पाँच हजार कि.मी. दूर रूस-यूक्रेन में युद्ध चल रहा है और यहाँ भारत में एक परिवार की दुनिया उजड़ गई। खबर आई कि कर्नाटक के मूल निवासी नवीन शंकरप्पा, जो यूक्रेन के खारकीव शहर में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे थे, रूसी गोलाबारी की चपेट में आ गए। जब उन पर रूसी रॉकेट गिरा तब वे एक राशन की लाइन में खड़े थे। जी हाँ, वे अपने आटे-दाल का इंतजाम करने के लिए बंकर से बाहर निकले थे। एक मौलिक जरूरत पूरी करने की गरज से निकला वह युवा दुनिया की सबसे गैर-जरूरी चीज़ ‘युद्ध’ की वजह से दुनिया से चला जाता है।
खारकीव में दिवंगत हुआ नवीन भारतीय था, इसलिए हमारी संवेदनाएं इस सुदूर युद्ध के प्रति बढ़ गई हैं। जिसे कल तक हम तमाशबीन बने देख रहे थे, आज उस युद्ध के प्रति अचानक भावनाएं उमड़ने लगी हैं। लेकिन, क्या युद्ध की विभीषिका के प्रति हमारी प्रतिक्रिया उसके हम पर पड़ने वाले असर पर आधारित होनी चाहिए? यानी, हमारी सीमा पर युद्ध लड़ा जा रहा हो तो अलग बात रहेगी, और पाँच हजार किमी दूर है तो अलग? युद्ध पर हमारी सहज प्रतिक्रिया इतनी अशुद्ध क्यों है?
इस समय कीव में जो अफ़रातफ़री का आलम है, उसने जैसे अफगानिस्तान की सारी तस्वीरें सामने रख दी हैं। वही कहानी अब नए चेहरों के साथ दोहराई जा रही है। मनुष्यता की इससे बदतर तस्वीर और क्या होगी! लोग बदहवास हैं। रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मची हुई है। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में हैं। स्थानीय नागरिकों की एक-दूसरे से लिपट रोने की कितनी ही खबरें वीडियो बन सामने आ रहीं हैं। उन रोती-बिलखती आँखों में आशंका में डूबे अनगिनत स्याह प्रश्न हैं, भय है कि न जाने अब अपनों से कब मिल सकेंगे! जानें कभी मिलेंगे भी या नहीं! प्रश्न तमाम हैं लेकिन उनके उत्तर धमाकों की आवाज और बारूद के गुबार में कहीं खो चुके हैं।
क्या युद्ध के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता?
युद्ध, पहला विकल्प है या आखिरी? क्या इसका होना, सही सिद्ध किया जा सकता है कभी? दरअसल सबसे बड़ा पाप तो युद्ध में सही/ गलत ढूँढना या इसका पक्ष/ विपक्ष तय करना ही है। हमे कैसे समझा दिया जाता है कि ये तो होना ही था! ये तो जरूरी ही था! समझ नहीं आता कि सारे रास्ते खुले होने के बाद भी महाशक्तियाँ लड़ने को इतनी उतावली क्यों रहती हैं?
मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके पास न केवल सोचने-समझने की शक्ति है बल्कि अभिव्यक्ति के सारे माध्यम भी खुले हुए हैं। मनुष्य रूप में इस धरती पर आना ही ऐसा अकेला भाव और घटना है कि इस योनि में जन्म लेने का जश्न मनाया जाता है। उस वक़्त किसे पता होता है कि जन्म पर खुश होता ये मानव समाज एक दिन स्वयं ही मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा।
आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो किसी को युद्ध की दहलीज पर लाकर खड़ा कर देती हैं? बुद्धि से भरपूर होते हुए भी मानव प्रजाति के सारे संवाद इतने कमजोर क्यों पड़ जाते हैं कि तलवारें खिंच जाए, खून बहने लगे पर अकड़ बरकरार रहे। प्रभुत्व या सत्ता की लड़ाई की कीमत क्या है और इसने हमें कहाँ ला छोड़ा है! आक्रमण और अतिक्रमण का परिणाम क्या है? जबकि सब जानते हैं कि युद्ध को शुरू करना तो आसान है पर खत्म करना नहीं।
क्या सच में कोई विजयी होता है?
महाभारत के समय से हमने भी इसे महिमामण्डित कर रखा है। लेकिन क्या कभी इस तथ्य पर विचार किया कि सारे कौरवों के मरने के बाद पांडवों ने कहाँ राज किया होगा? क्या उन्हें सुख मिला होगा? राम सीता को ले आए पर उस लंका का क्या हुआ?
क्या एक की हैप्पी एंडिंग दूसरे का दुख नहीं? क्या बिना किसी को खलनायक बनाए जीता नहीं जा सकता? क्या यह संभव नहीं कि इस प्रक्रिया में एक कुशल संवाद स्थापित किया जाए!
दो देशों की लड़ाई में हम देश को रेखांकित कर सकते हैं। सैनिकों और आम नागरिकों की लाशे, तबाही के मंज़र का हिसाब लगाकर ‘कौन जीता कौन हारा’ भी तय किया जा सकता है। परंतु क्या सच में कोई जीतता है? जीतने वाले की ये कैसी जीत है जो किसी को मारकर मिली!
यूक्रेन और रूस की लड़ाई का जो परिणाम हो सो हो पर जो निर्दोष लड़का मारा गया, उसका परिवार तो उसी वक़्त अपने जीवन का हर युद्ध हार गया। हम हार गए।
क्या हम सबसे दुर्भाग्यशाली पीढ़ी के नागरिक हैं?
मनुष्य जन्म लेने का यदि यही परिणाम है तो जानवर हमसे कहीं बेहतर हैं। हमने अब तक महामारी और युद्ध किताबों में ही पढ़े थे। पर बीते दो वर्षों में कोरोना महामारी के आगे घुटने टेकते बेबस दुनिया को देखा है। लाशों के अंबार को देखा है। और एक पल को लगा कि शायद अब हम कुछ बेहतर इंसान बन सकेंगे, इससे कुछ तो सीख लेंगे। हमने अफगानिस्तान में मची तबाही भी देखी है। वहाँ हमको सर्वनाश होते हुए दिखाई दिया, पर हमने होने दिया। मतलबी दुनिया तब भी चुप रही। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम मानव, दूसरे की लड़ाई में मजे लेने वाली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हम पड़ोस की लड़ाई में खिड़कियाँ खोल झांक तो लेते हैं पर मदद की गुहार अनसुनी कर यही खिड़की झट से बंद करने से भी नहीं चूकते!
रूस-यूक्रेन का युद्ध नहीं रुक रहा है, इसलिए हिम्मत नहीं हो रही है इस संपादकीय में पूर्ण विराम लगाने की। मन डर रहा है, उस पूर्ण विराम के बाद की आशंकाओं को लेकर। युद्ध में रत लोगों की खून की प्यास बुझी नहीं है। ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे। विनाशलीला का यह तांडव अब थम जाए। किसी का लहू न बहे क्योंकि सब बेगुनाह जन्मे हैं।
हमें तय करना होगा कि या तो सत्य, अहिंसा, प्यार, विश्व बंधुत्व की बातें धोखा हैं या फिर युद्ध करना कर्म नहीं, कुकर्म है। हम एक हाथ में बम लेकर दूसरे से कबूतर नहीं उड़ा सकते। यह विशुद्ध अशुद्ध है, पाप है। युद्ध का तमाशा देखना, मानवता की सबसे क्रूर विकृति है। यदि मनुष्य होने का हासिल यही है तो फिर पाया ही क्या है हमने?