हरियाणा में बिजली और उसके डांस के दीवाने हैं सब लेकिन वहीं खाप पंचायतों उनके फ़तवों-फ़रमानों के चलते यह काफ़ी बदनाम भी रहा है लेकिन जितने उन्होंने बंधन लगाए उतना ही इस क्षेत्र की लड़कियों ने फ़तवों-फ़रमानों, रीत, रिवाज और मर्यादाओं को तोड़ा भी। उसी हरियाणा के गाँव में एक अधेड़ हो चला बाप और उसकी बेटी किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। सपना को नाचने का शौक है फिर एक दिन उसे पता चलता है कि उसकी माँ को भी यह शौक था लेकिन वो अपने सपने पूरे नहीं कर पाई। उसी गाँव में एक बदमाश है जिससे सपना के बाप ने कुछ रुपये उठा रखे हैं। क्या होगा सपना के सपनों का? क्या कर्जा चुका पाएगा उसका बाप? क्या सुनाएगी पंचायत अपना फैसला? क्या सपना इन खोखले रीत, रिवाज़ों, मर्यादाओं को तोड़ पाएगी? ऐसी कई बातों के जवाब आपको जल्द ही हरियाणा के चर्चित ओटीटी प्लेटफार्म चौपाल पर 20 दिसंबर को मिलेंगे।
स्त्री समाज के लिए मर्दवादी समाज ने हर जगह रोक, टोक और अपनी सुविधानुसार बंधन तो लगाए हैं तभी स्त्रीवादी सिनेमा को पनाह मिली दुनिया-जहान में अपनी आप-बीती सुनाने की। इसी आप-बीती में आप दर्शक देखते हैं सपना के सब्र, उसके इम्तिहान, उसकी जिद्द और उस मर्दवादी समाज के रीत, रिवाज, मर्यादाएं, फ़तवे- फ़रमान। हरियाणवी फ़िल्म ‘सपना’ को सपना चौधरी की अनऑफिशियल बायोपिक भी एक समय कहा जा रहा था किन्तु यह फ़िल्म उस सपना चौधरी के संघर्षों को नहीं दिखाती बल्कि यह पर्दे की सपना की उड़ान को पेश करती है।
अपने पहले हाफ़ तक सरपट दौड़ती ‘सपना’ दूसरे हाफ़ तक आते-आते कई जगहों पर बिखरने भी लगती है। जिसके चलते आप जल्द ही इसकी कहानी को जान लेते हैं। अभिनय के मामले में ‘सुष्मिता राणा’ ने राजस्थानी सिनेमा में अपना अच्छा-ख़ासा नाम बना लिया है और उसी नाम को वे इस हरियाणवी फ़िल्म में भी भुनाती दिखी हैं। फ़तवे-फ़रमानों के बीच घिरी एक ग्रामीण लड़की के संघर्ष को वे भरपूर जीती हैं। फ़िल्म सपना के बहाने दिखाती है कि लड़कियों के लिए डगर मुश्किल है इस समाज में लेकिन उन्हें चलना होगा वो भी अकेले।
हालांकि फ़िल्म एक गाँव की लड़की के ही संघर्षों को नहीं उकेरती बल्कि यह समस्त स्त्री जाति की आम समस्याओं को भी उठाती है। तो वहीं दर्शक को नजर आता है Rj 41 नंबर, जो हरियाणा के किसी भी क्षेत्र का यातायात नंबर नहीं है। और ना ही नाम विक्टर रख लेने से हर कोई मॉर्डन दिखने लगता है और तो और फ़िल्म में एक ओर जहाँ डांस शो मुंबई में हो रहा है तो वहीं दूसरे सीन में डांसर जयपुर के जीटी मॉल में शॉपिंग करने आते हैं? सच्ची!
फ़िल्म की मुख्य नायिका ‘सपना’ का मानना है कि ज़िन्दगी भी साइकिल के पहियों जैसी घुमती रहती है। कभी ऊँची डगर पर तो कभी पथरीले रास्तों पर कभी मिट्टी में तो कभी कीचड़ पर। लेकिन फिर भी ज़िन्दगी रुकना नहीं छोड़ती बस चलते रहना चाहिए। यह फिल्म भी ठीक इसी तरह है कि चलती तो है लेकिन टेड़े-मेढ़े। मनोज फोगाट इससे पहले ‘जिद्द’ नाम से एक साफ़-सुथरी हरियाणवी फ़िल्म दे चुके हैं। इस फ़िल्म में भी उनका निर्देशन आशानुरूप ही दिखता है। तो वहीं सिकंदर चौहान, मंजूर अली कुरैश, राकेश कुमावत, उर्वशी व्यास, राकेश टेलर, प्रतिभा वैष्णव, अनामिका पारिक, राघव, मनोज, लवी सिंह की लिखी इस फ़िल्म में अपने अभिनय से न्याय करते दिखे हैं। तो वहीं विक्टर बने सुरेन्द्र चौधरी और विलेन बने मुनिराज मीणा अपने सीधे-सपाट अभिनय से ध्यान तो खींचते हैं पर असर छोड़ने में कामयाब नहीं दिखते। स्क्रीनप्ले लिखते समय लवी सिंह और मनोज फोगाट ने थोड़ा और इसे कसा होता तो यह फ़िल्म निखर सकती थी। फिलहाल के लिए अपने दो-एक गानों के साथ स्त्री के संघर्षों के लिए इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए।
जिंदगी आसान नहीं है लेकिन इसे बनाना पड़ता है थोड़ा सब्र करके, थोड़ा बर्दाश्त करके और बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करके। बस कुछ ऐसी ही यह फिल्म है इसे देखिए थोड़ा सब्र करके, थोड़ा बर्दाश्त करके और बहुत कुछ नजर अंदाज करके।