हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलना सुखद संदेश है। 17 अगस्त 1961 ई. में जन्मी अनामिका जी हिन्दी साहित्य में अपने योगदान के लिए राजभाषा परिषद, भारत भूषण अग्रवाल, गिरिजा कुमार माथुर, केदार सम्मान और साहित्य सम्मान आदि पुरस्कारों से भी नवाजी जा चुकी हैं। कविता के साथ ही कथा साहित्य और आलोचना में भी अनामिका जी ने अपनी सशक्त उपस्थिति को दर्ज किया है।
कविता को पढ़ना, उसे समझना वस्तुत: अपने भीतर की आवाज को महसूस करना है। यह महसूस कराने का अनुभव ही अनामिका को दक्ष बनाता है। बीजाक्षर, गलत पते की चिट्ठी, अनुष्टुप, समय के शहर में, कविता में औरत, टोकरी में दिगंत आदि काव्य संग्रह में कविता की धूरी स्त्री है। पर स्त्री का चित्रण साहित्य में कोई नई बात नहीं है। फिर अनामिका की रचना में क्या नया है ? मेरे विचार से अनामिका ने स्त्री के दर्द उसकी पीड़ा को अपने काव्य में उकेरा है। यह अनामिका के साहित्य की ऊपरी पर्त है भीतरी पर्त में वह स्त्री के उन हिस्सों का वर्णन करती जो कविता की परिधि से बाहर थे। यह बाहर की परिधि काव्य के केन्द्र में ही नहीं आती बल्कि भीतर एक चुभन भी उत्पन्न करती है और समाज से सवाल करती है –
ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह वर्ष की उमर से
उनको ठिठकाएँ ही रखता
देवालय के बाहर
सर्वप्रथम टोकरी में दिगंत थेरी गाथा 2014 के संदर्भ में बात करना ज्यादा उपयुक्त है| स्वयं अनामिका जी के शब्दों में कहा जाए तो यह काव्य संग्रह ‘वर्तमान और अतीत, इतिहास और किंवदंती, कल्पना और यथार्थ यहां साथ साथ घुमरी परैया सा नाच के दिखा सकते हैं।’
बौद्ध धर्म की परंपरा और स्मृतियों की वाहक थेरी गाथाओं के बरअक्स स्त्री जीवन की उसके दुख उसकी पीड़ा उसकी अनुभूति की अभिव्यक्ति का यह सर्वथा नवीन प्रयोग है। अनामिका जी प्राचीन काल में प्रवेश करने का द्वार थेरियों को चुनती हैं और उस द्वार से भीतर प्रवेश करके वह स्त्री देह स्त्री मन को अनेक स्थलों पर विचरण कराती हैं। इस विचरण में वह स्त्री मन के अनगिनत रंगों से वर्तमान कैनवास भरने का सुंदर कार्य करती हैं। कुछ रंग हमारे जाने पहचाने हैं और कुछ रंग सर्वथा नवीन है। इन सभी रंगों से मिश्रित चित्र थेरियों के ही नहीं बल्कि आज की स्त्री का चित्र भी उसी प्रकार से उकरते है जैसा कि बौद्ध कालीन समय में रहा होगा। सच भी है स्त्रियों के लिए यह संसार कहां बदला है। स्त्री मुक्ति के सारे नारे कैसे व्यर्थ हो जाते हैं और ऊपरी पर्त में ही हम स्त्री विमर्श को ढूंढते रहते हैं। इस सत्य की कलई खोलता यह संग्रह अपने मर्मभेदी शब्दों के लिए सदैव याद किया जाएगा। शब्द तो भूल जाते हैं पर उसकी पीड़ा दिगंत तक फैली है और भीतर तक पैठ बनाए हुए है।
टोकरी में दिगंत के संदर्भ में अगर मैं कुछ विद्वानों को कोड करना चाहूं तो सर्वप्रथम प्रियदर्शन की बात को कहना चाहूंगी। वह कहते हैं कि यह कविताएं नहीं सभ्यता की अनसुनी आवाजें हैं। इस टोकरी में स्त्री इतिहास संस्कृति दर्शन आधुनिकता के दिगंत भरे पड़े हैं। प्रियदर्शन का यह कथन पूरे काव्य संग्रह को कुछ शब्दों में पाठक के सम्मुख खोल देता है। इस काव्य संग्रह को पढ़ने के लिए सिर्फ और सिर्फ स्त्री मन की आवश्यकता है। केदारनाथ सिंह के अनुसार यह एक नई काव्य की विधा है। वह कहते हैं कि ‘यह काव्य कृति एक नई काव्य भाषा की प्रस्तावना है जो व्यंजन के कई बंद पड़े दरवाजों को खोलती है। कविता की जानी पहचानी दुनिया में यह सबाल्टर्न भाव बोध का हस्तक्षेप है जो अलक्षित नहीं जाएगा।’ सत्य है यह लक्षित नहीं जाएगा।
टोकरी में दिगंत की प्रत्येक कविता को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि थेरियां अपने दुख शोषण रिक्तता और मन के क्षितिज को प्रस्तुत कर रही हैं और पाठक को यह महसूस कराती है कि यह जो थेरी है वह कोई और नहीं पाठक स्वयं है। इस संग्रह को पढ़कर के ऐसा लगता है कि हम उपन्यास पढ़ रहे हैं। इस दृष्टि से यह उपन्यासात्मक शैली में लिखा गया काव्य संग्रह है। इसमें थेरियों के पाठक से प्रत्यक्ष संवाद हैं, जिसमें सूत्रधार होते हुए भी अनामिका कहीं विलुप्त है और पाठक और थेरी एक दूसरे के सम्मुख उपस्थित हैं। एक उदाहरण देखिए –
तुम्हारा सुधार नहीं
व्यर्थ मैंने ऊर्जा जाया की
………..
राममोहन राय ईश्वर चंद्र कार्वे रानाडे ज्योतिबा फुले
पंडिता रमाबाई सावित्रीबाई
सब मुझसे मिलने आए
उन्होंने मेरा माथा सहलाया
और बोली धीरे से
इतिहास के सुधार आंदोलन
स्त्री की दशा को निवेदित है
और सुधरना किसे था
यह कौन सही कहे
थेरी के द्वारा पाठक के सम्मुख उठाया गया यह प्रश्न कि सुधरना किसे था संपूर्ण सुधारवादी आंदोलन के साथ आज के स्त्री विमर्श को भी आईना दिखाने के लिए पर्याप्त है। स्त्री विमर्श और समाज में चल रहा सुधारवादी आंदोलन की जमीनी हकीकत क्या है अनामिका इसी दुखती रग पर उंगली रखती है। मेरे अनुसार यह स्त्री विमर्श नहीं अस्मिता विमर्श है और यह थेरियों के प्रवेश द्वार से गुजरता हुआ आज भी पथरीले रास्तों पर चल रहा है कि शायद कभी तो मंजिल मिल जाए? शब्दों की मंजिल तो मिल जाएगी पर यथार्थ में कब मिलेगा ? इसके लिए अस्मिता विमर्श चलता रहा है और चलता रहेगा। शब्द कहते रहेंगे –
आज मैं इतिहास से टकरा गई
लेकिन वह मुझको पहचान ही न पाया
भूल चुका था मुझको पूरा वह
भूल चुका था कि मैं उसकी ही कक्षा में थी
बंद रूपक और शब्दों के सागर में डूबते उतर आते भाव को प्रस्तुत करने में यह कहा काव्य संग्रह अद्भुत है स्त्री और पुरुष के संबंधों के संदर्भ में परिपक्व दृष्टि संपन्न गणिका गली जैसी कविताएं सिर्फ अनामिका ही लिख सकती हैं बिना किसी भूमिका के साहसिक अंदाज में बौद्ध कालीन सच को उनके शब्दों में देखिए-
सभ्यता से भी प्राचीन
यह नदियों का तट थी विस्तीर्ण
चोर नपुंसक मूर्ख सन्यासी लंपट सामंत
इनके तक आते डूबती नौकाओं पर
और यह उन्हें उबार लेती
स्त्री जीवन का यह पक्ष इससे खूबसूरत शब्दों में और कैसे बयां किया जा सकता है। इन शब्दों में सिर्फ स्त्री का सच ही नहीं, स्त्री मन की गाथा ही नहीं बल्कि एक दर्शन भी व्याप्त है।
रुढ़ अर्थों में अनामिका स्त्री विमर्श की रचनाकार है पर अन्य रचनाकारों से अलग है। अनामिका ने अपने काव्य को स्त्रीवादी वैचारिकता में उलझने नहीं दिया है। इस संदर्भ में उनकी दृष्टि पूर्णत: स्पष्ट है। कविताओं में वह स्त्री की अनूतियों को स्वर देती है। कविता की कविताई और उसका तर्ज इनकी कविताओं में बरकरार है। अपनी कविताओं में वह प्रश्न तो उठती है पर विचारों का गुम्फन कवितापन को नष्ट नहीं करता है। कविता में भाव और अनुभूति की प्राथमिकता का अनामिका को सदैव याद रहती है। एक स्त्री का सच्चा चित्र इन शब्दों में देखिए –
जैसे कि मजदूरनी तोड़ती है पत्थर
मैने तोड़ा खुद को कूट कूटकर
धूल घूल ककडा कंकड़ी हुई
उडी-तो चुभी आँखों में किरकिरी सी
कविता की अकृतिमता ही अनामिका का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है। भारतीय समाज की कुरीतियों के साथ ही लोक जीवन’ भी इनकी कविताओं में उभर कर सामने आया है। इसी कारण एक ओर परम्परा है तो दूसरी ओर तर्कशील विचार है। एक ओर पुरातन है तो दूसरी ओर यथार्थ का मिश्रण है। अनामिका ने स्त्री जीवन की विडंबनाओं को अनुभूति के स्तर पर ले जाने का कार्य किया है। स्त्री पुरुष सम्बंधो की वास्तविक स्थिति, स्त्री मन के अन्तर्द्वंद्व, समाज की रूढ़ियों और सोच को पाठक के सम्मुख लाने में इनकी कविताओ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इस पूँजीवादी समाज ने स्त्री को वस्तु बना दिया है। कवयित्री की पैनी निगाह इस ओर जाती है। हर वह कदम जो स्त्री के शोषण की ओर बढ़ता है अनामिका उसे अपनी कविता में ले आती है। स्त्री के वस्तु बनने के दुष्परिणामों से वह परिचित है और कारण भी जानती है —-
अधुनातन बाजारों के समानांतर
सजे हुए है मुझ में,
हाट पुराने मीना बाजार
जैसे कि भग्नावशेष पुरातात्विक
महासागर की छाती पर
स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता के ढोल पीटने वाले छ्द्म से भी अनामिका पूरी तरह भिज्ञ है। उन्हें पता है कि पुरुष ने अपनी इच्छा और सुविधा के अनुरूप स्त्री को स्वतंत्रता दी है। स्त्री के पास विकल्प कम है क्योंकि पुरुष बदलना नहीं चाहता है। परंतु अनामिका का उद्देश्य वास्तविक और यथार्थपरक है। तभी तो वह कहती है –
इतना ही करूंगी कि उठूँगी
खोल दूँगी पर्दे
अंतिम उजास की छिटकी हुई किर्चियाँ
पल भर में भर देंगी
सारा का सारा स्पेस
और फिर उसका अनुवाद
अंतरिक्ष नहीं विस्तार करूंगी मैं
केवल विस्तार
आज भी सही अर्थों में घर स्त्री को कहाँ नसीब है। अनामिका चाहती है –
दरअसल इस पूरे घर का
किसी दूसरी भाषा मेंअनुवाद चाहती हूँ मैं
पर वह भाषा मुझे मिलेगी कहाँ
तेजी से बदलते समाज, एकल परिवार, शिक्षा की आवश्यकता आदि ने स्त्रियों को जितनी स्वतंत्रता दी है उतना ही असुरक्षा और अकेलापन दिया है। इस तथ्य को दूब धान जैसे संग्रह बखूबी बयान करते हैं। स्त्री का शारीरिक शोषण समाज में एक आम बात है। यह जितना संवेदनशील है उतना ही विचारणीय भी है। अनामिका इस मुद्दे पर समाज को गलत बताती है कि स्त्री को नहीं। गलत वह है जिसने गलत किया है पर दोष औरत के हिस्से आता है। अनामिका अपनी कविताओं में स्त्री के विभिन्न पक्षों को प्रतीकात्मक रूप में पाठक के सामने ले आती है –
एक गुफा है
मेरी नाभि के नीचे
अपनी ही खूँखारिता से थके
शेर चीते अजगर
आते हैं कुछ देर सोने यहाँ ……..
मकड़ी के जाले से आती हुई
सूरज की पहली किरण
पड़ती है बुझी हुई धूनी पर
मध्यवर्गीय स्त्री की विशेषता, विवशता, उसकी पीड़ा, संघर्ष आदि अनामिका की कलम से संवेदनात्मक रूप में साकार हुए हैं। वह घर और बाहर के शोषण को गूँथे शब्दों और भाव में व्यक्त करती है –
तुम्हारा पिन कुशन हूँ
नुकीली बात तुम मेरे हम में भोंककर
फासलों का फाइले बढ़ाते हुए
अर्दली से मांगते हो एक ठंडा ग्लास
अपनी रचना “रामायण के पृष्ठ पलटते हुए” में रामायण के पाठ को स्त्री के दृष्टिकोण से करती है। दूब धान संग्रह में रत्ना का संघर्ष तुलसी का झोला कविता में व्यक्त करती है।
अनामिका की कविताओं को देखकर केदारनाथ अग्रवाल का स्मरण हो आता है। आनामिका की तरह वह भी श्रम में सौंदर्य देखते है। केदार के काव्य में मुरैठा बाधे चना है या फिर लोहा श्रम का प्रतीक है। अनामिका भी स्त्री में सौंदर्य देखती है पर न उसके आँखो, बालों पर चर्चा करती है न कि उसकी मादक हंसी पर | उन्हे दिखती है श्रम साध्य हथेलियां। वह कहती है –
कल एक बर्तन पोछने वाले जूने से
छिदी हुई
पानी खाई सुंदर सी
खुरदरी हथेली
तपते से मेरे माथे पर
ठंडी पट्टी सी उत्तर आयी
कवयित्री की यह सुंदर सी खुरदरी हथेली का बिम्ब प्राचीन उपमानों से कितना भिन्न है। यह सौंदर्य यथार्थवादी है। आज इसी सौदर्य के चित्रण की आवश्यकता है। अनामिका की यह कविता प्राचीन और नवीन कविता का भेद भी स्पष्ट करती है। अब कोमल नायिका नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की स्थापना के लिए श्रम करती स्त्री नायिका है। अनामिका पुरूषों के बनाये फ्रेम वर्क से स्त्री को न देखने की सलाह देती है। अनामिका के लिए स्त्री भी एक सजीव इकाई है पुरुष की तरह। वह भी चाहती हैं –
हम भी इंसान हैं
हमें कायदे से पढ़ो एक एक अक्षर
सूनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसी समझी जाती है
नई नई सीखी हुई भाषा
अनामिका के काव्य में स्त्री ही स्त्री है चाहे वह किसी भी वर्ग जाति या संप्रदाय की हो। अनामिका मानती है कि प्याज के छिलके की तरह कई अस्मिताएं स्त्री से लिपटी रहती है। जब हम इस प्याज के छिलके पर्त दर पर्त खोलते हैं तो वर्ग, जाति या संप्रदाय के रूप में आते हैं पर इकहरी अस्मिता उसका स्त्री होना ही है। यह अस्मिता व्यापक है। वह कहती है –
जड कहो हमको
मगर हम जड़ नहीं है
काल की बरगद जटाएं हमी में आकर
सदा से लय हुई है
अनामिका अपनी प्राचीन विरासत के मूल्यवान तत्वों को अपने काव्य में समेटे हुए है। संस्कृत प्राकृत या अपभ्रंश साहित्य का व्यापक अध्ययन उनकी कविता औरत संग्रह में झलकता है। गाथा सप्तशती की रेवा रोहा आदि को वह ससम्मान याद करती है और उसी भाव बोध से अनुप्राणित हो कहती है’ – अहो! मैं मुक्त नारी, मेरी मुक्ति धन्य है।
अनामिका अपनी रचनाओं में पुरुषवादी और सामंतवादी विचारधारा से चालित इस समाज में नारी की स्थिति को पर्त दर पर्त खोलली ही नहीं है. बल्कि उसे व्याख्यायित भी करती चलती है। इनका काव्य ऐसी नारी को प्रस्तुत करता है जो विचारधारा ये आधुनिक है। अपनी अस्मिता की पहचान अपने अस्तित्व निर्माण के लिए सजग है। गृहलक्ष्मी पर लिखी दस कविताएं सामंतवादी भारतीय समाज का आईना प्रस्तुत करती है।
अनामिका की कविताओं में स्त्री विमर्श विमर्श के रूप में नहीं बल्कि यथार्थ के रूप में चित्रित हुआ है। अनामिका में भारतीय स्त्री की आवाज को पाठक के समक्ष रखा है| इस आवाज में मुखरता नहीं है बल्कि तर्क है विद्रोह है पर इसका शोर नहीं है। स्त्री विमर्श अनामिका के काव्य में ही नहीं कि विचार में भी है। स्त्री विमर्श की उनकी चारों पुस्तकें उनके विचार का ही परिणाम है। स्त्रीत्व का मानचित्र में वह भारतीय संदर्भ के साथ ही पाश्चात्य विचारकों तक भ्रमण करती है। इसमें संकलित उनके लेख स्त्री आन्दोलन की भ्रांतियो को दूर करता है। मन माझने की जरूरत पुस्तक मिथकीय आख्यानों की स्त्रियों की व्याख्या करता है। पानी जो पत्थर पीता है में अनामिका स्त्री शोषण से लेकर वृद्ध जनों तक पर अपने विचार रखती है। स्त्री विमर्श का लोकपक्ष पाश्चात्य परंपरा के बौद्धिक विमर्श पर आधारित है। यह पुस्तक स्त्री विमर्श की वर्तमान परिस्थिति पर बौद्धिक और तर्क पूर्ण विचार विमर्श है। स्त्री विमर्श का लोकपक्ष में वह कहती है —- “स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग नस्ल राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है। और जहाँ कही दमन है चाहे जिस वर्ण जिस नस्ल जिस जाति की स्त्री त्रस्त है उसको अंकवार लेता है। इसलिए स्त्री विमर्श पर अलगाववाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता है।
आलोचना के अतिरिक्त अनामिका जी ने कथा साहित्य विधा को भी समृद्ध किया है। राजकमल से प्रकाशित उपन्यास आईना साज अमीर खुसरो के जीवन पर आधारित है। तिनके तिनके उपन्यास वेश्यावृत्ति की समस्या के माध्यम से स्त्री मुक्ति के अर्थ को तलाशता है। उपन्यास में अनामिका जी ने दाम्पत्य सम्बंध, पुरूष की दुराचारी प्रवृत्ति, स्त्री स्वाधीनता आदि पर अपनी आधुनिक विचारधारा को प्रस्तुत किया है। उपन्यास में स्त्री पुरुष संबंध और विवाह संस्था की पुनर्व्याख्या का प्रश्न बड़े संवेदनशील तरीके से उभरता है। स्त्री देह पर भी यह उपन्यास खुल कर चर्चा करता है। अवंतिका के माध्यम से अनामिका एक आम और हर स्त्री की पीड़ा को बताती हैं – “एक तरह की कॉलगर्ल हर औरत होती है, व्याहता और गृहस्थिन भी। कॉल गर्ल को तो छूट भी होती होगी, हर कॉल पर वह प्रस्तुत न हो, पर गृहस्थिन की क्या मजाल।“
प्रेमचंद ने जैसे सेवा सदन की कल्पना की है स्त्री की स्थिति में सुधार के लिए वैसे ही अनामिका जोगनिया कोठी की कल्पना करती है। यह रचनाकार का आकांक्षित समाज है जहाँ सुधारात्मक दृष्टिकोण दिखाई देता है। दस द्वारे का पिंजरा भी इसी कथ्य पर आधारित है। पर अनामिका की यह विशेषता है कि अपराध बोध यहाँ कहीं नहीं है। इनके पात्र स्वाभिमानी है। मर्यादा की नई व्याख्या उपन्यासों में हम देखते हैं। दस द्वारे का पिंजरा में दलित जीवन की तकलीफों हादसों और त्रासदी का चित्रण व्यापक धरातल पर है। सदाव्रत के माध्यम से उस पीड़ा को भीतर तक महसूस कराया है अनामिका ने।
अवान्तर कथा उपन्यास में महानगरीय परिवेश में युवा वर्ग की मानसिकता का सच्चा दस्तावेज़ प्रस्तुत किया गया है | स्त्री यहाँ भी केन्द्र में है। वह कहती है -औरत तो खुद ही लक्ष्मी होती है उसे लक्ष्मी उपार्जन का माध्यम बनाना अजीब लगता है।“
दस द्वारे का पिंजरा में अनामिका प्रश्न उठाती है -“कितनी अजीब लगता है कि ससुराल से जब सीता निकाली गई तो नैहर से भी कोई लिवाने न आया। ऐसा भी क्या विदेह हो जाना।” यह कहना आज भी अतिश्योक्ति न होगा कि औरत का अपना घर एक स्वप्न है। मायका या ससुराल दोनों उसके नहीं हो पाते हैं।
अनामिका की कहानियाँ, विषय और भाव की दृष्टि से उपन्यासों से अलग है। एक थे भगवान कहानी में समाज की मान्यताओं अन्धविश्वासों पर करारा प्रहार है। इमारत की पायदारी आंचलिकता की दृष्टि से अलग कहानी की जा सकती है।
भाषा की दृष्टि से हम देख तो अनामिका के काव्य में आंचलिक शब्दों का प्रयोग उन्हें अलग बनाता है। आंचलिक शब्दों के प्रयोग का कारण उनके लोक बिम्ब और लोक मुहावरे है। हिंदी के शब्दों के साथ ही संस्कृत,उर्दू और अंग्रेजी के शब्द भी इनकी रचनाओं में सहज रूप से प्रयुक्त हुए है। भाषा में व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग उनकी दृष्टि सूक्ष्मता को व्यक्त करता है। किसी भी बात को सहज तरीके से प्रस्तुत करते हुए उसे नारी जीवन से प्रतीकात्मक रूप से जोड़ने का गुण अनामिका को विशिष्ट बनाता है। चित्र विधान शैली अनामिका की हर कविता के साथ ही सम्पूर्ण कथा साहित्य में प्रयुक्त हुआ है जिससे भाव सरल व ग्राह्य हो जाते हैं।
बिम्ब के प्रयोग की दृष्टि से अनामिका का साहित्य बेजोड है। वस्तु बिम्ब का एक उदाहरण द्रष्टव्य है –
मैं इश्क दरवाजा थी
तुमसे जितना पीटा गया
उतना खूलती गयी
अनामिका के बिम्ब पर दिविक रमेश जी का कहना है कि – “अनामिका की बिम्ब धर्मिता पर पकड़ तो अच्छी है ही दृश्य बंधो को सजीव करने की उनकी भाषा भी बेहद सशक्त है।”
वस्तुत: अनामिका कविता में नये बिम्ब और प्रतीक को लेकर साहित्य में आई है। एक साधारण सा डाक टिकट कैसे स्री पुरुष के सच को सहजता से व्याख्यायित कर देता है हम पाठक के आश्चर्य का विषय बन जाता है। अनामिका का लेखन कौशल इस कविता में पूरी तरह से खुल कर सामने आता है –
बच्चे उखाड़ते है
डाक टिकट पुराने लिफाफों से जैसे
वैसे ही आहिस्ता आहिस्ता
कौशल से मैं खुद को हर बार करती हूँ
तुमसे अलग
अलग करना वह भी कौशल से।
अनामिका के साहित्य की भाषा में एकरूपता और इकहरापन नहीं है। उनके साहित्य का विकास और फैलाव अपने संयमित आकार में है। सत्य कहा जाय तो अनामिका का साहित्य एक लेख में समेटना असंभव है। मेरा प्रयास अल्प मात्र है।