कल शाम जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में नाट्य प्रस्तुति ‘सम्राट रंजीत सिंह’ का मंचन गवरी शैली को आधार बनाकर किया गया। गवरी एक लोक नाट्य शैली है, जो राजस्थान के भील समुदाय के लोगों के द्वारा की जाती है। यह नृत्य-नाटक भीलों की प्रमुख देवी गवरी को समर्पित होता है। गवरी शब्द की उत्पत्ति मां गौरी से मानी जाती है और यह राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है। इसे लोक नाट्यों का मेरु नाट्य भी कहा गया है।
हालांकि गवरी को लेकर धारणाएं हैं जिसमें से एक यह है कि गवरी भगवान शिव को एक अनोखे रूप में प्रस्तुत करने की कला है। और यह नाटक शिव, विष्णु और भस्मासुर का प्रतिनिधित्व करता है। जिसमें मुख्य रूप से कई पात्र होते हैं – मानव पात्र, दानव पात्र, पशु पात्र।
हालांकि कल रात जवाहर कला केंद्र में शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ को आधार बनाकर इस लोक नाट्य का मंचन हुआ। जिसमें कुछ गवरी के कलाकारों प्रशिक्षण पाकर नृत्य, अभिनय, नाटकीयता, प्रतिमा का निर्माण, संगीत और वार्तालाप के ज़रिए कलात्मक कौशल का प्रदर्शन किया गया।
एक विशेष बात जिसका इस मंचन में ध्यान रखा गया वह यह कि गवरी में जिस तरह दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हर चरित्र को अलग तरह से सजाया जाता है, ठीक उसी तरह कल रात नाटक में पात्रों को तैयार किया गया था। जिसमें काले, नीले, पीले, लाल रंगों का भरपूर इस्तेमाल हुआ।
जवाहर कला केन्द्र में नाट्य प्रस्तुति ‘सम्राट रंजीत सिंह’ जो मंचन हुआ जवाहर कला केन्द्र की ओर से आयोजित 45 दिवसीय “आधुनिक रंगमंच एवं गवरी लोक नाट्य शैली आधारित अभिनय व प्रस्तुतिपरक कार्यशाला” में तैयार हुआ। गवरी के साथ ही शेक्सपियर के नाटक ‘मैकबेथ’ को रांगेय राघव द्वारा किए नाट्य रूपांतरण से प्रेरित होकर गवरी शैली में ढाला गया था।
इस 45 दिन की कार्यशाला का निर्देशन वरिष्ठ नाट्य निर्देशक साबिर खान ने किया। बात करूं नाटक की कहानी की तो इसकी कहानी इंद्रगढ़ के वफादार सेनापति रंजीत सिंह के इर्द गिर्द घूमती है। साहसी और बुद्धिमानी रंजीत सिंह कई युद्धों में अपना पराक्रम दिखा चुकने के बाद और पड़ोसी राज्य से युद्ध में एक बार फिर अपने युद्ध कौशल और प्रभावी रणनीति के चलते किस तरह इंद्रगढ़ को दिलाता है। और फिर किस तरह वह सेनापति के रास्ते से होता हुआ राज्य पर अपना अधिकार जमा लेता है यह कहानी पूरे डेढ़ घंटे में दिखाई जाती है।
इस बीच नाटक में एक मोड़ यह भी आता है कि युद्ध से वापसी के दौरान रंजीत सिंह और उसके सेनापति मित्र अजीत सिंह को तीन डायनें मिलती हैं, जो रंजीत सिंह के सम्राट बनने की भविष्यवाणी करती है। इस घोषणा से रंजीत सिंह विचलित तो होता है किंतु साथ ही उसके मन में राजा बनने की महत्वाकांक्षा जाग उठती है। जब वह अपनी पत्नी को यह बताता है तो वह भी महारानी बनने के सपने बुनने लगती है। राज्य में वापस लौटने पर राजा विक्रमजीत सिंह जीत के बाद रंजीत सिंह को बधाई देता है और साथ ही उसके घर मेहमान स्वरूप भोज करने की इच्छा जाहिर करता है। जब यह सूचना रंजीत की पत्नी को मिलती है तो यहां से नाटक एक दिलचस्प मोड़ ले लेता है। फिर किस तरह हत्या और षड़यंत्र का खेल शुरू होता है उसे नाटक में बखूबी दिखाया गया।
वर्तमान समय में जिस तरह लोकनाट्य शैलियों को उनके मूल तत्वों सहित, आधुनिक रंगमंच के साथ जोड़ते हुए नाट्य रूप प्रदान कर प्रदर्शित किया जा रहा है वह प्रभावी तो है ही साथ ही यह लोक नाट्य को सुरक्षित एवं संरक्षित बनाए रखने का भी एक कारगर उपाय है।
हालांकि 45 दिन की अथक मेहनत के बावजूद जिन अभिनय के नालायकों (जिन्हें अभिनय का क, ख, ग नहीं मालूम) को लायक बनाने की निर्देशक ने कोशिश की है वह बेहतर तो लगती है, सुकूनदेह भी किंतु वह प्रभावी नहीं बन सकी। 45 दिनों में जितना प्रयास इन कलाकारों द्वारा किया गया और अपनी पहली प्रस्तुति दी गई उसमें मात्र दो तीन कलाकारों को छोड़ सभी केवल संवाद बोलते, चीखते चिल्लाते नजर आते हैं। कलाकारों के हाव-भाव से कहीं भी आप न द्रवित होते हैं ना उत्तेजना के शिकार। एक ठंडी आह भरकर जब आप जल्दी में प्रेक्षागृह से बाहर आ जाएं तो समझिए नाटक तो अच्छा था कोशिशें भी अच्छी थी किंतु कामयाब नहीं। इसके अतिरिक्त लाइट, साउंड, गीत संगीत इत्यादि नाटक की तमाम जरूरी चीजें हल्के रूप में उभरकर आती हैं।
विशेष छाप कोई छोड़ पाता है पूरे नाटक के दौरान तो संदीप स्वामी का किरदार और राम का किरदार याद रह जाता है। इस बीच राम के किरदार से प्रेरित होकर प्रेक्षागृह में भी हो…. हो की आवाजें बार बार गूंज उठती है और एक खुशनुमा माहौल बना जाती हैं। ऐसे कलाकार लोक नाट्य शैली के लिए स्तंभकार हैं जिनसे प्रेरित होकर इस विधा में हाथ आजमाया जा सकता है।
नाटक में अभिनय करने का मतलब केवल संवाद अदायगी कर देना भर नहीं होता। नाटक में अभिनय करने का मतलब केवल चिल्लाना नहीं होता। नाटक में अभिनय का मतलब सपाट और बिना हाव भाव के अभिनय दिखाना नहीं होता। नाटक में प्रत्येक पात्र के हाव भाव, उनका चलना, उठना, बैठना, कदमताल करना हरेक चीज मायने रखती है। किंतु क्या इस बात के लिए निर्देशक और इन कलाकारों की तारीफ नहीं की जानी चाहिए कि इन्होंने आखिर कोशिश तो की। एक दफा की कोशिश में कुछ कामयाब और कुछ नाकामयाब हुए ये कलाकार निरंतर अभिनय प्रशिक्षण से अपने अभिनय में अवश्य निखार ला सकते हैं, इतना तो आपको विश्वास ये दिलाते ही हैं।
इस नाटक के मंचन में इन युवा रंगकर्मियों को उदयपुर से गवरी के विशेषज्ञ अमित गमेती, गणेश लाल व उनकी टीम ने गवरी शैली से परिचित कराते हुए जो प्रशिक्षण दिया है वह इन कलाकारों को अवश्य ही भविष्य में विस्तार देगा।
राजस्थान के जिस लोक नाट्य शैली को जिलाये रखने का प्रयास कला एवं संस्कृति मंत्रालय यहां का कर रहा है और जिस तरह के प्रयास जवाहर कला केन्द्र में हो रहे हैं वे इस बात के प्रमाण है कि हमारी लोक नाट्य शैली अभी भी जीवंत है।