“कहीं पर भी रहें हम तुम, मोहब्बत फिर मोहब्बत है”
“बनारसी” बहुत फबता है आप पर, कि जैसे फबता है चाँद स्लेटी बादलों के बीच, इतराता हुआ तारों के मोहल्ले में।
‘मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी
चोट खाती गई, चोट करती गई
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी
जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था।’
कहीं कुछ सुनते,पढ़ते कोई अस्थिर मन यदि तपाक से स्थिर हो जाये तो मैं इस खूबसूरत ख़लल को मोहब्बत कहती हूँ। ऐसी मोहब्बत को मेरे जैसे पाठक कभी शब्दों में तो कभी उस लिखने वाले इंसान में ढूँढ लिया करते हैं।
आपने अभी-अभी जो ऊपर कुछ बेहतरीन शेर पढ़े हैं, तो आपको बता दूँ कि यह गज़ल अधूरी है। इसे मुंशी जी (प्रेमचंद जी) के ऊपर दिल के लहू से लिखा है,अज़ीम हिन्दी व उर्द़ू के शायर मरहूम “नज़ीर बनारसी” जी ने।
वैसे नज़ीर बनारसी जी की गणना नज़्म और गज़ल के मशहूर शायरों में की जाती है। अब आप सोच रहे होंगे ये कि ये यात्रा वृत्तांतों वाली घुमक्कड़ लड़की कहाँ पहुँच गई सीधा बनारस के गंगा घाट! सच कहूँ तो मेरा खोजी पिठ्ठू बस्ता हमेशा तैयार रहता है, बस वज़ह वाज़िब होनी चाहिये। कुछ समय पहले कुछ पढ़ते वक्त एक शेर पढ़ा, तब से वो दिल के उदधि में हिचकोले ले रहा था, किनारे उतरता ही नहीं था ज़ेहन की नाव से! इसलिये खोजना शुरू किया कि ये आखिर है किन का लिखा हुआ है-
‘हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर,
गंगा तेरे पानी से वज़ू कर करके।’
बस इस गंगा की लहर ने पहुँचा दिया आलातरीन शायर तक- ‘नज़ीर’ साहब द ग्रेट,आपका जन्म 25 नवंबर 1909 को मदनपुरा,बनारस में हुआ। इनके वालिद पेशे से हक़ीम थे और नज़ीर साहब ने भी हक़ीमी के गुर सीख लिये। लेखन का हुनर हाथों का नहीं जज्बातों और जज़्बे का मोहताज होता है सो बन गये साथ ही साथ शायर भी। 23 मार्च 1996 को बनारस में ही आपका निधन हुआ। सुना है कि उन्होंने बँटवारे के बाद पाकिस्तान जाने से साफ़ मना कर दिया था। यही उनका घर था। गंगा की लहरों की छपाक और बनारसी मिट्टी ने उन्हें”बनारसी”जो बना दिया-
‘ले के अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे
नाम है मेरा नज़ीर और मेरी नगरी बेनजीर।’
आपकी गंगो जमन, जवाहर से लाल तक, गुलामी से आजादी तक, चेतना के स्वर, किताब-ए- गज़ल, राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले ‘नजीर बनारसी की शायरी’ नामक काव्य रचनायें लिखी व प्रकाशित हुई ।
नजीर साहब की एक गजल है जिसे जगजीत सिंह साहब ने गाया भी इतना कमाल है कि कलेजा चीर दे ~
‘कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे, मैं उतना याद आऊंगा मुझे जितना भुलाओगे।’
सचमुच इन्हें पढ़ा तो समझ आया कि नज़ीर बनारसी जी भुलाने की चीज हो भी नहीं सकते। एक ऐसी शख्सियत जो दुनिया के हर बिगड़े मसले का हल मोहब्बत को ही मानती रही हो। बाकमाल नज़ीर साहब ने अपनी गज़लों, नज़्मों के मौज़ू (विषय) भी इर्दगिर्द बिखरी पडी जिन्द़गी के भिन्न रंगों से चुने, यही नहीं उस वक्त के महत्वपूर्ण राजनैतिक, शैक्षिक, सामाजिक और अदबी शख्सियतों पर भी नज़्में उकेरी। ऊपर मुंशी जी पर एक नमूना पेश कर ही चुकी हूँ। नज़ीर जी की लेखनी यकीनी तौर पर उस वक्त के सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक भूचालों का सृजनात्मक दर्ज़ दस्तावेज है।
नज़ीर जी ने हमेशा कहा कि-
‘अगर इन्सां को इन्सां से मोहब्बत हो जाए
यही दुनिया जो जहन्नुम है जन्नत हो जाए।’
नज़ीर साहब की शायरी का यही दर्शन भी है शिक्षा भी। शायरी को वो सदा वतनपरस्ती और लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का जरिया मानते रहे।
नज़ीर साहब कहा करते थे-”मैं शायरी को सिर्फ अदब नहीं वतन की खिदमतदार एक सेवा मानता हूँ, मेरे विचार से भाषा और वतनपरस्ती में घनिष्ट निकट संबंध है।”
अपने महबूब शहर बनारस और गंगा से,घाटों से बेपनाह मोहब्बत उनकी कई गज़लों,नज़्मों में दिख ही जाती है,वो कहा करते थे-
‘सोयेंगे तेरी गोद में एक दिन मरके,
हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भर के,
हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर,
गंगा तेरे पानी से वजू कर करके।’
अपनी राम कहानी अपनी जुबानी में एक जगह नजीर साहब ने लिखा है- ‘यहाँ की पवित्र गंगा जिसकी लहरें लहरा-लहरा कर हमें एक साथ मिलजुल कर चलने का आठों प्रहर संदेश देती रहती है, जो बिना किसी भेदभाव के आठों प्रहर हर मजहब और धर्म के इंसानों को नहलाती-धुलाती रहती है, जिसकी पाकीज़गी और पवित्रता सबको पवित्र और पाकीज़ा बनाती है।’ वे गंगा को माँ सवीकार करके अपने कोमल भावों को कुछ यूँ उड़ेलते हैं-
‘कभी जो चुपचाप मुझको देखा कुछ और भी प्यार से पुकारा
जहाँ भी गमगीन मुझको पाया वहाँ बहा दी हँसी की धारा
अगर कभी आस दिल की टूटी लहर-लहल ने दिया सहारा
भरी ममता से माँ की गोदी,नहीं है गंगा का यह किनारा।’
नफरत की आग बुझाने के लिए प्रेम की गंगा बहाने की बात करने वाले नजीर साहब ने फ़िरकापरस्ती पर जोरदार हमला बोलकर कहा कि~
‘खून किसी इंसान का तुझे पीने नहीं दूंगा
ऐ फ़िरकापरस्ती तुझे जीने नही दूंगा।’
हम सभी जानते हैं कि फ़िरकापरस्ती भी एक मौसम है, जो लौट-लौट कर अपनी तूफ़ानी हवायें लेकर आ ही जाता है। ये मौसम है…उंगली उठाने का, इल्ज़ामों का, हमारे बँटने का, लड़ने का,मरने-मारने का ! कहना अतिश्योक्ति नहीं कि ये इंसानी पतझड़ है! जिसमें जिन्द़गी से इंसानियत सूख जाती है। इस मौसम में हँसते-मुस्कुराते, साथ-साथ दीवाली-ईद की खुशियाँ मनाते चेहरों पर नफरतें सजती। ऐसे में फ़िरकापरस्ती ये ऐलान करते हुए आती है~
‘मैं छेद कर रख देती हूँ मज़लूम का सीना
दरकार हुआ जब भी मुझे ख़ून ज्यादा
मैं आ गई ओढे़ हुए मजहब का लबादा
गोली को सीखा देती हू मैं चलने का करीना।’
नज़ीर साहब जानते थे कि फ़िरकापरस्ती को मात देने के लिए एक ऐसे ज़ेहन की जरूरत है, जिसकी नियत पर इस बेनूर तूफ़ानी मौसम का रंग न चढ़े, उनकी शायरी ऐसी ही कोशिश करती नजर आती है~
‘खून किसी इंसान का पीने नहीं दूंगा
ऐ फ़िरकापरस्ती तुझे मैं जीने नहीं दूंगा
माना की तू बच सकती है तेगो ददम से
पर बच नहीं सकती तू मेरे कलम से।’
लोग जब मंदिर और मस्जिद के लिए लड़ बैठे तो नज़ीर साहब कहते हैं~
‘एक ही पत्थर लगे हैं हर इबादत गाह में
गढ़ लिए एक बुत के सबने अफसाने कई।’
‘मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ नज़ीर
जिसको घेरे में लिये रहते हैं,बुतखाने कई।’
घाट के किनारे मंदिरों के साये में घंटों बैठकर अक्सर अपनी थकान दूर करने वाले नज़ीर साहब चाहते थे कि जिंदगी में हमारी पहली और अंतिम पहचान हमारे मानवीय गुण बने। हम अपने मादरे वतन की खिदमत कर सके। सबको अपनाने का जज़्बा सबको गले लगाने की ललक हमारे अन्दर पैदा हो।
सचमुच आज राजनीतिक अवसरवादिता, धार्मिक कट्टरता,जाति उन्माद भेदभाव के बीच नज़ीर साहब को याद करना बेहद जरूरी हो जाता है। उनकी इस बात को गाँठ बाँधना कि~
‘कदम और आगे बढ़ाना है हमको
इक उजड़े जहाँ को बसाना है हमको
अभी दूर मंजिल जाना है हमको।’
कबीर दास जी के शहर में ही पैदा होने वाले नज़ीर साहब की शायरी में कबीराई तेवर भी नजर आते हैं, ढाई आखर प्रेम को लेकर कबीर उम्र भर चले उसी ढाई आखर प्रेम के नज़ीर जी सच्चे वारिस बने।
पेशे से हकीम रहने वाले नज़ीर साहब ने अपनी शायरी को जरिया बनाकर जिंदगी जीने का आलातरीन नुस्खा दिया। जरूरत है इस बात को समझने की कि हम साथ-साथ अपने सुख-दुःख बाँटें, एक दूसरे के कंधे पर सिर रखकर रोयें और साथ-साथ मुस्कुरायें खुशी मनायें, एक जैसे एहसास लेकर जिदंगी के सीधे रास्ते पर चलें। केवल शायरी पढ़ने भर से नहीं मन की गहराईयों से नज़ीर साहब की बात को अपनाना होगा~
‘वो सौ जगह से हुस्न को अपने अयाँ करे
हम तो ये पूछते है कि सजदा कहाँ करें?
नीयत दुरूस्त चाहिए चौखट कोई भी हो
सजदे का क्या है सजदा तो चाहे जहाँ करें!’
नज़ीर साहब की शायरी ने वो खुशनुमा जिन्द़गी की सीखें दी हैं जिन्हें हम चुटकियों में खत्म कर देते हैं, अना परस्ती या मज़हबी दीवारों को खड़ा करके!-
‘बख्शा उसी को दर्द जो शयाने दर्द था
दिल भी दिया खुदा ने तो पहचान कर दिया।’
हाँ, आज अगर वो होते तो दुखी ही होते!क्यूँ ना आज जन्नत में बशर करते नज़ीर साहब को उनकी शायरी के नक़्शे कदम पर चल कर फिर से ये जता दें कि आप भूलने वाली शै नहीं, आप सही हैं कि- ‘मैं उतना याद आऊँगा, मुझे जितना भुलाओगे।’