‘दवाई भी और कड़ाई भी’, कहने को तो देश के बच्चे-बच्चे को यह आदर्श वाक्य रट चुका है. लेकिन जब कोविड उपचार में जीवनरक्षक रेमडेसिविर (Remdesivir) इंजेक्शन की बात आए तो यह एकदम खोखला प्रतीत होता है. ‘न दवाई है, न कड़ाई है’. जो सामने दिख रहा है, वो केवल ‘दवाई के लिए हो रही लड़ाई’ ही है. हालात ये हैं कि इस इंजेक्शन की एक डोज़ का मिलना भी मुश्क़िल दिख रहा है, जबकि गंभीर स्थिति वाले मरीज के लिए छह इंजेक्शन का डोज़ अनिवार्य है. ऐसे में इसे पाना कितना जरुरी है ये केवल उस मरीज़ के परिजन ही समझ सकते हैं. फिलहाल तो दुआ कीजिए कि चुनाव निबटें तो शायद सरकार की नज़र इन ‘छोटे-मोटे’ मुद्दों पर पड़ जाए!विडंबना यह भी है कि एक तरफ मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने पर जोर दिया जा रहा है. कहीं तो मास्क न पहनने पर मार-मारकर अधमरा छोड़ देने तक की ख़बरें भी चर्चा में हैं तो वहीं इस बात की भी समुचित व्यवस्था है कि इस इंजेक्शन को पाने के लिए लोग कैसे टूट पड़ें और मारामारी पर उतारू हो जाएँ. बीते कुछ दिनों के समाचार इसके साक्षी हैं. हाँ, हमारे देश में नेताओं के लिए कोई नियम क़ायदे लागू नहीं होते हैं, वो तो जहाँ जाएंगे छुट्टा मुँह ही! और आपका ये फ़र्ज़ बनता है कि ये साब लोग जहाँ भी मिलें, आप रुलबुक फाड़कर उन्हें सलाम करना न भूलें. देश में वायरस फैलाने के लिए इनके अतुलनीय योगदान के चर्चे अब सदियों तलक होते रहेंगे.
खैर! मुद्दा यह है कि कहने को तो देश की कई प्रमुख कंपनियाँ रेमडेसिविर इंजेक्शन बना रही हैं, लेकिन ये जा कहाँ रहे हैं इसकी सूचना से जनता बेख़बर है. धरातल पर इसे पाने के लिए आम आदमी के हिस्से एक बार फिर वही कड़ा संघर्ष ही आया है. क़ीमत की तो चर्चा ही अलग है! किसी के रेट हजारों को पार कर रहे, तो कोई कंपनी हज़ार से कम में भी इसे उपलब्ध कराने का दावा पेश कर रही है. उस पर तुर्रा ये कि यह वही इंजेक्शन है जो कोविड के पहले दौर में लाखों को पार कर गया था. कुल मिलाकर ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ वाला मामला है. सबके अपने-अपने रेट हैं और जो ब्लैक मार्केटिंग कर रहे, उन असुरों के टशन का तो भगवान ही मालिक है.
आपदा में अवसर!
‘आपदा में अवसर’ का इससे सुनहरा रूप और क्या होगा कि इधर आपदा आई और उधर धंधे पनपने लगे. ‘तुम मरो या जियो’ उनकी बला से! जीवनरक्षक इंजेक्शन की मांग और आपूर्ति का अनुपात पूरी तरह से चरमरा चुका है. ऐसे में दवाई की कालाबाज़ारी करने वालों के अच्छे दिन फिर लौट आये हैं. क्योंकि इसे खरीदने को इच्छुक भीड़ का आलम वैसा ही है जैसा कि कभी थिएटर की टिकट खिड़की पर हुआ करता था. पर वो फ़िल्म थी, आज छूटी तो कल देख ली जाएगी! ज्यादा जल्दी हुई तो ब्लैक में टिकट ख़रीद ली. लेकिन साहिब, ये ज़िन्दग़ी है यहाँ खिड़की पर हाथ धरे हुए ही कब साँसों की डोर हाथ से छूट जाए, कौन जानता है! साँसों की कालाबाज़ारी करने से बड़ा पाप भी कोई और नहीं होता! किसी की मजबूरी का लाभ उठाने से बड़ा ग़ुनाह और कुछ नहीं! लेकिन पापियों को अपना पाप, दिखाई ही कब दिया है! दुर्भाग्य ये है कि पूरी प्रक्रिया में जनता ही पिसती है, वही बलि देती आई है, सरकारें ठुड्डी पर हाथ धरे तमाशा देखती रही हैं कि कब पानी सिर के ऊपर से गुज़रे और वे अपना अवतारी रूप ग्रहण कर जनता को धन्य करें. इस बार भी वही हो रहा.
लेकिन आपको इससे क्या लेना-देना!
जिसका कोई अपना जीवन-मृत्यु से जूझ रहा, वह उसे बचाने की ख़ातिर अपनी जान हथेली पर रख मेडिसिन काउंटर पर गिड़गिड़ा रहा है कि किसी भी क़ीमत पर इस इंजेक्शन को हासिल कर ले. लेकिन हालात ये हैं कि हर जगह निराशा, निराशा और फिर उसका अंत करते हुए एक सफ़ेद चादर से सामना होता है. हिम्मत है तो लाशों के ढेर पर बैठ, अच्छे दिनों की इस उजली तस्वीर को क्लिक कर लीजिए जिससे हम सबको भी एक-न-एक दिन रूबरू होना ही है.
अरे! सराहिए अपने भाग्य को कि आप डॉक्टरी प्रिस्क्रिप्शन को लेकर शहर भर में नाक नहीं रगड़ रहे. ईश्वर को भी धन्यवाद दीजिए कि उन लाखों मृत शरीरों में आपका कोई अपना नहीं था. लेकिन क़ाश आप उस दर्द को महसूस करते तो कम से कम दवाई पाने के लिए सरकार की नाक में दम तो कर देते! हड़तालें करते, ढोल बजाते, अनशन करते! या कि हम केवल दिए जलाने और थाली पीट गौरवान्वित होने को ही बने हैं? कभी शर्मिंदा होंगे इन हालातों पर?
क्या हमने कभी ये 5 सवाल पूछे हैं?
*आख़िर ऐसा क्यों है कि एक ऐसी बीमारी जिसने पिछले डेढ़ वर्षों से पूरे विश्व को जकड़ रखा है, उसके लिए ‘क्राइसिस मैनेजमेंट’ के नाम पर ज़ीरो बटा सन्नाटा है?
*सरकारी व्यवस्था ऐसी क्यों होती है कि पहले भयावहता दिखाई जाए और फिर ‘ये देखो! हमने कर दिखाया’ कहकर अहसान की तरह, सम्बंधित दवाई या इंजेक्शन उपलब्ध कराया जाए.
* किसी समस्या के विकराल रूप धारण करने तक की प्रतीक्षा क्यों होती है? आम आदमी क्यों दर-दर भीख माँगता फिरे? क्या इतनी महत्वपूर्ण और जीवनरक्षक दवाई की उपलब्धता सहज नहीं होना चाहिए या हम हमेशा प्यास लगने पर ही कुंआ खोदते रहेंगे?
* क्या हर चीज़ के लिए ‘जुगाड़ तंत्र’ ही एकमात्र उपाय है? एक ही दवाई को पाने के लिए, अमीर-ग़रीब के लिए एक सा ही सीधा रास्ता क्यों नहीं होता?
* आम इंसान की लाचारी का फायदा क्यों उठाया जाता है? क्या वो जीवन भर कालाबाज़ारी के दुष्चक्र में पिसने को ही बना है?
SMS वाले गणितीय सूत्र को कब-कब भूल जाना है?
एक तरफ़ सामाजिक दूरी की बात होती है और वहीं इंजेक्शन और दवाई की ख़ातिर लगी लम्बी लाइनों और मारामारी पर कोई चर्चा नहीं? क्या इस महामारी के दौर में ये सारी दवाइयां हॉस्पिटल के माध्यम से नहीं मिलनी चाहिए? या आम पब्लिक जो अभी इस वायरस से संक्रमित नहीं हुई है, उसे भी इसकी आग में झोंकना जरुरी है? क्या इससे संक्रमण का खतरा और बढ़ नहीं जाता है कि स्वस्थ आदमी किसी की दवा लेने जाए और भीड़ में कुचलने के बाद संक्रमित होकर लौटे?
ध्यान रहे, किसी के लिए आपकी मौत एक ख़बर जितनी भी महत्वपूर्ण नहीं है. वैसे ख़बर तो ये भी है कि कोरोना मरीज़ों की मृत्यु दर के आंकड़ों से भी खेला जा रहा है तो हो सकता है आप उन आंकड़ों से भी उड़ा दिए जाएँ. बदनसीब हुए तो क्या पता कि कल को दवाई लेने जाएँ और यही घिसे-पिटे जवाब सुनने पड़ें –
* स्टॉक खत्म हो गया है.
* ऑर्डर किया है, अभी आया नहीं!
* अब इंजेक्शन पेड़ पर तो उगते नहीं है न!
* जी, शिकायत सही मिली, तो काला बाज़ारी करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्यवाही की जाएगी.
ख़ैर! जितना हो सके, अपना और अपनों का ध्यान रखें. दवाई की नौबत ही न आने दें. अस्पताल मरीज़ों से पटे पड़े हैं लेकिन प्रशासन ने रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाकर कोरोना वायरस को धमका रखा है. अभी तो जहाँ चुनाव हैं, वहाँ के रुझान आने शेष हैं. चुनावी बिगुल में दवाई, कड़ाई, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग की उड़ती धज्जियों पर कोई ज्ञान नहीं बाँटा जा रहा. शायद कोरोना वायरस के लिए बैरिकेडिंग कर फ़िलहाल उसे सीमाओं पर रोक लिया गया है.