बड़ा रोचक प्रसंग है एक बार संत ज्ञानेश्वर नामदेव और मुक्ता बाई के साथ तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। प्रसिद्ध संत गोरा के पास पहुंचे, संतों में विचार विमर्श हुआ तपस्विनी मुक्ताबाई ने पास रखे एक डंडे की ओर संकेत करते हुए कुम्हार गोरा से पूछा यह क्या है? उन्होने उत्तर दिया इससे ठोक कर अपने घडों की परीक्षा करता हूं कि वह पक गये हैं या कच्चे ही रह गये हैं। मुक्ताबाई ने हंसते हुए जवाब दिया हम भी तो मिट्टी के बने हुए हैं। क्या इससे हमारी परीक्षा हो सकती है ! हां क्यों नहीं कहते हुए गोरा उठे और वहां उपस्थित महानुभावों के मस्तक पर उस डंडे से ठोकने लगे। उनमें से कुछ ने इसे मज़ाक समझा। नामदेव को यह अच्छा नहीं लगा कि एक कुम्हार एक डंडे से उनकी परीक्षा कैसे ले रहा है वह उनके इस काम से क्रोधित होने लगे। जब उनकी बारी आयी तो गोरा ने उनके मस्तक पर डंडा रखा और बोले “यह बर्तन कच्चा है”। फिर नामदेव से बडे आदर और प्रेम से कहा आप निश्चयी संत हैं, लेकिन आपके हृदय का अभिमान रूपी विष अभी भी कायम है, तभी तो मान- अपमान की ओर आपका तुरंत ध्यान गया यह तभी समाप्त होगा जब कोई सदृरु आपका मार्गदर्शन करे। संत नामदेव को बोध हो गया और अपनी इस कमज़ोरी को दूर करने के लिये उन्होने सद्गुरु से दीक्षा ली जिससे उनके अंदर का अभिमान खत्म हो गया नामदेव को आज सभी जानते हैं लेकिन गोरा ने उनके जीवन को त्रुटि मुक्त किया उन्हीं के कहने पर संत नामदेव ने गुरु की शरण ली। संत नामदेव संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे जिन्होंने भक्ति का घूम घूम कर प्रचार प्रसार किया।
संत ज्ञानेश्वर महान संत थे उनके लिखे साहित्य में दर्शन और मानव कल्याण के अर्थ पूर्ण सूत्र मिलते है जिससे मानवीय गुणों का परिष्कार होता है। उन्होंने मानवीय गुणों को त्रुटि मुक्त बनाने के लिये जिस दर्शन को साहित्य का मूलाधार बनाया वह पूजनीय हो, आज सभी के लिये मानव हित का प्रकाश बन आलोकित हो रहा है। इस प्रसंग के द्वारा उनके अनमोल विचारों को समझा जा सकता है। एक बार एक ग्रामीण उनके पास आया और कहने लगा महात्मन संयमित जीवन यापन करते हुए भी मैं रोगी हूं ऐसा क्यों ? यह सुन कर वह कहने लगे, मन में विचार तो निकृष्ट हैं भले ही तुम बाहर से संयम का पालन करते हो। मन में कलुष और ईर्ष्या भरी हो तो वह रोगी बनायेंगे ही। अपने विचारों को आवारा कुत्तों की तरह नकारात्मक विचारों में मत भटकने दो उन्हें हर समय उपयोगी दिशा के साथ नियोजित करके रखो अनगढ, अनैतिक और आलेचानात्मक विचारों से जूझने के लिये सद्विचारों की एक सेना बना कर रखो जो फिज़ूल के विचारों के आते ही उन्हें पछाड कर भगा दें। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए संत ज्ञानेश्वर कहने लगे विचार संयम का सबसे अच्छा तरीका है उन्हें बिखराव से रोक उत्तम सोद्देश्य के साथ जोड दिया जाए।
इसके लिये अपने अंदर भी एक विरोधी विचारों की सेना उसी प्रकार खडी करो जैसे कि शरीर के भीतर कोई कीटाणु प्रवेश कर रक्त के कणों को खराब करने लगते हैं तो उन्हें औषधि (एंटीबायोटीक) द्वारा खत्म किया जाता है उसी तरह निकृष्ट विचारों तथा उत्कृष्ट चिंतन की परस्पर लडाई ही अंतर्जगत का दैवासुर संग्राम है। विचारों की विचारों से काट एक बहुत बडा पुरुषार्थ है। चिडिया घरों में जानवरों का बाडा होता है जिसमें उन्हें घूमने फिरने की छूट रहती है पर उन्हें बाड़े से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरतो। उसे यहां वहां मत बिखरने दो।
संत ज्ञानेश्वर के विचार पूर्ण साहित्य में कहीं भी किसी के विरुद्ध क्रोध, ईष्यां और रोष लेश मात्र भी नहीं है बहुत छोटी उम्र में उन्हें जाति से बहिष्कृत होने के कारण गहन संकटों समस्याओं और प्रताडनाओं का सामना करना पडा। उनके पास रहने के लिये झोपडी भी नहीं थी। सन्यासी का बच्चा कह कर समाज ने उनका तिरस्कार किया। कई कष्टों को झेलते हुए भी उन्होने संपूर्ण जगत पर अमृत सिंचन किया। कई वर्षों तक यह बाल भगीरथ तपस्या करते रहे। अपने साहित्य की गंगा से जिस प्रकाश की ज्योत जलाई वह इतनी श्रेयस्कर है कि उसकी रौशनी सबको मिलती है। 1275 ई में जब उनका जन्म हुआ तब हर तरफ संस्कृत भाषा का बोल बाला था और सभी पुस्तकें भी संस्कृत में उपलब्ध होती। उन्होंने पहली बार मराठी भाषा में श्रीमद भगवत गीता पर ज्ञानेश्वरी नामक भाष्य की रचना की तब उनकी आयु केवल 15 वर्ष थी। इसमें गीता के 700 श्लोकों को मराठी भाषा की 1000 ओवियों (काव्य में प्रयोग में आने वाले छंद का एक प्रकार) में अत्यंत रस युक्त विशद विवेचना की। इसको रचना करते हुए उनकी वाणी वास्तव में अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हुई। ज्ञान, भक्ति और भाषा का मराठी का यह अद्वितीय ग्रंथ है। इस ग्रंथ के कई भाषाओं में इसका हिंदी में भी अनुवाद हुआ है। महाराष्ट्र में इस ग्रंथ को “माउली“ या माता भी कहा जाता है।
संत ज्ञानेश्वर का जन्म 1275 ई में महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में पैठण के पास गोदावरी नदि के निकट बसे आपे गांव में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ। उनके माता पिता विट्ल्ल पंत और रुक्मिणी बाई को कई वर्षों तक (संतान नहीं होने के कारण) उन्होने संन्यास जीवन ग्रहण किया लेकिन स्वामी रामानंद जब आलंदी पहुंचे तब उन्होने रुक्मिणी बाई को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। रुक्मिणी बाई ने पति विट्ठुल पंत के संन्यास ग्रहण करने की बात बतायी इस पर उन्होंने उन्हें पुनः सांसारिक जीवन में लौटने को कहा। तदुपरांत उन्हें निद्ती नाथ, ज्ञानदेव और सोपान नामक पुत्र और मुक्ताबाई सुपुत्री हुई। संन्यास ग्रहण के बाद संतानों का जन्म होने के कारण उन्हें कई उलाहनाएं सहनी पड़ती। उनके माता पिता को उस समय के समाज द्वारा दी गयी आज्ञानुसार देहत्याग करना पडा।
एक बार किसी शरारती ने संत ज्ञानेश्वर को कुछ कह दिया जो उनके मन को लगा। इससे नन्हें ज्ञानेश्वर ने अपने को कमरे में बंद कर लिया उन्हें मनाते हुए बहन मुक्ताबाई ने अपने भाई को द्वार खोल बाहर आने का अनुरोध किया बह मराठी साहित्य में ताटीचे अभंग ( द्वार के अभंग) के रूप में बहुत प्रसिद्ध है। बहन भाई से कहती है- हे ज्ञानेश्वर ! मुझ पर दया जिसमें 28 अभंग हैं। वह कितने विशाल हृदय संत थे उसे इसी बात से समझ सकते हैं कि घोर अन्याय और अपमान का सहन के और अपमान को सहने के बावजूद उसके प्रति छोटी सी प्रतिक्रिया भी उनके साहित्य में नहीं दिखाई देती। आडंबर को हटा कर धर्म को उन्होंने कर्तव्य का अर्थ दिया।
अध्यात्म के क्षेत्र में समानता को स्थापित करने के लिये वारकरी संप्रदाय की आधार शिला रखी अखिल विश्व का चिंतन उनके साहित्य की धरा है तो मानवोत्थान उनके विचारों की श्रृंखला में समाया है। अतः उन्हें ज्ञानदेव भी कहा जाता है।
प्रभु भक्ति उनमें इस सीमा तक समाई कि वह कई चमत्कारिक प्रसंगों के प्रदर्शक रहे जिसे देख जन साधारण अचंभित रह जाते। कहते हैं कि योगी चांग देव को अपनी ब्रह्मविद्या के ज्ञान पर अहंकार हो गया। वे संत ज्ञानेश्वर को नीचा दिखाना चाहते थे इसलिये हाथ में विषैले सर्प को ले सिंह पर सवार हो महाराष्ट्र के आलंदी गांव में जहां ज्ञानेश्वर अपने भाई बहनों के साथ रहते पहुंचे। वह अपनी टूटी हुई झोपडी में बैठे थे। सभी परिजनों ने चांगदेव का स्वागत करना चाहा। लेकिन उनकी मंशा को समझ कर संत ज्ञानेश्वर ने अपने योग बल से झोपडी की दीवार को वाहन का रूप दिया सभी भाई बहन उस पर सवार हो कर चांगदेव से मिलने निकल पड़े चांगदेव ने जब संत ज्ञेनेश्वर के इस अहंकार रहित यौगिक बल को देखा तो उन्हें समझ आ गया कि चमत्कार साधना नहीं है बल्कि इससे अभिमान बढ़ता है और साधना नष्ट होती है। उन्होने संत ज्ञनेश्वर को साष्टांग प्रणाम कर अपना शिष्यत्व प्रदान करने की विनती की।
सन 1964 में उनके जीवन पर आधारित हिंदी-मराठी में फिल्म “संत ज्ञानेश्वर“ बनी इस फिल्म ने हर ओर सफलता के नये रिकार्ड बनाये। प्रभात फिल्म कंपनी ने इसका निर्माण किया उस समय फिल्म ने पाँच करोड रुपयों का व्यवसाय कर फिल्मकारों को हैरत में डाल दिया। मुंबई और पुणे में फिल्म ने डायमंड जुबिली मनायी। देश के बाहर अमेरिका में यह फिल्म प्रदर्शित हुई तो दर्शक इसे लाइट आफ एशिया के नाम से देखने के लिये उमड पड़े। सन 1972 में दूरदर्शन मुंबई की शुरुआत हुई तब यह पहली फिल्म के रूप में टेलिकास्ट की गयी जिसे देख दर्शक मुग्ध हो उठे। फिल्म के कलाकार शाहू मोदक, दत्ता धर्मांधिकारी पं तम्हान्कर, शांता मजूमदार, सुमित गुप्ते और भागवत थे। फिल्म को आनंद कुमार और शिवराम वाशिकर ने लिखा। प्रभात फिल्म कं के संस्थापक विष्णु पंत ने निर्माण किया फिल्म के गीत “ज्योत से ज्योत जगाते चलो / प्रेम की गंगा बहाते चलो“ को अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली। इसके गीतकार भरत व्यास और संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल थे गीत को लता मंगेशकर और मुकेश ने गाया।
दरअसल संत ज्ञानेश्वर ने पारस्परिक प्रेम और प्रेम में ही परमात्मा के वास की शिक्षा को अपने लेखन व जीवन से सार्थक किया। उनके कहे अनमोल बचनों की आज अधिक प्रासंगिकता है उदाहरण स्वरूप “सहिष्णुता मनुष्य में एक बडा और आवश्यक गुण है इसे सहन शील भी कहा जाता है इसके लिये अभ्यास करना पडता है। वातावरण और परिवेश की प्रतिकूलता में इसको सिंचित नहीं किया गया तो इसके अंकुर सूख जाते हैं। ऐसा बहुत कुछ होता है जो परिवार के अनुकूल नहीं मिलता तब अपनी इच्छाओं और मन को मार कर गुजर बसर करनी पडती है और मूर्ख व्यक्ति के साथ सोच समझ कर ही व्यवहार करना चाहिये हो सके तो उससे बच कर निकल जाएंगे तो ही अच्छा है यदि आप उसका विरोध खुद भी मूर्ख साबित हो जाएंगे.. आदि। उनके द्वारा लिखित साहित्य की भाषा मधुर रसपूर्ण है जिसमें ईश्वर से अनुराग, ज्ञान, वैराग्य और विरह के दर्शन होते हैं।
महान संत योगी ज्ञानेश्वर ने 21 वर्ष की अल्पयु में इस नश्वर संसार को त्याग कर समाधि ले ली। अपने गुरु निक्त्त्ती नाथ को अंतिम बंदन कर आलंदी में जो पुणे से 14 कि मी दूरी पर है समाधि मंदिर में गये जहां पूरी चेतना के साथ ध्यान में बैठे और समाधि ग्रहण की।
अपने तपस्वी जीवन से इस महान संत योगी ने आत्मोन्नति का जो पाठ छोडा है वह कई कई शताब्दियों के बाद भी महत्वपूर्ण तथा आत्मसात करने का वंदनीय दर्शन है क्योंकि यह है मूर्धन्य कवि भरत व्यास के शब्दों में “प्रेम की गंगा बहाते चलो”।