सावन लगते से ही मानो त्यौहारों,रौनकों,उत्सवों का शामियाना तन जाता है।जन मानुष का मन सजावटों,भाँति-भाँति की तैयारियों और सज-धज के लिये बल्लियों उछलने लगता है।रक्षाबंधन के बाद जन्माष्टमी, गणेशोत्सव,नवरात्र फिर दशहरा,करवाचौथ,दीपावली से लेकर वर्ष की विदाई और नव वर्ष आगमन तक हर्षोल्लास से लबालब धूमधाम।
इन उत्सवों की चहलपहल में हम सब इतने ज्यादा मगन हो जाते हैं कि हमसे कुछ आवश्यक पहलुओं की लगातार अव्हेलना होती ही जाती है और हमें इसका ध्यान भी नहीं रहता या कि हम ध्यान रखना ही नहीं चाहते हैं! वैसे तो आस्था के मायने सबके लिये व्यक्तिगत होते हैं,परंतु एक सामाजिक दिखावे की घुडदौड के चलते हमने इसे व्यवसायिक खेला बनाकर रख दिया है। हम क्षण भर के लिये भी नहीं सोच पा रहे हैं कि हम अपने ही इष्टों-देवों का निरादर करते चले जा रहे हैं। मैं यह किसी व्यक्ति विशेष की आस्था को ठेस पहुँचाने या भावनाओं को आहत करने हेतु कतई नहीं कह रही,बल्कि इस लेख के ज़रिए मेरा मकसद उन अनदेखियों या जानते-बूझते या फिर आपसी दिखावे की होड़ में करी गयी गलतियों पर एक नज़र डालने मात्र का अवश्य है।
गणेशचतुर्थी से अनंत-चौदस(गणेश विसर्जन)तक गली-मोहल्लों, चौराहों,मंदिरों,पंडालों में श्रद्धा के बेशुमार रंग बिखरे मिलते हैं।ठीक वैसी ही रौनकें,मेले नवरात्र के उपलक्ष्य में भी अपनी कांति बिखेर रही होती हैं। सड़क के किनारे फुटपाथ पर अक्सर बंजारे अपनी दुकानें सजाये बैठे होते हैं। गणपति और माता के आगमन से काफ़ी समय पहले से तैयारियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। बाजारों और सड़कों के किनारे मूर्तियाँ अपने रंग-रूप और आकार लेती हुई दिखाई देती हैं। तीन चार अंगुल से लेकर पंडालों में सजने वाली विशालकाय मूर्तियाँ भी अपने प्राइस टैग के संग तैयार कर दी जाती हैं।
यही नहीं आजकल तो बुराई पर अच्छाई की जीत का लोहा मनवाते दशहरे हेतु भी रावण हर शेप और साइज में उपलब्ध होते हैं,मानो कि अब रावण भी सबके पर्सनल ही जलेंगे! कभी थोड़ा थमकर सोचा है आपने कि-इन बाजारों की चकाचौंध में सारी आस्था सिमटकर कुछ मियादी दिनों की व्यवसायिक तालिका में एकत्रित हो जाती है। व्यवहारिक तौर पर हम घोर आस्तिक लोग भी भूल जाते हैं कि इन मूर्तियों को जिस जोश और उल्लास से हम घर या मोहल्लों में लाकर स्थापित करते हैं,उसी जुनून से हम ये कैसे नहीं सोच पाते कि विसर्जन के नाम पर जो इनकी दशा या कहूँ दुर्दशा हम करते हैं वो किस कदर उचित है?
हमारा आस्था से ओतप्रोत मन कैसे नहीं कचोटता अपनी ही करनी को? विसर्जन के नाम पर की जा रही इनकी दुर्दशा, सोशल मीडिया के दौर में भला कहाँ छुपी रह गई है?सबने देखा है समाचारों में,अखबार में छपी तस्वीरों या फिर असंख्य वाइरल वीडियोज् में। विसर्जन का अर्थ कब से आपने अपनी ही सहूलियतों के अनुसार बदलकर- पीपल या बरगद के नीचे,सड़क या हाइवे के डिवाइडरों पर लगी ग्रीन-बेल्ट में,खाली उजाड़ पड़े प्लॉट्स पर, मंदिरों के पिछवाड़े लगे पूजन सामग्री के ढ़ेरों पर या नदियों व जल इकाईयों के ऊपर बने जालदार पुल पर तय कर लिया है?
क्या तनिक भी कष्ट नहीं होता आपको देखकर ..जब समाचारों या किन्हीं घूमते वीडियो में किसी जे सी बी मशीन द्वारा हमारी विसर्जित आस्था का मलवा समेटा जा रहा होता है? अब ये भूले से भी ना कहियेगा कि आखिर करें भी तो क्या करें? कोई विकल्प भी तो नहीं छोड़ा हमारे पास पर्यावरणविदों ने!अपनी करनी कहूँ या गलतियों का ठीकरा दूसरों पर तो बिलकुल मत फोडिये। आप जब विसर्जन के भांति-भांति के विकल्प खोज सकते हैं,तो हमारे पूज्य इष्टों की मूर्तियों के संग ये सब ना हो,इसका विकल्प भी तो खोज ही सकते हैं। सच कहूँ तो हम भाग्यशाली हैं,जो संस्कारों से पोषित देश में रहते हैं,जहाँ नदियाँ,नहरें,धरती,प्रकृति सब माता तुल्य पूज्यनीय मानी गई हैं। फिर भला हम इन सबकी अव्हेलना कैसे कर सकते हैं।
आस्था के प्राप्तांक की कोई भी तालिका ईश्वर ने कभी नहीं बनाई है।उन्होंने कभी नहीं कहा कि फलां दिखावे या आडम्बर करो तभी मैं तुम्हारी अंक तालिका में अंक भरूँगा। ये सम्मान,ये आस्था स्वयं आपके अपने मन,विचारों व मान्यताओं की बात है ,वैसे ही क्या हम अपने विचारों को मूर्ति विसर्जन के बाबत भी विकल्प तैयार करने को नहीं मना सकते? जब हमारे किसी सात्विक कर्म से इस माँ रूपी धरा,प्रकृति और नदियों को नुकसान पहुँचता है तो हम क्यूँ नहीं अपनी सूजबूझ से एक नयी शुरुआत करते,जिसमें सब भाव अपनी मर्यादा को सहेजे सुरक्षित बचे रहें?
सोचिये ना! ढ़ेरों रास्ते बाहें पसारे मिलेंगे आपको।बाज़ार का तो काम ही है… ना-ना प्रलोभनों,प्रारूपों में उलझाकर विक्रय करना,लेकिन हम भी तो अपनी सोच पर रचनात्मकता के पंख लगाकर एक नये मार्ग को तो खोज ही सकते हैं। बाजार खरीदा नहीं जायेगा तो ऑटोमेटिकली मेन्यूफेक्चरिंग भी रोकी जायेगी। वो रुकेगी तो उसके प्रारूप का विस्तार जो कि कृत्रिम सिन्थेटिक मसाला,पी ओ पी आदि के रूप में मूर्तियाँ बनाकर तैयार किया जाता है,वो भी बंद हो सकेगा और पर्यावरण पर गहराते संकट के बादल भी शनैः-शनैः छँटने लगेंगे।
मैं मिट्टी की(बिना किसी हानिकारक पदार्थ मिली मिट्टी)मूर्तियाँ,खिलौने,दशानन के पुतले आदि खरीदने पर टोक नहीं लगा रही हूँ,बल्कि पीओपी,हानिकारक रसायनिक मसालेदार वस्तुओं,मूर्तियों को कड़ाई से बहिष्कार कर देने की बात कर रही हूँ। नवरात्र शुरू होते ही जिन सुंदर चुनरियों को खरीदने में घंटों लगा देते हैं हम,नवरात्र के बाद वही चुनरियाँ सड़क के किनरे पीपल के नीचे पैरों में,जानवरों द्वारा रुल रही होती हैं।माँ के अंगवस्त्र का निरादर भी तो देवी का निरादर ही हुआ ना? तो फिर क्यूँ ना इनको एकत्र करके रख लिया जाये और किसी वेंडर को एप्रोच किया जाये,जो कि पुराने कपडे तौल से ले लेता है,उन्हें किसी रिसाइकिल यूनिट भेजने के लिये।
मुझे याद है जब हम छोटे हुआ करते थे,तब दादी,माँ,चाची,मामी सब घर पर ही चौथ पूजन के लिये मिट्टी की नन्ही सी,सुन्दर सी ‘गौरा माँ’बनाकर पूजन किया करती थीं। कितने ही लोगों ने पर्यावरण की चिंता में इन त्यौहारों हेतु सुंदर सार्थक वैकल्पिक हल खोज भी लिये हैं,किन्तु अभी यह संख्या बहुत ही कम है।हम सबको एकसार होकर इस दिशा में कदम बढ़ाना होगा। सोचकर देखिये कि जो बाज़ार हमारी खरीदी की वैशाखी पर टिका खड़ा होता है,उस बाज़ार को भला हम खुद पर उसकी मनमानी कैसे थोपने दे सकते हैं।सिर पर मत चढ़ाइए इसे ये बिगाड़ देगा सब कुछ।
एक कदम चलिये ना मेरे संग, क्यूँ ना आस्था को व्यवसायिक रशीद में लिपटने से बचाया जाये, क्यूँ ना एक नवीन कदम हल्दी की गाँठें,लौंग,सुपारी,तंदुल,नारियल,जूट, फल,फूल,मिट्टी आदि से बनी मूर्तियों को व्यवहार में उतारा जाये,जिन्हें घर के बगीचे में,गमलों आदि में ही बिना किसी हानि के विसर्जित भी कर सकते हैं।। जिससे उत्सव के पूर्ण होने के पश्चात कहीं भी कोई भी जे सी बी हमारी आस्था का,भावनाओं का मलवा समेटती हुई ना दिखे। सड़कों के किनारे,चौराहों ,बरगद-पीपल के नीचे और डिवाइडरों पर खंडित मूर्तियाँ,चुनरियाँ अपनी दुर्दशा पर हमें दोषी करार ना ठहरा सकें।
बढ़ाईये न! एक कदम सार्थक पहल की ओर,करके देखिये,सच में बहुत सुकून देता है यह।