प्राचीन काल में स्त्रियों को अबला नाम से अभिहित किया जाता था। स्त्री जाति की शारीरिक अक्षमता से लाभ उठाकर पुरुषों ने सम्पूर्ण रूप से उन्हें परावलम्बी बना दिया। पुरुषों ने यह समझ लिया कि स्त्रियाँ प्रकृति से ही पराधीन होती हैं, और पुरुषों के अधीनस्थ होकर रहने में ही उनका श्रेय है। पुरुषों ने स्त्रियों की इस पराधीन स्थिति को सहजात समझकर उनकी आत्मिक उन्नति के लिए कभी चेष्टा ही नहीं की।
वैदिक काल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति वर्णनीय थी, पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त था, लेकिन मध्यकालीन भारत के अनेक हिन्दू शास्त्रकारों ने भी स्त्रियों को बहुत से मानवीय अधिकारों से वंचित रखने की व्यवस्था दी। देखा जाए तो स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में गिरावट मध्यकाल में ही अत्यधिक हुई। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, शिक्षा से वंचित तथा विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध, अनमेल विवाह जैसी सामाजिक विसंगतियों ने स्त्रियों के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को नरक बना दिया। ‘‘युगधर्म के अनुसार ही शास्त्रकारों ने समाज प्रचलित रीति-नीति को कानून का रूप दे दिया। इन सबका परिणाम यह हुआ कि स्त्रियों की उन्नति का मार्ग बहुत दिनों के लिए अवरुद्ध हो गया और पुरुषों की अर्धांगिनी और सहधर्मिणी के रूप में स्त्री के जिस महत्व व आदर्श की कल्पना की गई थी, वह आदर्श समाज की दृष्टि से तिरोहित हो गया।’’1**
भारत तथा अन्य प्राच्य देशों में स्त्रियों की यह पराधीन स्थिति बहुत दिनों तक बनी रहीं और इस समय भी बहुत कुछ बनी हुई है। यद्यपि कुछ वर्षों के अंदर इन सब देशों में भी स्त्रियों में अभूतपूर्व जागृति हुई। वह समय था औपनिवेशिक काल, जब राष्ट्रीय आन्दोलन तीव्र रूप ले रहा था और राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में स्त्रियाँ सफलतापूर्वक अग्रसर हो रही थी।
आज तक पुरुषों ने स्त्रियों पर मनमाना अत्याचार किया। स्त्रियों की प्राकृतिक संरचना का लाभ उठाकर उन्हें अपनी गुलामी में रखा। इस गुलामी को सुन्दर से सुन्दर नाम दिया गया- उन सुन्दर नामों पर सुन्दर से सुन्दर व्याख्याएं हुई, कविताएं की गई, किन्तु उनकी तह में छिपी रही एक भावना- ‘‘हे नारी तू पुरुषों से हीन है, बल में, बुद्धि में, सभी चीजों में तेरी रक्षा सदा होनी चाहिए चाहे तू लड़की हो, युवती हो या वृद्धा हो, तुझे अपने रक्षक के प्रति पूरा वफादार, भक्त होना चाहिये, तू उसे खिलाकर खा, उसके पैर दाब कर सो। हाँ सोने के पहले उसकी पाशविक प्यास को भी दूर कर, फिर जब तक वह सोता रहे, तू उठ जा.. कोई मुजायका नहीं कि यह आदमी कुरूप हो, क्रोधी हो, बदचलन हो, शराबी हो, ओ पगली, यह अंधा हो, या कोढ़ी तुझे तो ऐसी बाते सोचना तक नहीं चाहिये, तू चुपचाप उसकी सेवा किया कर।’’2**
आधुनिक युग की अनैतिक सभ्यता के पीछे रहने के कारण स्त्री जाति का आदर्श और महत्व अत्यन्त कम अथवा हीन है। इस बात को हम अवश्य स्वीकार करेंगे, कि पुरुषों की उपेक्षा और अनिच्छा के फलस्वरूप स्त्रियों में अज्ञान और अशिक्षा का जो अंधकार छाया है, उसे छिन्न-भिन्न कर नवीन ज्योति और नया प्रकाश उत्पन्न करने की परमावश्यकता है।
औपनिवेशिक काल में स्त्रियों की दशा तथा तमाम पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों के लिए कुरीतियां जैसे-दहेज प्रथा, कन्याभू्रण हत्या, सती प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध आदि जिम्मेदार थी। इन पारम्परिक रूढ़ियों एवं रिवाजों ने भारतीय स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को दिनांदिन समाज के सबसे नीचे पायदान पर लाकर खड़ा कर दी। इन समस्याओं को रीति-रिवाज व परम्परा के नाम पर पुरुषों ने जरूर स्त्रियों पर थोपा, परन्तु स्त्रियों की इन स्थितियों के जिम्मेदार सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि स्त्री समाज भी रहा है।
स्त्री जाति ही स्त्री की शत्रु बनी, चाहे वह सास के रूप में या ननद के रूप में, उसने अपनी ही स्त्री जाति का शोषण करवाने में पुरुष समाज का सहयोग दिया। दहेज हत्या, कन्या भू्रण हत्या में स्वयं स्त्री जाति ही ने स्त्री का गला दबाया, प्रताड़ित किया तथा अपने ही घर, समाज की स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा जारी रखी। ‘‘स्त्रियों की दयनीय दशा का कारण उनका पुराने आदर्शों से भटक जाना है। प्राचीन भारत में सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों ही रूपों में स्त्री को समाज के पैर की जूती समझा जाता था।’’3**
परम्परा स्त्रियों की गुलामी की कहानी रही है। आधुनिकता ने पहली बार उससे मुक्ति की सम्भावनाएं या अवसर पैदा किये। यह अवसर स्त्रियों को प्राप्त तब हुआ, जब भारत में विदेशी शासन का दौर आया। साथ ही समाज में परिवर्तन की किरण प्रकाशित हुई और यह एहसास हुआ कि सदियों पुरानी परम्पराएँ जो पुरुषवादी समाज ने अपनी सुविधा के लिए विकसित किये थे, धीरे-धीरे स्त्री के आँचल से चिपकते चले गये। सदियाँ बीतती गयी, हर क्षेत्र में उन्नति हुई फिर भी आंचल से चिपके ये परम्परा, रीति-रिवाज बने रहे, जो ऊपर से स्त्री का आभूषण दिखती है, पर असल में बेड़ियां हैं। ‘‘खेद की बात यह है कि इन नियमों को स्त्री ने नहीं बनाया बल्कि पुरुष ने बनाया। सिर्फ बनाया ही नहीं, उन्हें कभी स्नेह, प्यार, सहानुभूति, तो कभी छल-बल से लागू करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। नियम कभी न टूट, इसके लिए दण्ड-विधान भी निर्धारित किये गये। इसके अलावा कुछ अलिखित विधान भी है, जिनके द्वारा पुरुष की किसी गलती को स्त्री के मत्थे मढ़ा जाता है। पुरुष के अन्याय की बजाय स्त्री में दोष खोजना, ये पुरुषवादी सोच है।’’4**
सती प्रथा जैसी अमानुषिक व्यवस्था को उचित ठहराना, बाल विवाह को प्रचलित करना और विधवा पुनर्विवाह पर रोक भी मनुष्य की स्वार्थ लिप्सा का ही परिणाम थी। पुत्र वंश का उद्वार करेगा, पुत्री नहीं, ऐसा रचकर स्त्रियों के अंदर हीन भावना भरी गयी। शूद्रों की भांति स्त्रियों को उपनयन संस्कार से वंचित कर शिक्षा के दरवाजे बंद कर दिये गये।
‘‘बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर ने कई बार उद्घोषित किया है कि वर्तमान मनुष्य का एक लम्बी प्रक्रिया के तहत विकास हुआ है न कि उसकी उत्पत्ति हुई। विकास की इस लम्बी प्रक्रिया में जहां स्त्री को अर्धांगिनी कहा गया, वहीं दूसरी तरफ उसे अबला बना दिया गया।’’5**
हर रात का सबेरा होता है इसलिए औपनिवेशिक युग में जब देश ने अपने आजादी की मुक्ति की आवाज को बुलंद किया, तब स्त्री भी अपने वजूद के प्रति सजग हुई। सामाजिक व्यवस्था का सम्पूर्ण ढांचा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सहयोग पर आधारित होता है, इसीलिए समाज में स्त्री-पुरुष की समान भूमिका होनी चाहिए। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को सदा से उपेक्षित तथा वंचित किया गया है। स्त्री की शारीरिक कोमलता एवं सरल हृदय के कारण पुरुष ने सदैव ही उस पर प्रभुत्व जमाया है। स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध अभिन्न, अखण्ड और अनादि है, किन्तु स्त्री का व्यक्तित्व सृष्टि के आरम्भ से ही कभी ऊँचा तो कभी नीचा होता दिखायी देता है। मानसिक क्षमता और मानवीय भावनाओं के स्तर पर स्त्री पुरुष के समकक्ष है, किंतु पुरुष स्वयं को स्त्री से श्रेष्ठ मानकर स्त्री का शोषण करता रहा है।
अंग्रेजों के भारत आने से यहाँ आधुनिकता का विकास हुआ, तर्क, विवेक, बौद्धिकता और शिक्षा को बढ़ाया मिला तथा समाज की पुरानी परम्पराएं कमजोर पड़नी प्रारम्भ हो गयी। अंग्रेजी साहित्य पढ़कर यहां के समाज सुधारकों में परिवर्तन की अभिलाषा जगी। बंगाल में राजा राम मोहन राय देश में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने और स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता व समानता के पक्षधर थे। स्त्रियों को सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा से मुक्ति दिलाने वाले में भी राजा राम मोहन राय का ही नाम आता है, जिनके प्रयासों के फलस्वरूप ही सती प्रथा उन्मूलन कानून पारित हो सका। इनका कहना था कि- ’’औरते कुदरती तौर पर कम समझदार, बिना दृढ़ संकल्प वाली भरोसे के योग्य नहीं होती हैं।.. उनमें से बहुत सारी खुद ही अपने पति की मृत्यु के बाद उसे साथ जीने की कामना करने लगती हैं परन्तु वे धधकती आग से भाग न निकले-इसलिए पहले हम उन्हें चिता की लकड़ियों में कस कर बाँध देते हैं।’’6** इन्होंने अपने लेखन के जरिए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गयी। विधवा स्त्रियों को अपनी जिंदगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सती प्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। स्त्रियों को जबरन घरेलू कामों से बांधकर रखा जाता था। उनकी दुनिया घर और रसोई तक ही सीमित कर दी जाती थी और उन्हें बाहर जाकर पढ़ने-लिखने की इजाजत नहीं दी जाती थी।
महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ही थे जिन्होंने स्त्री मुक्ति को सर्वाधिक प्रधानता दी, इसमें इनका सहयोग इनकी धर्मपत्नी सावित्री बाई फुले ने भी दिया, अपने सामाजिक कार्य का प्रारम्भ ही उन्होंने लड़कियों को शिक्षा देने से प्रारम्भ किया। ‘‘1 जनवरी 1948 को ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए जो स्कूल शुरू किये, उस स्कूल ने स्त्रियों की मुक्तता के दरवाजे खोल दिये। किसी भारतीय व्यक्ति द्वारा भारतीय लड़कियों के लिए चलाया गया, यह पहला स्कूल था। किसी शिक्षक- शिक्षिका में पढ़ाने का साहस नहीं था, इसलिए ज्योतिबा की पत्नी सावित्री बाई फुले ने यह काम अपने जिम्मे लिया। यह पहली भारतीय शिक्षिका थी।’’7** ज्योतिबा फुले ने बाल-विवाह बहुपत्नीत्व, केश बपन, नियोग और वेश्यागमन जैसी रूढ़ियों का विरोध करते हुये विधवाओं की सुरक्षा के लिए बाल हत्या-प्रतिबंधक गृह स्थापित किया।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज संस्थापक दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, मोहनदास करमचन्द गांधी, केशवचंद सेन और भीमराव अम्बेडकर ने स्त्री मुक्ति का आन्दोलन चलाया। स्वामी दयानंद सरस्वती तथा ईश्वरचन्द विद्यासागर आदि ने विधवा विवाह के पक्ष में आन्दोलन चलाया और अपना समर्थन दिया। गांधी जी ने स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया और स्त्रियों की क्षमता और योग्यता पर विश्वास दिलाया कि स्त्री जाति पुरुष जाति से कमतर नहीं और राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों का सहयोग अवसर माना। साथ ही केशवचन्द्र सेन जैसे समाज सुधारक जिन्होंने बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के विरोध में आन्दोलन चलाया और भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाया गया हिन्दू कोड बिल स्त्री उत्थान का अब तक का सबसे सशक्त हथियार सिद्ध हुआ।
समाज सुधारकों ने सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। समाज में स्त्रियों की दशा अत्यन्त सोचनीय थी तथा उन्हें पुरुषों से नीचा समझा जाता था। समाज में स्त्रियों की अपनी कोई पहचान नहीं थी तथा उनकी ऊर्जा एवं योग्यता पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं बाल विवाह जैसी बुराईयों की बलि चढ़ गये थे। हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही समाज में स्त्रियां आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पुरुषों पर आश्रित थी। उन्हें शिक्षा ग्रहण करने की मनाही थी। हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं था तथा विवाह में उनकी सहमति नहीं ली जाती थी, बहुपत्नी प्रथा हिन्दू व मुसलमान दोनों समुदायों में प्रचलित थी।
पत्नी और मातृत्व दो ही ऐसे अधिकार क्षेत्र थे, जहां स्त्रियों को समाज में थोड़ी बहुत मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतया स्त्रियों को उपभोग की वस्तु माना जाता था। ऐसी अवधारणा थी कि उसका जन्म पुरुषों की सेवा करने के लिए ही हुआ है। समाज में उनका अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं था, तथा उनकी सभी गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का निर्धारण पुरुषों द्वारा किया जाता था। यद्यपि समाज के कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें स्त्रियों ने उल्लेखनीय कार्य किये थे, किन्तु ऐसी स्त्रियों की संख्या अत्यल्प थी। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जब कभी भी स्त्रियों की उपेक्षा की गयी है तब-तब सभ्यता अवनति की ओर उन्मुख हुई है।
समाज की प्रगति स्त्रियों की प्रगति से ही सम्भव है, इसलिए सभी समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने पर ध्यान केन्द्रित किया तथा अपील की कि स्त्रियों को समाज में उनका दर्जा प्रदान किया जाए। एक समग्र चिंतक के रूप में अम्बेडकर ने यह समझ लिया था कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण, दमन, एवं उत्पीड़न करने वाली सामाजिक व्यवस्था की समाप्ति के लिए जन आन्दोलन एवं जन जागृत की आवश्यकता है। वह समाज की निर्माणक इकाई स्त्रियों की सक्रिय सहभागिता के बिना नहीं हो सकती। समाज को मिलने वाली ऊर्जा का आधा हिस्सा स्त्रियाँ हैं। स्त्रियों में वे सभी गुण एवं क्षमताएं होती हैं, जो पुरुषों में होती है। जो समाज स्त्री के योगदान को कम करके देखता है, या उसे मात्र ‘अनुचरी’ की भूमिका में रखता है वह समाज एक बीमार समाज ही हो सकता है। उनका मानना था कि समाज के उन्मत होने का मापदण्ड उस समाज के पुरुष न होकर स्त्रियां होती हैं।
समाज सुधारकों ने घोषित किया कि ऐसा कोई भी समाज सभ्य एवं विकसित नहीं हो सकता, जहां स्त्रियों से भेदभाव किया जाता हो। समाज सुधारकों ने स्त्रियों के विरुद्ध आरोपित की गयी, विभिन्न कुरीतियों यथा-बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा इत्यादि की तीखी आलोचना की तथा इन्हें दूर करने के लिए प्रशंसनीय कदम उठाये। उन्होंने अंग्रेजी सरकार से भी अपील की कि वह समाज में स्त्रियों की दशा सुधारने हेतु पहल करे तथा स्त्रियों से संबंधित विभिन्न कुप्रथाओं को दूर करने हेतु कदम उठाये। उन्होंने मांग की कि स्त्रियों की मध्यकालीन तथा सामंतकालीन छवि को दूर किया जाये।समाज सुधारकों के इन्हीं प्रयासो का प्रतिफल था, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा मिलना। बाल-विवाह को प्रतिबंधित करने हेतु सरकार ने शारदा एक्ट पास किया और विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया गया, सती प्रथा जैसी कुरीति को कानून बनाकर खत्म कर दिया गया।
19वीं सदी के आखिर तक खुद महिलाएँ भी सुधारों के लिए बढ़-चढ़कर प्रयास करने लगी थी। संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई ने ‘एक विधवा गृह’ की स्थापना की, जहां ससुराल वालों के हाथों अत्याचार झेल रही स्त्रियों को पनाह दी जाती थी। वर्ष 1920 के पश्चात् जागृत एवं आत्म विश्वास से स्फूर्त स्त्रियों ने स्त्री अभियान भी प्रारम्भ कर दिये। स्त्रियों द्वारा अनेक संस्थाओं एवं संगठनों की स्थापना की गयी। इसी क्रम में 1927 में अखिल भारतीय स्त्री कांग्रेस का गठन किया गया। वर्ष 1910 में सरला देवी चौधरानी ने इलाहाबाद में भारत स्त्री महामण्डल की पहली बैठक का संचालन किया। एक स्त्री द्वारा गठित पहला बड़ा भारतीय स्त्री संगठन माने जाने वाले इस संस्थान के उद्देश्यों में स्त्रियों हेतु शिक्षा का संवर्धन, पर्दा प्रथा उन्मूलन और समस्त भारत में स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को बेहतर करना शामिल थे।
‘‘स्वर्ण कुमारी देवी उन औरतों में से एक थी, जिन्होंने आत्मशक्ति तथा स्वदेशी के आह्वान पर अमल किया और सन् 1886 में ‘साखी समिति’ नामक एक स्त्री संगठन शुरू किया, जिसका उद्देश्य विधवाओं को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देना था ताकि वे आत्मनिर्भर होकर शिक्षा के प्रसार में सहायता कर सके।’’8**
रूढ़िवादी विरोधी रवैया तथा आत्मनिर्भरता ही एक स्त्री के रूप में स्त्री का अवगुण माना गया। ‘‘पंडिता रमाबाई खुद ब्राह्मण होकर शूद्र से विवाह की इच्छा व्यक्त की, तो उन्हें इस कृत्य ने समकालीन रूढ़िवादियों, खासतौर से महिला मराठियों को ही उनके प्रति आक्रामक बना दिया। अरूढ़िवादी व्यवहार के कारण समाज को कलंकित करने वाली स्त्री के रूप में पेश किया। जबकि ‘रमाबाई ने महिलाओं की बेहतरी के कार्य करने के लिए आर्य स्त्री समाज की स्थापना की। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा आयोग के सम्मुख स्त्रियों की शैक्षिक पाठ्यक्रम में सुधार करने की वकालत की।’’9**
1925 में भारत में राष्ट्रीय स्त्री परिषद की स्थापना की गई, जो अंतर्राष्ट्रीय स्त्री परिषद की एक राष्ट्रीय शाखा थी। जिसके गठन एवं उन्नयन में मेहरीबाई टाटा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनका मानना था कि पर्दा प्रथा, जातिगत भेदभाव और शिक्षा के अभाव ने स्त्रियों को सामाजिक समस्याओं के समाधान पर कार्य करने से रोका है। स्त्री शिक्षा की प्रबल समर्थक मैडम कामा और कामिनी राय बंग स्त्री समिति में शामिल हो, स्त्रियों के सामाजिक सुधार की अनेक परियोजनाओं पर कार्य किया।
इस तरह से समाज सुधार का जो बीज बोया, उसे सिंचित कर सुधार रूपी वृक्ष को पल्लवित करने में स्त्री कितनी भी आजाद हो जाए, स्त्री की उस स्वतंत्रता को सह पाने और बर्दाश्त करने के लिए पुरुष मन का तैयार होना भी जरूरी है। स्त्री मुक्ति की मुहिम को समर्थन की दरकार होती है, चूंकि समानता के अधिकार को समाज स्वीकृत करेगा तभी उस पर कार्यान्वयन सम्भव होगा और अभी यह समाज पुरुषों द्वारा संचालित है। पुरुष की सत्ता व समाज पर जोरदार पकड़ है कि स्त्री अभी गुलाम की स्थिति में है और पुरुष स्वामी की स्थिति में, इसलिए स्त्री को अपने बंधन से मुक्त होने के लिए ज्यादा जद्दोजहद करनी होगी। प्रभा खेतान के शब्दों में -’’स्त्री न गुलाम रहना चाहती है, न ही पुरुष को गुलाम बनाना चाहती है। वह चाहती है मानवीय अधिकार।’’10**
इस प्रकार स्त्री पुरुष की वर्चस्वादी प्रवृत्ति और स्वामित्व की विरोधी रही न कि पुरुष की विरोधी। एक स्त्री समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान कायम रखने के प्रयासरत है, वह परम्परागत भूमिका से हटकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व व अस्मिता की समझ रखती है।
संदर्भः-
1** चतुर्वेदी, जगदीश्वर व सुधा सिंह, नारियों के समानाधिकार (सुभद्रा देवी), स्वाधीनता संग्राम हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लिमिटेड प्रकाशन नई दिल्ली, सन् 2006, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं0 287
2 ** चतुर्वेदी, जगदीश्वर व सुधा सिंह, कालेज की लड़कियां (रामवृक्ष बेनीपुरी), स्वाधीनता संग्राम हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लिमिटेड प्रकाशन नई दिल्ली, सन् 2006, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं0 283
3** राधा कुमार, उन्नीसवीं सदी (रमाशंकर सिंह), स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 2014, पाँचवा संस्करण, पृष्ठ सं0 524** गुप्ता, रमणिका, स्त्री और नैतिकता, स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, सामायिक पेपर बैक्स, नई दिल्ली, 2017, पृ0 सं0 116
5** वर्मा, डॉ0 कल्पना, भारतीय समाज में नारी मुक्ति की अवधारणा, (डॉ0 दीनानाथ), स्त्री विमर्श : विविध पहलू, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद 2011, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ सं0 234
6** बिपिन चन्द्र, महिलाएं जाति सुधार, आधुनिक भारत का विकास, एन.सी.ई. आर.टी नई दिल्ली, पृष्ठ सं0 111
7** वर्मा, डॉ0 कल्पना, भारतीय समाज में नारी मुक्ति की अवधारणा, (डॉ0 दीनानाथ), स्त्री विमर्श : विविध पहलू, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ सं0 237
8** राधा कुमार, राष्ट्रमाता बनती स्त्री, (रमा शंकर सिंह) वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 2014, पाँचवा संस्करण पृष्ठ सं0 90
9** बिपिन चन्द्र, सुधारवादी आन्दोलन आधुनिक भारत का इतिहास, एन0सी0ई0आर0टी0, नई दिल्ली प्रथम संस्करण पृष्ठ सं 200
10** गुप्ता, रमणिका, स्त्री और नैतिकता, स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, सामायिक पेपर बैक्स, नई दिल्ली, 2017, पृ0 सं0 110