रचना कोई भी हो उसमें युगबोध और प्रासंगिकता को ढूँढना मुख्य आलोचकीय बिंदु बन जाता है। परंतु हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि रचनाकार की अनुभूति समकालीन प्रासंगिकता पर सदैव फिट नहीं बैठती है। कुछ रचनाएँ परंपरा और इतिहास की दृष्टि से देखने पर संस्कारित जड़ों का कार्य करती हैं, जिसे अस्वीकार करने से बिना जड़ की शाखा दिखती है, जो पूर्ण इकाई नहीं मानी जा सकती है। हिंदी के स्त्री साहित्य के संदर्भ में यही तथ्य सत्य है। हिंदी साहित्य के इतिहास में (छायावादी काल खण्ड के परिप्रेक्ष्य में) हम सिर्फ महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान तक ही पहुँच पाते हैं। यही कारण है कि तमाम शोध अतीत के समुंद्र में निरंतर गोते लगा रहे हैं ताकि उसमें से मोती निकाले जा सकें। आज हमारे समक्ष स्त्री रचनाकारों की परंपरा और उन्हें इतिहास में स्थापित करने का प्रयास निरंतर जारी है। अगर हम अपनी पुरखिनों को स्मरण नहीं करते हैं तो वर्तमान स्त्री विमर्श के नारे खोखले साबित होंगे।
पुरखिनों को स्मरण की कड़ी में एक सशक्त व सरल कवयित्री रामकुमारी चौहान हैं, जिसे हिंदी का पुरुषात्मक सामंतवाद हिंदी साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं देता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल से प्रारंभ होकर हजारी प्रसाद द्विवेदी की गलियों में गुज़रता हुआ हिंदी साहित्य का इतिहास नगेंद्र, बच्चन सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि (नाम कई और भी हैं) तक सफर तय करते हुए रामकुमारी चौहान को स्याह अंधेरे में छुपाता चला जाता है। और तो और स्त्री साहित्य के इतिहास का दावा करने वाली सुमन राजे और नीरजा माधव ने चंद पंक्तियों में रामकुमारी जी का परिचय देकर अपने इतिहास की इतिश्री कर ली है। सुमन राजे ने अपने इतिहास ग्रंथ में सिर्फ एक उदाहरण दिया है और इन पर सिर्फ चार पंक्तियाँ लिखी हैं। आश्चर्य की बात है कि वे चार पंक्तियाँ भी नि:श्वास की भूमिका से ली गई हैं। नीरजा माधव ने सुमन राजे का ही अनुसरण किया है और उदाहरण भी वही एक लिया है, जो सुमन राजे ने अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है। नीरजा जी रामकुमारी के द्वारा लिखित निबंध, नाटक, संस्मरण और बाल साहित्य का उल्लेख करती हैं परंतु वे रचनाओं का नाम तक नहीं बता पाती हैं। इसके लिए वह कोई प्रमाण नहीं देती हैं, जिस कारण से हम बहुत पुष्ट रूप में यह नहीं कर सकते हैं कि इन्होंने इस तरह का साहित्य लिखा है। इन दोनों इतिहास लेखिकाओं ने इनकी कविताओं का मूल स्वर वेदना माना है, जिसका कारण नि:श्वास की भूमिका की स्वीकारोक्ति है। नि:श्वास की भूमिका में रामकुमारी चौहान स्वयं कहती हैं कि “प्रस्तुत नि:श्वास में उसी वाटिका का दुखद दृश्य है, जिसमें शायद वसंत फिर कभी न लौटे। शायद जिसमें कोकिला फिर कभी न कूके।” (नि:श्वास काव्य संग्रह, वक्तव्य से साभार) परंतु जिसने भी यह संग्रह पढ़ा है, वह यह कह सकता है कि वेदना के साथ अन्य भावाभिव्यक्तियाँ इसमें निहित हैं।
‘आधुनिक युग की हिंदी लेखिकाएँ’ ( उमेश माथुर) में रामकुमारी चौहान का जन्म सन् 1901 माना गया है। अनूप शुक्ल जी ने इनकी जन्मतिथि 1899 ई. सीसामऊ (कानपुर) में माना है, जो मुझे ज्यादा प्रामाणिक लगता है क्योंकि अनूप जी के दादा आचार्य लक्ष्मीधर वाजपेयी जी ने ही तरूण भारत ग्रंथावली द्वारा नि:श्वास संग्रह को प्रकाशित किया था। रामकुमारी जी के पिता भूप सिंह चंदेल जी भूप उपनाम से कविताएँ लिखते थे। इनकी माता रूप कुमारी चंदेल जी के काव्य संग्रह ‘काव्य मंजरी’ में श्रंगार और भक्ति की रचनाओं का सुंदर चित्रण है। माता-पिता से इनमें काव्य प्रतिभा प्रस्फुटित हुई। इनके भाई रामपाल सिंह चंदेल और बहन राजरानी चौहान भी रचनाकार रहे हैं। मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में रामकुमारी जी ने काव्य सृजन प्रारम्भ किया था। इनका विवाह सन् 1914 में मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में कुंवर रतन सिंह से हुआ था। यह तब की बात है, जब राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों का एक लम्बा दौर बीत चुका था। परंतु समाज में स्त्री का यथार्थ रामकुमारी चौहान के बाल विवाह से पता चलता है। इन्होंने अखिल भारतीय महिला हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की और लम्बे समय तक इसके अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। प्रथम महिला कवि सम्मेलन में इन्होंने शिरकत की थी और काव्य मंचों पर यह खूब सराही जाती थीं। यह ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिंदी भाषा में समान रूप से अधिकार रखती थीं। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन (नागपुर) के 25 वें अधिवेशन (सन् 1935) में अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद से इन्हें प्रसिद्ध सेक्सरिया पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इनकी साहित्य साधना से प्रभावित होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानंद जी ने इन्हे पाँच सौ रूपये की आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी। रामकुमारी जी महिला राष्ट्रीय संगठन के द्वारा भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भी बराबर सक्रीय रहीं। इनकी मृत्यु दस अक्टूबर 1966 ई. को हुई थी।
समय और कालखंड के अनुसार हम रामकुमारी जी को देखें तो इनके जन्म से लेकर इनके काव्य संग्रह के प्रकाशन तक का समय भारत की पराधीनता का समय था। 1913 की शिक्षा संबंधी नीतियाँ, 1917 के सेंडलर आयोग के सुझाव तथा पुनर्जागरण आदि के कारण शिक्षा और व्यवस्था बदली थी। पुनर्जागरण के कारण स्त्री केंद्र में आई और सुधार दो दिशाओं में जा रहा था- पहली तो वह दिशा थी, जो पूर्णतया मर्यादित, सहज व शांत थी और दूसरी धारा में विद्रोह का स्वर दिखाई देता है। रामकुमारी जी की रचनाओं में मर्यादित सहजता है और यथार्थ अभिव्यक्ति भी उसमें सम्मिलित है। इनकी कविताओं का स्वर विद्रोहात्मक नहीं है। रामकुमारी जी का काव्य संग्रह ‘नि:श्वास’ 1935 ई. में प्रकाशित हुआ था। कुछ संकलनों में भी उनकी रचनाएँ संकलित हैं। उनकी रचनाएँ इस बात की गवाही देती हैं कि वह लेखन के प्रति जागरूक थीं। 1935 में ‘नि:श्वास’ का प्रकाशन होता है और 1962 ई. में सुमन जी ने अपने एक संकलन में अन्य कवयित्रियों के साथ राजकुमारी जी की रचनाओं को संकलित किया है। जाहिर-सी बात है कि इस बीच भी रचनाएँ लिखी गई है। हो सकता है कुछ पत्रिकाओं में उनकी अन्य रचनाएँ भी बिखरी पड़ी हो, जो वर्तमान समय में मुझे उपलब्ध न हो पाई हो।
रामकुमारी चौहान का मूल्यांकन करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक पितृसत्तात्मक और सामाजिक बंधन में बंधी स्त्री उस काल, उस परिस्थितियों के मध्य कविता सृजन करने के लिए उद्यत है और निरंतर सृजन करके अपने अस्तित्व को सबके सामने मजबूती से खड़ा करती है, चाहे इतिहास उसे स्थान दे या न दे। तत्कालीन परिस्थितियों में स्त्री को स्वतंत्रता उस तरह से नहीं प्राप्त थी, जिस तरह से आज है। संसार के अनदेखे सत्य को देखने का साधन उपलब्ध न होने के साथ ही भावात्मक संबल का अभाव, सकारात्मक सहयोग की कमी के बीच सृजन करना ही अपने आप में अद्भुत व उत्कृष्ट है। ऐसे में सृजन करना स्त्री अस्तित्व की वर्तमान स्थिति की परंपरा के निर्माण में अपना मुख्य सहयोग देता है, जिसकी वाहक रामकुमारी जी भी है।
पुनर्जागरण की एक विशिष्टता है- मनुष्य के संपूर्ण और संश्लिष्ट रूप की खोज, जिसका प्रारंभ व्यक्ति से होता है। नामवर सिंह ने भी कहा है कि ऐसे युग में जब विचारों और भावों को हजारों-लाखों आदमी तक पहुंचाने के साधन जुट गए हैं तो आत्माभिव्यक्ति की स्वाधीनता, व्यक्ति की स्वाधीनता का बीज मंत्र बन जाता है। वस्तुतः छायावादी साहित्य में आत्माभिव्यक्ति को आलोचकों ने आत्म प्रसार कहकर आलोचना की है। तत्कालीन साहित्य में दासता से मुक्ति का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। दासता से मुक्ति के लिए मनुष्य की स्वतंत्रता को उस समय का साहित्य केंद्र में लाता है, जिसे प्रारंभिक आलोचकों ने आत्मकेंद्रीयता माना है। यही आत्मकेंद्रीयता और आत्माभिव्यक्ति ‘नि:श्वास’ के केंद्र में है परंतु अन्य धुरी भी यहाँ मौजूद है।
अगर हम छायावादी परिप्रेक्ष्य में देखें तो मुक्ति की आकांक्षा के लिए तत्कालीन साहित्य में हमें दो मार्ग दिखाई देते हैं- पहला मार्ग है, वैयक्तिकता का और दूसरा मार्ग है, सामाजिकता का। वैयक्तिकता का मार्ग अपना के ही छायावादी काव्य रूढ़ियों से मुक्त हुआ था और यही वैयक्तिकता रामकुमारी जी की रचनाओं में हमें देखने को मिलती हैं, जिसे लोगों ने वेदना और व्यक्तिगत दुख की अभिव्यक्ति मान लिया। यह अन्याय सिर्फ रामकुमारी जी के साथ ही नहीं बल्कि महादेवी वर्मा के साथ भी हुआ है। महादेवी जी में आत्माभिव्यक्ति और वेदना तत्व आज भी विद्यालयी परंपरा में ढूंढा जा रहा हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि महादेवी की रचनाएँ प्राप्त हो गई हैं इसलिए अब लोगों का दृष्टिकोण बदल गया है परंतु रामकुमारी जी की कुछ रचनाएँ हमारे समक्ष हैं, जिस कारण से उनका समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो पाया है। नि:श्वास की संपूर्ण रचनाओं को व्यक्तिगत आत्माभिव्यक्ति और वेदना की रचनाएँ माने जाने की भूल की जाती रही है। यहाँ वेदना का रूप दूसरा है-
लहरों में मैं मुस्काती
आहों की ज्योति जगाए
मन की टूटी कुटिया में
अपने अरमान छिपाए
महादेवी जी के यहाँ भी दुखवाद जीवन की करुणा में सकारात्मक ऊर्जा देता है और वही वैशिष्ट्य हम रामकुमारी जी में भी पाते हैं। वस्तुत: वेदना की चरम अवस्था में वेदना ही साहस देती है, ऐसा रामकुमारी जी की रचनाओं के मूल में है। जिस प्रकार से महादेवी विरह और वेदना से प्रकाश पाती हैं, वैसे ही रामकुमारी जी भी अपनी रचनाओं में वेदना से प्रेरणा लेती दिखती हैं। वह कहती हैं-
वेदना है जीवन का सार
इसी पर होने दो बलिहार
वियोग का हास
बने विच्छेद मिलन का रास
इनकी कविताओं में कहीं-कहीं रहस्यवाद का भी पुट दिखाई देता है, पर ऐसी कविताएँ कम हैं-
किस चिर अतीत का मधुर गान
आया बनकर सुस्मृति वसंत
किसकी करुणा का नव विहाग
भर गया व्यथा का स्वर अनंत
रामकुमारी जी का लेखन जब चल रहा था, उस समय क्योंकि देश पराधीन था इसलिए देश प्रेम प्राण तत्व के रूप में सर्वत्र उपस्थित दिखाई देता है। देश प्रेम को प्रकट करने के कई रूप हो सकते हैं, पहला तो यह है कि हम अपने देश के प्राकृतिक सौंदर्य की विशेषताओं को चित्रित करें और दूसरा साधन है, देश की स्थिति का चित्रण कर सुधार की अपेक्षा रखना। इन दोनों कसौटियों पर रामकुमारी जी का काव्य खरा उतरता है। इनकी कविताओं में जागरण का भाव हमें नहीं दिखाई देता है परंतु छायावाद की शक्ति का जो मूल आधार है राष्ट्रीयता और देशप्रेम वह इनकी रचनाओं में हमें दिखता है। परंतु प्रसाद और निराला के जैसा चित्रण इनके यहाँ नहीं हैं। इनके यहाँ देशप्रेम का अर्थ है देश की प्रकृति का, सौंदर्य का चित्रण और स्त्री, मजदूर आदि वर्ग का यथार्थ चित्रण। इनकी कविताओं में देश प्रेम की अद्भुत छँटा अपने भौगोलिक ज्ञान के साथ गौरवान्वित करती है-
व्योम विचुंबित धवल धामहिम
भूधर उच्च खड़ा है
मंजुल मणि खनियो से पूरित
वैभव बढ़ा चढ़ा है
चरणाम्बुज नहलाने को है
भागीरथी उदारा
दुख विनाशिनी सुख प्रकाशिनी
जिसकी अनुपम धारा
प्रकृति चित्रण का यह रूप देश प्रेम को ही तो प्रकट करता है। शुक्ल जी ने भी कहा है कि जिसे अपने देश से प्रेम है, उसे यहाँ की प्रकृति, पशु-पक्षी सभी से प्रेम होगा। देश प्रेम से ही तो वशीभूत होकर देश की वर्तमान स्थिति पर भी उन्होंने अपनी कलम चलाई है-
दीन देश है अरे यहाँ की
करुण कहानी दुख सानी
रक्त रंग से स्वयं काल ने
रच रखी है मनमानी
कितनी विधवाएँ अबलाएँ
निज हृदयोदधि के मोती
नेत्रांजलियों से बिखराती
फिर भी तृप्ति नहीं होती
मजदूरों ने पिघल-पिघल कर
अपना ह्रदय गला डाला
कृषकों ने निज रक्त पात से
यहाँ बहाया है नाला
रामकुमारी जी ने प्रकृति का बहुत ही स्वस्थ चित्रण किया है। इनके यहाँ प्रकृति मध्ययुगीन जड़ता के रूप में उपस्थित नहीं है बल्कि प्रकृति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। वह एक सजीव सत्ता के रूप में स्थापित हुई है-
धीरे से शिशु सुमनों को
आ मलय समीर जगाती
परिमल प्रवाह में प्रमुदित
हो नहलाती बहलाती
मध्यकाल में प्रेम तपस्या की कसौटी पर आँका गया था और छायावाद में यही प्रेम आत्म पीड़ा के रूप में है। रामकुमारी जी के यहाँ भी प्रेम इसी आत्म पीड़ा में व्यक्त हुआ है। प्रेम की कोमल अभिव्यक्ति का सुंदर गीत एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है-
गायक यहाँ न छेड़ो तान
भर लेने दे जीवन की
रग-रग में वह उन्माद
पा लेने दो इसे वही
उर के बदले उर दान
गायक यहाँ न छेड़ो तान
राजकुमारी जी की प्रेम चित्रण में वैयक्तिकता की प्रधानता है। कहीं-कहीं इनकी कुछ रचनाओं में हालावाद की झलक भी दिखाई देती है-
तरल वेदना की भरती रहती हूँ
मृदु मादक हाला
विद्रुम-सी गुलाब-सी लाली
लख होता मन मतवाला
‘बादल राग’ जैसी कविताओं ने निराला को क्रांतिकारी और प्रगतिवादी घोषित कर दिया था। हिंदी साहित्य में स्त्री रचनाकारों ने भी ऐसा लेखन किया है परंतु उनकी रचनाएँ काल के गर्त में समा गयीं। इतिहास का यह पुरुषात्मक सामंतवादी रूप आज भी हमें दिखाई देता है। पुरुषात्मक सामंतवादी दृष्टि ने हिंदी साहित्य का बहुत अहित किया है। रामकुमारी जी की रचनाएँ भी इसका उदाहरण है। निराला की तरह सर्वहारा वर्ग की पीड़ा, मजदूर वर्ग की व्यथा इनकी कलम से छुप नहीं पाई है। आज की कसौटी पर भले ही इन रचनाओं को नहीं कसा जा सकता पर भावनात्मक स्तर पर ये रचनाएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। प्रोत्साहन मिलने पर इस तरह की अनेक रचनाएँ हमारे समक्ष प्रस्तुत हो सकती थीं, जो इस सामंतवादी प्रवृत्ति ने रोक दी। निराला की तोड़ती पत्थर के समान ही एक कविता मुझे बेहद प्रिय है, जिसमें राम कुमारी जी कहती हैं-
वे शीत घाम में निश्चल
गलते हैं अंग तपाए
हिम कण से ठिठुर-ठिठुर कर
श्रम कण बन घूलते जाते
उनके सूखे अंगों में
चिंता का चित्रण देखा
उनके मुरझाए मुख पर
है खचित हास की रेखा
साहस से ऋण ले लेकर
पर सुख हित नित मरते हैं
चिर रक्तपात से अपने
वे विश्व उदर भरते हैं
पराधीन भारत में शोषण की कथा व्यापक रही है, जिसका चित्रण हम कथा साहित्य में प्रेमचंद की रचनाओं में और काव्य साहित्य में निराला में पाते हैं। इसी तरह रामकुमारी जी ने भी अपनी कविताओं में शोषण की कथा को कहा है। भारत का कटु यथार्थ अपने एक-एक शब्द में मर्माहत कर जाता है। वह कहती हैं-
शिशु सिसक-सिसक रोते हैं
दाने-दाने के लाले
माताएँ मुख तकती हैं
आहत हो हृदय संभाले
इस जैसी कई कविताएँ क्या आलोचना के शास्त्रीय औजारों की मोहताज हैं? हो सकता है कुछ लोगों को भाषा की सहजता उसकी समान विशेषता लगे पर 1925 से 1935 में लेखन, वह भी यथार्थपरक लेखन और वह भी स्त्री के द्वारा लेखन वास्तव में साहस की गाथा को ही कहता है। निराला के गीत ‘तुम्हें बुलाता कृषक अधीर’ जैसी कविताएँ रामकुमारी जी ने भी लिखी हैं परंतु निराला के जैसी प्रतीकात्मक इनकी रचनाओं में नहीं है। यहाँ सिर्फ सत्य है वह सत्य अपनी पूरी सरलता और सहजता के साथ बिना किसी अलंकरण के अपनी बात पाठक के समक्ष रखता है और यही वैशिष्ट्य रामकुमारी जी की विशेषता है। वह कहती हैं-
अणु- अणु से वे बुझते-बुझते
जीवन ज्योति जगा जाते
कृष शरीर से कृषक जगत की
निर्मलता दिखला जाते
जिनके रक्त स्वेद से सिकर
अनुपम बीज निकलते हैं
जिनकी क्षुधा पिपाशा ही से
वसुधा के जन पलते हैं
है उनके हम ऋणी किंतु वे
ऋणी बने बेचारे हैं
मारे-मारे वे फिरते जो
ग्राम देवता प्यारे हैं
रामकुमारी जी की रचनाओं को अश्रु गीत कहकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है क्योंकि इनकी रचनाओं में वेदना और उसकी नकारात्मकता नहीं है बल्कि रचनात्मकता है। रामकुमारी जी की रचनाओं में एक आस्था है और तत्कालीन समाज में लिखने का साहस है। हताशा के बीच आशा का प्रज्वलन छायावाद की विशेषता है और यह अंतर्विरोध ही रामकुमारी जी की रचनाओं का मूल स्वर है। इनके काव्य वैशिष्ट्य के संदर्भ में ‘नि:श्वास’ की भूमिका में सरस्वती पत्रिका के संपादक देवी दत्त शुक्ला कहते हैं कि- “श्रीमती चौहान की इन सभी रचनाओं में कविता का दर्शन होता है। क्या शब्द योजना क्या लालित्य और क्या भाव धारा कविता के तीनों विशेषताएँ श्रीमती जी की इन रचनाओं में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। इन सब में करुण रस का जो परिपाक हुआ है, वह श्रीमती चौहान को कविता क्षेत्र की प्रथम पंक्ति में आसीन कर देने के लिए पर्याप्त है। हमें आशा है कि श्रीमती जी के हृदय में कविता की जो वेदना पूर्ण भाव धारा लहराती है, उससे हमारी राष्ट्रभाषा का रिक्त भंडार अलंकृत ही न होगा किंतु उसकी गौरव वृद्धि भी होगी।”
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव