अच्छी और सच्ची आइडियोलॉजी के सरदार ‘सरदार उधम’
‘आदमी को मारा जा सकता है। उसके विचारों को नहीं और जिस विचार का वक़्त आया हो उसे वक़्त भी नहीं टाल सकता।’ आइडियोलॉजी अच्छी और सच्ची होनी चाहिए।’ हमें किसी इंसान के खून के प्यासे नहीं हैं हमें किसी आदमी या देश से नफ़रत नहीं है।’ सचमुच जब इतने अच्छे विचारों और आइडियोलॉजी वाले डायलॉग्स बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी, एक्टिंग, रियल लुक के साथ पेश किए जाएं तो फ़िल्म दिलों को छूती ही नहीं बल्कि इतना करीब हो जाती है कि आप इसे फिर से देखना चाहें।
‘सरदार उधम सिंह’ पर अमेजन प्राइम भईया ने ‘शूजित सरकार’ के निर्देशन वाली फिल्म ‘सरदार उधम’ आज रिलीज कर दी है। शुजित हमेशा अपने निर्देशन से दर्शकों , फ़िल्म समीक्षकों के दिल के ओर करीब आ जाते हैं। इतनी खूबसूरती से शहीद उधम सिंह को पर्दे पर उतारने का दुस्साहस-साहस वही कर सकते हैं। हालांकि कहीं छिट-पुट अंशों में यह हल्की भी होती है। तो कभी इतनी गम्भीर हो जाती कि आप ऊबने भले न लगें, लेकिन ये महसूस करेंगे कि एक ही फ़िल्म में कितने किस्से सुनाओगे यार।
आज के समय के हिसाब से आप इसे एक बेहद जरूरी पीरियड फिल्म कह सकते हैं। यह आम मसाला टाइप बॉलीवुड अंदाज वाली पीरियड बायोपिक नहीं है। बल्कि आपको इसके रियल लुक, लोकेशन्स, एक्टिंग, सिनेमैटोग्राफी, कैमरा, इसमें हो रही घटनाएं, बातें, चर्चा-विचार विमर्श, प्रेम का हल्का सा अंश, क्रूरतापूर्ण व्यवहार, आजादी, जंग सब कुछ बराबर मात्रा में मिलाए हुए मिक्सचर की भांति इस तरह परोसा जाता है कि आप इसके मोहपाश में बंध कर रहते हैं।
विश्व इतिहास के सबसे जघन्य और निंदनीय सामूहिक नरसंहारों में से एक जलियांवाला बाग हत्याकांड पहले नंबर पर दर्ज है। 13 मार्च 1919 को अमृतसर स्थित इस बाग में एक जनसभा में शामिल हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेज अफसर जनरल डायर ने गोलियां चलवा दी थीं। कई लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए, कई अपंग हुए। भले इस शर्मनाक घटना को एक पूरी सदी बीत चुकी है। लेकिन गाहे-बगाहे सिनेमा में इस पर फिल्में आती रहीं है। और हमारे जख्मों को कभी भरने नहीं देती। जैसे फ़िल्म बनाने वाले भी कसमें खाकर बैठे हैं कि हम तुम्हें यह भूलने नहीं देंगे। हर बार नए तरीके से तुम्हारे जख्मों को हरा करते रहेंगे। वैसे भी जंग बड़ी बेईमान चीज़ है। लेकिन यह फ़िल्म हर मोर्चे पर न्याय करती दिखती है। फ़िल्म में विश्व युद्ध के आरम्भ की बातों से लेकर, ब्रिटिश भारत में षड्यंत्र की रूपरेखा खींचने वाले तत्कालीन पंजाब प्रांत के गवर्नर माइकल ओ ड्वायर के इस कृत्य का उधम सिंह द्वारा लंदन जाकर करीब बीस साल बाद गोली मार कर बदला लेने की कहानी है।
एक्टिंग के मामले में किसी एक का नाम लेना गलत होगा। एक्टिंग सभी ने उम्दा की, लोकेशन प्रभावी रहीं। फ़िल्म कुछ ज्यादा ही गम्भीर भी लगने लगती है। इस किस्म का सिनेमा बेहद कम लोगों द्वारा पसंद किया जाता है। लेकिन यह एक ऐसे विषय पर बनी फिल्म है जिसे हर कोई भर-भर तारीफों के पुल बनाकर देगा। सबके लिए इस फ़िल्म के बारे में कहने के अपने किस्से होंगे।
फिल्म में 1900 से 1941 के दौर का भारत और लंदन दोनों जीवंत से हो उठे हैं। चाहे जगह हो कोई, इमारतें हों, सड़कें हों, बिल्डिंग्स इत्यादि हों, कॉस्ट्यूम्स हों, बैकग्राउण्ड स्कोर हों। सब कुछ जो उस समय अतीत में था उसको हम अपनी आंखों के सामने जिंदा मौजूद पाते हैं।
‘मसान’, ‘संजू’, ‘उरी’ जैसी फिल्मों से अपने आप को साबित कर चुके ‘विक्की कौशल’ इस बार उनसे भी कहीं आगे निकल गए हैं। , ‘शॉन स्कॉट’, ‘स्टीफन होगन’, ‘अमोल पाराशर’ जैसे अभिनय के बड़े खिलाड़ी जब पर्दे पर मौजूद हों। फ़िल्म की लंबाई करीब पौने तीन घंटे हो। जिसमें न किसी तरह की जल्दबाजी दिखे और न ही अत्यधिक ठहराव, तो ऐसे में आप भी इसे इत्मीनान से पूरे परिवार के साथ देखिएगा। इस फिल्म को शुभेंदु भट्टाचार्य और रितेश शाह ने लिखा है। रितेश इससे पहले ‘पिंक’ जैसी उम्दा कहानी कह चुके हैं।
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार
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फैमिली बनाना सिखाती है ‘हम दो हमारे दो’
ओटीटी प्लेटफॉर्म डिज्नी प्लस हॉट स्टार पर ‘हम दो हमारे दो’ फिल्म आई है इस हफ्ते। फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से फैमिली ड्रामा और मनोरंजक होने के साथ-साथ नया नजरिया भी पेश करती है फैमिली चुनने का। कायदे से देखा जाए तो हमारे अपने पुरखों का खून ही हमारी फैमिली होती है। लेकिन कई बार हम चाहें न चाहें कुछ ऐसे लोग भी अपने साथ जोड़ लेते हैं जो हमारी फैमिली का हिस्सा इस कदर बन जाते हैं, लगता ही नहीं कि वे हमारे अपने खून हैं।
इस फ़िल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एक गरीब अनाथ लड़का जो बचपन में किसी ढाबे पर बर्तन माँजता था। एक दिन वहां से भाग गया और कुछ सालों बाद बड़ा आदमी बनकर आया। उसकी अपनी मेहनत और लगन इसमें सबसे अहम रही। वहीं एक लड़की जिसकी इस लड़के से अब शादी होने वाली है। उसके भी मां-बाप नहीं है। चाचा-चाची के साथ रहती है। लेकिन उसे मां-बाप पसन्द है। कुत्तों से प्यार है। बस फिर लड़का लड़की मिले और फिर लड़के ने लड़की के प्यार में किराए के मां-बाप खड़े कर दिए शादी में। जो मां-बाप खड़े किए वो भी अपने बचपन के जमाने में एक-दूसरे से प्यार करते थे लेकिन उनकी शादी नहीं हो पाई।
अब वे किराए के मां-बाप क्या उस लड़के की शादी करवा पाएंगे? उन मां-बाप के बचपन का प्यार भी क्या अब बुढ़ापे में मुकम्मल हो पाएगा? जब हीरो का कोई खानदान नहीं है तो उसकी शादी में कौन सा फुफड़ नाराज होगा? कौन से मामा की नाक ऊंची होगी? बस इन्हीं सब से दो चार होते हुए जब आप यह प्यारी सी फ़िल्म देखकर उठते हैं तो आपके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट फैली हुई नजर आती है।
लेकिन फैमिली में ऐसा होता क्या है? जो आज भी हमारे इस भारतीय समाज को रास आता है। तो छोटू उसके बारे में भी फ़िल्म समाज का एक बताती है कि – फैमिली सबकुछ होती है। अगर फैमिली है जिंदगी में तो प्यार है। और प्यार है तो सबकुछ है। यही फैमिली जब कभी ताजमहल की मीनारों को छूती है। परांठे शेयर करती है। लड़ती-झगड़ती है। तभी यह मुकम्मल होती है। हम फैमिली चुन नहीं सकते यह या तो होती है या नहीं होती। बावजूद इसके फ़िल्म बताती है कि हम अपनी फैमिली चुन सकते हैं। भले ही सगे न सही लेकिन कुछ रिश्तेदार तो हम भी समाज में रहते हुए ऐसे चुन ही लेते हैं जो हमारी फैमिली वाले बन जाते हैं।
फ़िल्म की कहानी इसके निर्देशक अभिषेक जैन के अलावा उनकी टीम साथी प्रशांत झा, दीपक वैंकटेश द्वारा अच्छी रची गई है। लेकिन काश इसमें थोड़ा हीरो के बारे में उसके अपने द्वारा अपने संघर्ष केवल बताए जाने से कहीं ज्यादा थोड़ा दिखा दिया जाता तो यह फ़िल्म और बेहतर हो सकती थी। अभिषेक जैन का निर्देशन बेहतर रहा। प्रशांत झा के डायलॉग्स नया नजरिया देते हैं सोचने का। एडिटिंग के मामले में फ़िल्म पूरी तरह अपने सिनेमाई पैमानों पर कसी हुई नजर आती है। बस फ़िल्म का थोड़ा सा लुक, थोड़ा सा कैमरा एंगल, थोड़ा सा कलरिंग और अच्छा किया जाता तो इसे देखने का मजा दोगुना हो जाता।
सचिन-जिगर का म्यूजिक फ़िल्म का अच्छा साथ निभाता है। बैकग्राउंड स्कोर, लोकेशन, सेट डिजाइनिंग, कॉस्ट्यूम के मामले में भी फ़िल्म औसत से थोड़ा ऊपर रही। हां इसके गानों में एक गाने को छोड़ बाकी कोई ज्यादा अच्छा नहीं है। एक्टिंग के लिहाज से फ़िल्म के डायलॉग्स का मिजाज देखते हुए यह कभी गरम तो कभी नरम नजर आती है। कभी हंसाती भी है तो कभी भावुक भी करती है। हो सकता है कुछ फैमिली ड्रामा पसन्द करने वाले दर्शक इसे देख दो बूंदें आंसू भी टपका दें।
राजकुमार राव काफी समय बाद बड़े पर्दे पर नजर आए हैं। और उन्हें देखते हुए लगता है कि वे अपनी पुरानी फिल्मों की एक्टिंग का भी थोड़ा-थोड़ा अंश इस फ़िल्म में भी घुसेड़ देते हैं जो अच्छा भी लगता है। कृति सैनन, रत्ना पाठक शाह, परेश रावल का काम भी लुभाता है। अपार शक्ति खुराना के अभिनय में ज्यादा नहीं लेकिन फिर भी कुछ सुधार तो हुआ है। मनु ऋषि , प्राची शाह कम समय ही पर्दे पर नजर आते हैं लेकिन अपना बेहतर देकर फ़िल्म के मूड को सेट करे रखते हैं।
इस हफ्ते के लिए यह डिज्नी प्लस हॉट स्टार पर आया एक फुल फ्लेज फैमिली ड्रामा पिक्चर है। जिसे आप अपने पूरे परिवार के साथ एंजॉय कर सकते हैं। लेकिन काश की ऐसी फिल्में थियेटरों में लगी होती तो इसे देखने के लिए टिकट खिड़कियां फिर से चहक उठतीं। फिलहाल आप इसे घर बैठे ही देखकर चहक लीजिए। काफी समय से अगर आपने कोई फ़िल्म नहीं देखी है तो यह फ़िल्म आपके लिए पूरा पैसा वसूल ही रहेगी।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार
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इस ‘डि-बुक’ को देखकर डर क्यों नहीं लगता!
भूतिया फिल्मों या भुतहा जगहों पर जाने से डर लगने चाहिए कि नहीं मित्रों? भूतिया फिल्मों में भूत डराने वाले होने चाहिए की नहीं मित्रों? ऐसे ही भूतिया जगहों पर भी जाने में डर लगने चाहिए की नहीं मित्रों? अगर आपका जवाब हां में है तो इस डि-बुक को मत पढ़िएगा। ओह सॉरी! मत देखिएगा।
हिंदी सिनेमा में अब तक देखा जाए तो दो-चार फिल्में ही ऐसी आईं है जिन्हें देखते हुए हमें डर लगा हो। कुछ समय पहले आई तुम्बाड़ को ही फिर से देख लेना इसे देखने से बेहतर। खास करके हॉरर जॉनर पसन्द करने वाले लोगों को यह निराश करती है। यह ‘डि-बुक’ साल 2017 में आई एक मलयालम फिल्म ‘एजरा’ का रीमेक है।
एक तो यह समझ नहीं आता इन भूतिया फिल्मों में प्रेम कहानियां हर बार जरूरी होती हैं क्या सुनानी? और चलो सुना भी तो जब हीरो, हिरोइनी को मालूम है कि वह जगह जहां वे रह रहे हैं वो हॉनटेड है तो भी वहां जबर्दस्ती रहते हैं? जबर्दस्ती उन चीजों को छेड़ते-खोलते, देखते, उलटते-पलटते हैं जहां से कोई भी किसी भी तरह का बस भूत हो निकल कर सामने आ जाए। और हम उसके साथ कबड्डी या जूडो-कराते करने लगें।
इस फ़िल्म के साथ भी यही हुआ है। हालांकि कहानी अच्छी लिखी गई है लेकिन बस उसमें भूतिया मसालों की कमी शिद्दत से और बार-बार अखरती है। एक-दो सीन छोड़ दें तो कहीं भी ऐसा नहीं होता कि आप अपने हाथों को एकदम से डरके मारे खुल जाने वाले मुंह पर रख सकें।
16वीं सदी में कुछ ज्यूरिश लोग एक अनुष्ठान करते थे। जिसमें वे उन अतृप्त आत्माओं को एक बॉक्स में कैद कर देते थे जिसे डिबुक कहा जाता था। मॉरीशस के एक बड़े व्यापारी का यहूदी लड़का इब्राहिम इजरा और ईसाई लड़की नोराह को आपस में प्यार में हुआ। लेकिन उनका बाप याकूब जो मॉरीशस के यहूदियों की पहली पीढ़ी में से था जो दूसरे विश्वयुद्ध के समय फ्रांस से शह लेने आया था। बाद में अपना कारोबार फैलाया और वहीं उसने तांत्रिक विद्या में भी महारत हासिल की। बेटे के मरने पर उसने उस डिबुक को बनाया जिसमें कई सारी बातें लिखी हुई हैं। इस बुक में लिखा है कि आखरी यहूदी के मरने पर यह डिबुक ऐसे उस शरीर को काबू कर लेगी जो पूरी दुनिया को तबाह, बर्बाद करने में काबिल होगी।
अब यह डिबुक में बन्द आत्मा किस तरह के आदमी के शरीर में अपना निवास करेगी? क्या यह दुनिया तबाह, बर्बाद हो जाएगी? बस ऐसे ही कुछ सवाल आप अमेजन प्राइम भईया की अनुमति लेकर ओह सॉरी! मेम्बरशिप लेकर जान सकेंगे।
इस फ़िल्म में स्टार कास्ट की भरमार भी नजर आती है लेकिन एक्टिंग में इमरान हाशमी, मानव कौल, डेंजिल स्मिथ, अनिल जॉर्ज का अभिनय ही कुछ अच्छा लगता है। वहीं निकिता दत्ता कुछ खास प्रभावित नहीं कर पाती। काश कि वे थोड़ी खूबसूरत हीरोइन के रूप में ही दिख जातीं। सहायक भूमिकाओं में आने वाले अपना काम तसल्ली से करते जाते हैं बस इस बात का सुकून है। डायरेक्शन ठीक, एडिटिंग चुस्त, बैकग्राउंड दुरुस्त, म्यूजिक बढ़िया, सिनेमेटोग्राफी अच्छी, लोकेशन्स, फ़िल्म का लुक, फ़िल्म में कलरिंग का इस्तेमाल भी सही रहा।
ऐसी फिल्मों की कहानियां पढ़ने में ज्यादा अच्छी लगती। लेकिन जब उन्हें स्क्रिप्ट के रूप में ढाल कर फिल्माया जाता है तो उसमें उन कहानियों के मुताबिक जरूरी मसाले खास करके डर पैदा करने वाले होने चाहिए। यह फ़िल्म रोमांच का अनुभव तो कराती है लेकिन भय उस स्तर का पैदा नहीं कर पाती जिसे देखते हुए आप के भीतर एक ख़ौफ़ तारी हो जाए।