राजस्थानी सिनेमा से यूं भी यहां के दर्शक कोई उम्मीद नहीं रखते। जैसे-तैसे सालों में कोई फ़िल्म परदे पर रिलीज़ होती है और दम तोड़ देती हैं। कई सालों के सूखे के बाद श्रवण सागर राजस्थानी फ़िल्म लेकर आए हैं ‘भरखमा’।
युवा साहित्य अकादमी से सम्मानित आईएएस जितेंद्र सोनी के कहानी संग्रह ‘भरखमा’ की एक कहानी को लेकर बनाई गई इस फ़िल्म को क्यों देखना जरूरी है आइए जानते हैं।
परदे पर उभरती आतंक की तस्वीरें, राज्य का एक जिला, गायब होती लड़कियां, महिलाओं की तस्करी कई शातिर किस्म के अपराधी। बंदी लड़कियों को कैद से आज़ाद कराने आया आईपीएस ‘सागर’। हरियाणा कैडर का यह बंदा राजस्थान में बुलाया गया है। लेकिन सागर की एक प्रेम कहानी भी इसी राजस्थान में कहीं पनपी और सांप्रदायिकता के चलते दम तोड़ गई। नीलोफर और सागर की अधूरी प्रेम कहानी के बीच अब सागर अपराधियों के डाटा खंगाल रहा और नीलोफर प्रोफ़ेसर बन भावनात्मकता पर भाषण दे रही है।दूसरी ओर एक लड़की उसी भावनात्मकता से भरे सेमिनार में जा रही है और बीच रास्ते उसका पर्स चोरी हो गया लेकिन जब वापस मिला तो कागज के नाम पर केवल आधार कार्ड! तो फिर वह कागजों के नाम का इतना शोर क्यों मचा रही थी? कायदे से यह पूरी फ़िल्म ही शोर मचाती है लेकिन बिना मतलब का।
पिछले दो-तीन दशकों में राजस्थानी सिनेमा के चाहने वाले जितनी तेज़ी से कम हुए हैं, उतनी ही तेज़ी से यहां के सिनेमा को कई सारी अन्य जगहों के सिनेमा के रंगीन रैपर में लपेट कर रख दिया गया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त किसी कहानी संग्रह की कहानी पर बनी ऐसी फ़िल्में एक नहीं बल्कि हज़ार बार देखी तो जानी चाहिए लेकिन ऐसी फ़िल्मों को इसलिए भी देखना चाहिए ताकि आपको यह समझ हासिल हो सके कि आपको कैसा सिनेमा बनाने से बचना है। आपको ऐसी फ़िल्में इसलिए भी देखनी चाहिए ताकि आपको पता चले कि कैसे एक्टिंग नहीं करनी है। ऐसी फ़िल्में इसलिए भी देखनी चाहिए ताकि आपको पता चले कि विशुद्ध एंटरटेनमेंट के नाम पर हर भाषा के सिनेमा की कतरनों को नहीं समेटना चाहिए। ऐसी फ़िल्में देखने के हज़ार कारण हो सकते हैं और ऐसी फ़िल्में नहीं देखने के भी हज़ार कारण हो सकते हैं। हम आखिर कितने गिनाएं। आप खुद देखिए आखिर राजस्थानी सिनेमा को सुरक्षित भी तो करना है।
आप चाहें तो बतौर बुद्धिजीवी दर्शक, बतौर समीक्षक जितना मर्जी माथा पीट लीजिए लेकिन एक बात मेरी नोट करके रख लीजिए कि राजस्थान का सिनेमा कब का मर चुका है। अब उसकी कब्रों से निकल कर वे अतीत के मुर्दे बाहर आ रहे हैं जो कहीं किसी हड़प्पा की खुदाई में निकलने से बच गए थे।
कहानी कई बार फ़्लैश बैक में घूमती है। जहाँ हिंदी, कई सारी भांति की राजस्थानी, अंग्रेजी मिक्स करके मसालों का ऐसा घोल तैयार किया गया है जिसे देखते हुए आपको टिपिकल मुंबईया और तमिल, तेलुगू सिनेमा के एक्शन की याद आए।
लेकिन नहीं है तो पूरी फ़िल्म में कहीं भी कश्मीरी टाइप हिंदी नहीं है। (कश्मीरी हिंदी का संदर्भ फ़िल्म देखने पर मालूम करें) पूरी फ़िल्म में एक्टिंग कहीं भी नहीं है लेकिन बिना मतलब के पैचवर्क सरीखे बैकग्राउंड हैं। पूरी फ़िल्म में उम्मीदों का सूरज है जो पूरी तरह डूबा हुआ नज़र आता है। लेकिन पूरी फ़िल्म में एक सिस्टम नज़र आता है जो हैक हो चुका है।
पूरी फ़िल्म में हिंदू का चाँद चौकुटो दिखता है तो मुस्लिम का चाँद तीकूटो दिखता है। लेकिन पुरी फ़िल्म में दूध और खून की बातें समान हैं ठीक हिरोइन की तरह जैसे वह कहती है- जिसे चाहा मिला नहीं, अनचाहा मंजूर नहीं।
नीलोफर आईपीएस बनाना चाहती है और मनोविज्ञान का प्रोफेसर बनाना चाहता है सागर लेकिन पूरी फ़िल्म में मनोविज्ञान कहीं दब गया है तो कहीं आईपीएस पिलपिला गया दिखता है। एक सवाल खुद से जरूर पूछिएगा फ़िल्म देखने के बाद कि नीलोफर सागर की हर खुशी में कुर्बान होना चाहती है लेकिन यहां के सिनेकार कब होंगे?
राजवीर गुर्जर बस्सी के अभिनय, दो तीन उम्दा गानों और लेखक जितेंद्र सोनी की लिखी आला दर्जे की कहानी के अलावा फ़िल्म में आप कुछ अच्छा देखने की उम्मीद मत कीजिएगा। बाकी फ़िल्म में नकली बी.जी.एम, साउंड, कलरिंग, नकली बारिश, नकली रोने-धोने, नकली आँसू, नकली मारधाड़, नकली सिनेमैटोग्राफी, नकली डबिंग हर चीज़ जब नकली दिखे तो आप अपने साथियों से इतना अवश्य कहिएगा कि सुरक्षा के इंतजाम करके ही फ़िल्म देखने जाएं।
फ़िल्म के निर्देशक श्रवण सागर किसी ज़माने में सिनेमाघर के बाहर चाय का ठेला लगाया करते थे और अब वे राजस्थानी सिनेमा के मुँहबोले स्टार हैं। कायदे से उन्हें यह तो समझना चाहिए कि विशुद्ध एंटरटेनमेंट के नाम पर उन्होंने जो परदे पर परोसा है उसे देखते हुए ठीकरे की मंगनी तो फूटी है। निर्देशक, एक्टर श्रवण सागर ने कम-से-कम इतिहास में दर्ज करने के लायक एक काम जरूर किया है कि लंबे सालों के बाद कोई राजस्थानी फ़िल्म परदे पर आई है।आप लोग कसम खाइए कि राजस्थानी सिनेमा को सुरक्षित करने के नाम पर वितंडे न फैलाकर इसे इस बात के लिए देख आइए कि परदे पर राजस्थान तो दिख रहा है आपको। यह तो गनीमत समझिए कि आपको राजस्थानी सिनेमा के नाम पर परदा नसीब हो रहा है। बहुतों को वो भी नहीं नसीब होता।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार