स्मृति शेष
मूर्धन्य साहित्यकार हंस पत्रिका के संपादक रहे स्वर्गीय राजेंद्र यादव की जीवनसंगिनी, पुरुषवादी समाज पर चोट करने के लिए जानी जाने बाली प्रसिद्ध साहित्यकार, कथाकार मन्नू भंडारी जी 90 वर्ष की आयु में अपने अधूरे प्रेम की खोज में अनंत यात्रा पर चली गईं। उनका चला जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। खास करके महिलाओं एवं उन लोगों के लिए जो समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े हैं जिनके हक हुकूक पक्ष में इनकी लेखनी आजीवन शब्द उगलती रही।
श्रीमती मन्नू भंडारी नए दौर के कहानीकारों में अग्रणी स्थान रखती हैं। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के भानपुरा गांव में 3 अप्रैल 1930 को जन्मी मन्नू भंडारी ने 90 बसंत तक साहित्य सेवा की। उनका बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था जो कि माता-पिता के द्वारा दिया गया था। वहीं मन्नू उनका बचपन का पुकारू नाम था जो बाद् में साहित्यिक नाम भी बना। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अजमेर में हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपने हिन्दी में एम.ए. किया और कलकता में अध्यापन कार्य करने लगी। कुछ समय बाद आपकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका के पद पर हो गई। मिरांडा हाउस कॉलेज में दशकों तक उन्होंने शिक्षण का कार्य किया। वे साहित्यकार के साथ-साथ एक कुशल शिक्षिका भी थी।
धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास ‘आपका बंटी’ से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे। उनका उपन्यास ‘आपका बंटी’ बेहद चर्चित रहा। यह उपन्यास विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया था। उपन्यास ‘आपका बंटी’ उनके जिंदगी के अनछुए पहलू और खासकर के अधूरे प्रेम को व्यक्त करता हुआ मालूम पड़ता है।
वहीं लेखक और पति राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ पढ़े लिखे आधुनिक लोगों की एक दुखांत प्रेमकथा था जो काफी लोकप्रिय हुआ था। ‘एक इंच मुस्कान’, राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी का साठ के दशक में लिखा एक साझा उपन्यास है। ये वैसा उपन्यास नहीं जिसे आप एक बार उठा लें तो ख़त्म कर के ही दम लें। दो अलग-अलग लेखन शैली के लेखकों को जोड़ता ये उपन्यास खुद कथा लेखन में रुचि रखने वालों के लिए जरूर बेहद महत्त्व का है, पर आम पाठकों के लिए इसके नीरस हिस्सों को पार कर पाना कभी-कभी काफी दुरूह हो जाता है।
आखिर साथ-साथ लिखने की सोच कहाँ से आई? इस उपन्यास की उत्पत्ति बारे में स्वयं मन्नू भंडारी जी कहती हैं…..”…..यह सच है कि लेखन बहुत ही निजी और व्यक्तिगत होता है। लेकिन “एक इंच मुस्कान” उस दौर में लिखा गया था जब प्रयोगात्मक उपन्यास लिखने का सिलासिला चल रहा था। उस समय एक उपन्यास निकला था ”ग्यारह सपनों का देश” इस उपन्यास को दस लेखकों ने मिलकर लिखा था। जिसने आरंभ किया था उसी ने समाप्त भी किया। लेकिन यह एक प्रयोग था जो कि पूरी तरह असफल रहा। तब लक्ष्मीचन्द्र जैन ने मुझसे और राजेन्द्र से यह प्रयोग दोबारा करने को कहा हम राज़ी हो गए। मेरा एक उपन्यास तैयार रखा था। राजेंद्र ने कहा क्यों न हम इस उपन्यास को फिर से लिख लें। हांलाकि मेरी भाषा-शैली और नज़ारिया राजेन्द्र से बिलकुल अलग है, लेकिन हमने किया यह कि मैं मुख्य रूप से महिला पात्र पर केंद्रित रही और राजेन्द्र पुरूष पात्र पर…..”
पर सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर होता है कि इस उपन्यास को पढ़ कर इसके बारे में जो अनुभूतियाँ आपके मन में आती हैं, वही पुस्तक के अंत में दिए गए लेखक और लेखिका के अलग अलग वक्तव्यों में प्रतिध्वनित होती हैं। यानि प्रयोगात्मक तौर पर लिखे इस उपन्यास की कमियों का अंदाजा लेखकगण को भी था। खुद राजेंद्र यादव लिखते हैं- “..मुझे हमेशा मन में एक बोझ सा महसूस होता रहता था कि मेरे चैप्टर सरस नहीं जा रहे हैं जितने मन्नू के। मन्नू के लिखने में प्रवाह और निव्यार्ज आत्मीयता है, और मेरी शैली बहुत सायास और बोझिल है..यह बात कुछ ऐसे कौशल से फ़िजा में भर दी गई कि जहाँ कोई कहता कि……… आप लोगों का उपन्यास ज्ञानोदय में……..कि मैं बीच में ही काटकर बोल पड़ता “जी हाँ और उसमें मन्नू के चैप्टर अच्छे जा रहे हैं।…”
मन्नू जी ने भी माना है कि कथानक के गठन और प्रवाह में जगह जगह शिथिलता है, पर वो ये भी कहती हैं कि ऐसे प्रयोगों में इससे अधिक की आशा रखना ही व्यर्थ है।
पूरा उपन्यास तीन पात्रों के इर्द गिर्द घूमता है। ये कथा है एक साहित्यकार और उसकी मध्यमवर्गीय कामकाजी प्रेमिका की, जिससे नायक आगे चलकर शादी भी कर लेता है। आप सोच रहे होंगे तो फिर परेशानी क्या है, इतनी सीधी सपाट कहानी है। पर तीसरा किरदार ही तो सारी परेशानी का सबब है और उसका चरित्र सबसे जटिल है। वो है आभिजात्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाली साहित्यकार की एक प्रशंसिका जिसके चरित्र को मन्नू जी ने आरंभ में बड़ी खूबसूरती से उकेरा है पर आखिर तक ये पकड़ छूटती महसूस होती है।
एक रोचक बात ये भी रही किर पति-पत्नी के रुप में मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव ने जब ये किताब लिखी तो लोगों ने नायक नायिका के किरदार में राजेंद्र जी और मन्नू जी का अक़्स तलाशना शुरु कर दिया। पर यहाँ ये बताना लाज़िमी होगा कि मन्नू जी ने पुस्तक के अंत में अपने वक्तव्य में इसका खंडन किया है।
इस उपन्यास में बहुत सारी घटनाएं नहीं हैं ना ही ज्यादा पात्र हैं, अगर है तो अपनी-अपनी जिंदगी में घुलते तीन इंसानों की मनोवैज्ञानिक स्थितियों का आकलन। प्रेमी को पति के रूप में पाकर भी छली जाने का अहसास ले के घुट घुट के जीती रंजना हो, या कुछ सार्थक ना लिख पाने और कमाऊ पत्नी के सानिध्य में अपने आप को हीन और कुंठित महसूस करना वाला अमर, या फ़िर अपनी जिंदगी के कड़वे सच से दूर भागती, पर दूसरों को मार्गदर्शन देती अमला ….सभी जीवन के इस चक्रव्यूह में पल पल संघर्ष करते दिखते हैं। इन चरित्रों की एक छोटी सी झलक आप उपन्यास अंश के तौर पर आप यहाँ पढ़ सकते हैं। उपन्यास ने कुछ ऐसे विषयों को छुआ है जिस के पक्ष विपक्ष में सार्थक बहस हो सकती है। मसलन…क्या कोई कलाकार अपनी कला से बिना कोई समझौता किए अपनी पत्नी और परिवार को समय दे सकता है? और अगर नहीं तो फिर क्या ऐसी हालत में उसे दाम्पत्य सूत्र में बँधने का हक़ है?
क्या हमपेशा कलाकार सिर्फ़ इसी वज़ह से सफल गृहस्थ नहीं हो सकते कि दोनों कला सृजन की जैसी रचना प्रक्रिया से परिचित होते हैं? इस तर्क के समर्थन में पुस्तक के इस अंश का स्मरण करें- “…इसलिए उनमें, एक को दूसरे के प्रति ना आस्था होती है, ना श्रृद्धा। कला सृजन के अंतरसंघर्ष के प्रति दोनों ही लापरवाह और बेलिहाज हो जाते हैं। एक को दूसरे की रचना प्रक्रिया में ना तो कुछ रहस्यमय लगता है न श्रमसाध्य.. ”
हमारे भारत वर्ष में अनेक लेखिकाओं ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के आधार पर अपनी छाप छोड़ी है, किसी एक के बारे में कुछ कहना वैसे तो बहुत कठिन है, क्योंकि सभी अपने आप मे श्रेष्ठ है जिनकी आपस मे तुलना करना उनकी उपलब्धियों पर प्रश्न उठाने जैसा है। नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच आम आदमी की पीड़ा और दर्द की गहराई को उद्घाटित करने वाले उनके उपन्यास `महाभोज’ पर आधारित नाटक अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था।
हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए लोग उन्हें हमेशा याद करते रहेंगे। मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, एक प्लेट सैलाब, अकेली, यही सच है, आंखों देखा झूठ और त्रिशंकु जैसे रचनाओं के अध्ययन उपरांत उनके व्यक्तित्व की झलक स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है।
मन्नू भंडारी जी का वैवाहिक जीवन बहुत सुखद नहीं रहा था। उन्हें राजेंद्र यादव जी से उनके अंतिम समय में भी अलग रहना पड़ा था जिसकी कसक उनके दिल में हमेशा रही। उनका उपन्यास ‘महाभोज’ राजनीतिक सामाजिक जीवन में आई गिरावट को बताता है जहां विशेश्वर नाम के पात्र की मृत्यु के बाद भी उसे राजनीति के केंद्र में रखकर सभी राजनेता अपना उल्लू सीधा करने से बाज नहीं आते हैं। उनकी कहानी ‘यही सच है’ पर बासु चटजी ने 1974 में रजनीगंधा नामक फिल्म का निर्माण किया था। जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।
मन्नू भंडारी की रचनाओं में गंभीर सामाजिक मुद्दों की झलक होती है। महिला अधिकारों को लड़ाई भी बहुत है जीवटता के साथ आजीवन लड़ती रही। उनका कहना था- ‘प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने भरमाने का प्रयास मात्र है’। वे आगे कहती हैं एक पुरुष की सुलझी हुई दृष्टि स्त्री को कई जनों से उबर लेती है।
मन्नू भंडारी का कथा साहित्य सामाजिक समस्याओं से ओतप्रोत है। समाज के वर्णन में स्त्री-पुरुष का आगमन अपरिहार्य है। “जहाँ नारी शोषण की बात आती है, वहाँ वह नारीवादी हो जाती हैं।” वह परम्परा को तोड़कर नया आकार निर्मित नहीं करतीं, बल्कि परम्परा के चौखटे में ही आधुनिकता का आह्वान करती हैं। मन्नू भंडारी की नारी “आन्तरिक संस्कारों, भावनाओं और संवेदनाओं, परिस्थितियों और दबावों को कभी झेलती है, कभी तोड़ती है और कभी स्वयं टूटती है”। वस्तुत: नारीवाद, न तो पुरुष-विरोधी है और न पुरुष से आगे जाने का प्रयास है अपितु वह तो समानता का संघर्ष है। लेखिका का स्वयं का जीवन कथा साहित्य में भी अवतरित हुआ है। उन्होंने जो भी साहित्य लिखा है, वह तन्मयता, गहन संलग्नता और ईमानदारी से लिखा है।
साहित्य सेवा के लिए उन्हें कई पुरस्कारों सी भी नवाजा गया। हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, व्यास सम्मान और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा उन्हें पुरस्कृत किया गया।
उनके निधन से साहित्य जगत में एक बड़ा शून्य उभर गया है। जिसकी प्रतिपूर्ति में एक लम्बा वक्त लगेगा। उनकी रचनाओं में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों के दर्द, राजनीति के स्याह पक्ष का विश्लेषण मिलता है। ऐसे लेखन करने वाले लोगों को अब ढूंढना मुश्किल हो गया है।
भावपूर्ण श्रद्धांजलि!