पतिम्
भार्या विलोक्य बुभुक्षिताऽप्यातर्पिता दृष्टा मया ॥10॥ पृष्ठ 36
आज भी काम नहीं मिलने से बिना कमाये घर लौटे श्रमिक पति को देखकर उसकी (दिनों की भूखी) पत्नी को (भूख मारकर) तृप्त होते मैंने देखा ।
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नृपा ये जन्मना जाता, न तेषाम्
निरन्ना ये सुतान् सम्भोज्य चिन्ता ॥2॥ पृष्ठ 40
जो जन्म से राजा है, उसकी क्या चिन्ता, चिन्ता तो उनकी है जो अपने पुत्रों को किसी तरह दो रोटी खिलाकर स्वयं बिना खाये ही सोने को विवश हैं ।
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क्षुधा क्षुभ्यच्छिशुं निद्रा-तलं स्वं चेष्टते नेतुम्
स्वपत्युह्यार्गमात् पूर्वं प्रिया गीतं नव सृष्ट्वा ॥4॥पृष्ठ 82
भूख से तड़पते हुए शिशु को माँ अपने श्रमिक पति के आने के पूर्व ही नये गीत की रचना करके सुला देना चाहती है (वह जानती है कि आज भी पति बिना कमाये ही लौटने वाला है ) ।
इस संग्रह में डॉ.राजकुमार मिश्र की शायरी की विशेषताओं के विविध रंगों को प्रस्तुत करने वाले अशआर इतनी अधिक मात्रा में हैं कि उन सभी का उल्लेख कर पाना संभव नहीं। इसके लिए तो इस किताब को पढ़ा जाना ही ज़रूरी है। यहाँ तो उनकी मात्र एक झलक प्रस्तुत की जा सकी है और मैं समझता हूँ कि पाठक को उनकी शायरी से परिचय के लिए इतना पर्याप्त है।