रत्नावली के नाम से हर व्यक्ति परिचित है। ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास को रामचरितमानस लिखने की प्रेरणा रत्नावली से ही मिली थी। इनके 201 दोहे प्राप्त होते हैं फिर भी हिंदी साहित्य के इतिहास में इनका नाम उल्लेख से नहीं है| इनका जन्म सन् 1520 ई0 जनपद कासगंज के सोरों शूकरक्षेत्र अन्तर्वेदी भागीरथी गंगा के पश्चिमी तटस्थ बदरिया (बदरिका) नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दीनबंधु पाठक और माता का नाम दयावती था। रत्नावली का पाणिग्रहण 1532 ई0 में सोरों शूकरक्षेत्र निवासी पं॰ आत्माराम शुक्ल के पुत्र पं॰ तुलसीदास जी के साथ हुआ था। 1547 ई0 में जब रत्नावली मात्र 27 वर्ष की ही थी, तब तुलसीदास जी इनसे विरक्त होकर सोरों शूकरक्षेत्र त्यागकर चले गए थे। रत्नावली 1594 ई0 में अपनी अलौकिक कान्ति चमकाती हुई मृत्यु को प्राप्त हुई।
श्री मुरलीधर चतुर्वेदी ने रत्नावली चरित नाम से पुस्तक लिखी थी और अब तक इनकी जानकारी के लिए यही प्रामाणिक माना जाता है। इसमें उन्होंने रत्नावली के बारे में उल्लेख किया है और उन्हें ज्ञानी और सच्चरित्र बताया है। इनका यह दोहा जिसको सुनकर के राम बोला तुलसीदास हो गए थे अत्यधिक प्रसिद्ध है —
अस्थि चर्म मय देह यह ता सों ऐसी प्रीति
नेकू जो होती राम से तो काहे भव भीत
यह कथा तो सबको याद है और लोग इसे तुलसीदास के संदर्भ में उद्धृत भी करते हैं पर किसी ने यह नहीं कहा कि तुलसीदास से पहले रत्नावली कवयित्री हुई, यह दोहा तो यही प्रमाणित करता है। तुलसीदास के महिमामंडन में रत्नावली कहीं खो गई। हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका नाम तक दर्ज करना जरूरी नहीं समझा गया। इस घटना का जिक्र तो हम हर जगह पर पाते हैं कि रत्नावली के धिक्कार पर राम बोला तुलसीदास हो गए थे और परंतु बाद में रत्नावली के लिखे पश्चाताप के दोहों पर इतिहास मौन रहा। रत्नावली कहती है कि
हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरननि दासी जान निज, बेगि मोरि सुधि लेउ।
स्त्री की की पीड़ा उपेक्षा अनद्यतन सत्य रहा है। रत्नावली के हृदय की पीड़ा को न सिर्फ तुलसीदास अपितु समाज ने भी नहीं समझी। प्रिय वियोग में निकली यह पीड़ा आज तक किसी ने न देखी न उल्लिखित की है —
जदपि गए घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं।
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं।
आज की स्त्री विमर्श के अनुरूप हम रत्नावली की रचनाओं को नहीं व्याख्यायित कर सकते हैं। आज जहां स्त्री विमर्श के नाम पर देह गाथा कही जा रही है वैसी रत्नावली के यहां अनुपस्थित है। वह कहती हैं कि
सती बनत जीवन लगै, असती बनत न देर।
गिरत देर लागै कहा, चढ़िबो कठिन सुमेर।
स्त्री के भीतर के गुणों को रत्नावली जी वास्तविक गुण मानती हैं वह कहती हैं कि
भूषत रतन अनेक जग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषन होइ।
तुलसीदास की विरक्ति के बाद रत्नावली रचना करने में लीन हो गई थी परंतु इनकी वियोगात्मक श्रेष्ठ रचनाएं इतिहास की किसी ग्रंथ में नहीं मिलती है। इनकी रचनाओं में परिपक्वता है और भाषा बड़ी सुगठित है। अलंकारों के प्रयोग में भी यह बड़ी निपुण थी। श्लेष के माध्यम से पति विरह का एक उदाहरण देखें —
रतन प्रेम डंडी तुला पला जुड़े इकसार
एक बार पीड़ा सहै एक गेह संभार
भाषा का माधुर्य और चमत्कार रत्नावली की रचनाओं में हमें पर्याप्त मात्रा में मिलता है तत्कालीन परिस्थिति में जब स्त्री शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी तब रत्नावली जी की भाषा काव्य कसौटियों के आधार पर ही नहीं सहज आधार पर भी देखते बनती है —
राम जासु हिरदे बसत, सो पिय मम उर धाम।
एक बसत दोउ बसैं, रतन भाग अभिराम।
रत्नावली ने नीति के दोहे भी लिखे हैं। इनके नीति के दोहे भी समक्ष प्रबलता से रखे जा सकते हैं। इनकी व्यवहार कुशलता प्रसिद्ध रही है।
रतन दैव बस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।
सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।
रत्नावली की विचारधारा प्रगतिशील रही है। मध्यकालीन संकीर्णता में भी स्त्री और पुरुष स्वच्छंद चित्रण इनकी रचनाओं में हमें देखने को मिलता है। अपनी वाग्विदग्ध्ता के लिए यह विशेष प्रसिद्ध रही है। इनकी रचना का एक उदाहरण द्रष्टव्य है —-
सदन भेद तन धन रतन सुरति सुभंषज अन्न
दान धरम उपकार तिमि राषि बधु परछन्न
अनजाने जन को रतन कबहुँ न करि विश्वास
वस्तु न ताकि खाई कछु दई न गेह निवास
मध्य काल की स्त्री रचनाकारों में रत्नावली का स्थान ऊँचा है पर जहाँ स्त्री साहित्य का इतिहास ही विलुप्त है वहाँ हम रत्नावली को कहाँ देख पाएंगे। रत्नावली को देखने के लिए दृष्टि विस्तार आवश्यक है। अन्य पक्ष पर विस्तार फिर कभी करूंगी। रत्नावली को प्रणाम।