पुरवा भोर
रजनी- नीरव करती भंग,
आती नभ से छन -छन।
प्रथम रश्मि चूमती तरंग,
सरि-रागिनी की छम- छम।।
निकली प्राची से तपनांशु,
दीप्त कंचन सदृश अंबू।
चूमते खग नभ उन्मुक्त,
हुई किंचित गूंज झींगुर।।
उदयमान तब होता मार्तण्ड,
गिरे जमीं पर जब श्रमकण।
निकले परिंदे निलय छोड़,
होता जब पुरवा में भोर।।
बाल क्रीड़ा मृत्तिका में रंग,
गुल्ली डंडा सब खेलें संग।
आमों की डाली पर झूम,
फाग सुना रही बसंतदुत।।
मिले अमृतमयी धेनु- दुग्ध,
प्रकृति का अनुपम स्वरूप।
प्रमुदित जीवन कृत्रिमता दूर,
छकड़ा से करते भ्रमण सुदूर।।
अतिथि का लाए संदेश,
बोले काग जब बैठ मुंडेर।
खाट बिछा मिटा जनभेद,
पीपल की ठंडी छांव में बैठ।।
सखी सहेलियां संग मिलकर ,
भरती घट पनघट पर।
सावन में झूले पर झूल,
गूंजे हंसी ठिठोली की गूंज।।
लहराते खेतों को छू,
झूम- झूम कर चलती लू।
बरस कर लाते मेघदूत,
मिट्टी की सोंधी खुशबू।।
बिखरे पथ हरसिंगार फूल,
करते वसुंधरा को अंशुल।
बिछा जमीं पर ध्वल- सुर्ख चादर,
पुरवा भोर का करें स्वागत।