“मैं उड़ रही हूँ; मेरे पाँव जमीन पर नहीं हैं…..सरकार ने तो मुझे पद्म श्री दिया था, साहित्य अकादमी ने मुझे पद्म विभूषण दिया है“, पञ्जाबी साहित्य की मशहूर, वरिष्ट लेखिका ने इन शब्दों में अपना आभार प्रकट किया जब उन्हें साहित्य अकादमी के सर्वोच्च पुरस्कार ‘साहित्य अकादमी महत्तर सदस्यता’ या फेलोशिप से अभी हाल में 18 दिसम्बर को दिल्ली में साहित्य अकादमी के रबिंदर भवन सभागार में सम्मानित किया गया। इस कार्यक्रम में उपस्थिति का सौभाग्य मुझे अजीत जी और उनकी विख्यात चित्रकार बेटी, अपर्णा कौर की तरफ से मिले संयुक्त न्योते द्वारा प्राप्त हुआ। ज्ञानपीठ के बाद यह पुरस्कार भारत में साहित्य क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान है।
90-वर्षीय अजीत कौर को यह सम्मान पंजाबी साहित्य सृजन में समर्पित उनकी 75 वर्षों की लंबी यात्रा के लिए दिया गया जिस द्वारा वह न सिर्फ अपनी कहानियों, उपन्यासों, आत्मकथाओं और लेखों द्वारा समाज और संस्कृति का आईना बनी बल्कि उन्होंने कला, साहित्य, रंगमंच, संगीत तथा नृत्य को भी अपने एक गैर-वाणिज्यिक संस्थान ‘अकादमी आफ फाइन आर्ट्स एण्ड लिटरेचर’ द्वारा प्रोत्साहन दिया।
अजीत कौर ने अपनी किशोरावस्था में ही कहानियाँ लिखना प्रारंभ किया, उनकी पहली कहानी 16 वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई। हालांकि पुरस्कार समारोह में उन्होंने इस बात से इनकार किया, उनकी शुरुआती कहानियों में नारीवादी रुख सपष्टता से दिखाई दिया और अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की असमान स्थिति की शिकायत बार-बार दर्ज कराई। आज से कई दशक पहले के रूढ़िवादी समाज से जब पंजाबी कथा साहित्य में शायद पहली बार स्त्री-पुरुष संबंधों के भौतिक पक्ष के बारे में किसी स्त्री ने साहसपूर्वक बात की तो उन्हें उसके लिए कड़ी आलोचना का भी फलस्वरूप सामना करना पड़ा। अपनी सुस्पष्ट और बुलंद आवाज से चाहे वह व्यक्तिगत, सामाजिक, पेशेवर, राजनीतिक, या मानवता का ही कोई विषय हो, वह अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध हमेशा खड़ी रही। अपनी कहानियों में कथानक और चरित्रों की सोच को सपष्टता से पाठकों के समक्ष रखने में वह खुद को सहादत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई और कुलवन्त सिंह विर्क सरीखे लेखकों के निकट महसूस करती हैं। पंजाबी साहित्य में वह अमृता प्रीतम और कुलवन्त विर्क की साफगोई से प्रभावित हुई।
अजीत कौर की कहानियाँ और लघु उपन्यास स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। अब तक विभिन्न भारतीय विश्वविधालयों में उनके लेखन पर 68 से अधिक डाक्टरेट अध्ययन हो चुके हैं और भारत और विदेशों के विभिन्न विश्वविधालयों मेंउन्होंने खुद कई शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उनकी कई कहानियों का रूपांतर दूरदर्शन पर टेलीफ़िल्मों और धारावाहिक प्रसारण द्वारा दिखाया जा चुका है। उन्होंने SAARC क्षेत्र के प्रख्यात लेखकों की कहानियों, कविताओं तथा विचारों के कई संकलन भी तैयार किए हैं (ऐसे एक, वर्ष 2010 के संकलन में इस लेखक की कुछ अंग्रेजी भाषा की कविताएँ भी शामिल की गई थी)।
अजीत कौर द्वारा लिखी कहानियों में कुछ हैं – गुलबानों, बुत शिकन, महक दी मौत, फालतू, सांवियाँ चिड़ियाँ, मौत अली बाबे दी, ना मारो, अपने अपने जंगल, नवम्बर चुरासी, कसाई बाड़ा, काले खूह, और सानु कोई तकलीफ नहीं। लघु उपन्यासों में उल्लेखनीय हैं – धुप वाला शहर, गौरी, पोस्ट मॉर्टम। इन सभी कृतिओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी किया गया। समय-समय पर उनके स्नेह प्रतीक के रूप में इन में से बहुत सी पुस्तकें मुझे उनसे भेंट में पाने का सौभाग्य मिलता रहा है।
अजीत कौर को वर्ष 2006 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1986 में उन्हें ‘खानाबदोश’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। 1989 में भारतीय भाषा पुरस्कार के इलावा उन्हें अन्य कई और सम्मान दिए जा चुके हैं। इस वर्ष उनके साथ यह सम्मान कन्नड़ भाषा के कवि, नाटक लेखक, फिल्म निर्देशक और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके, श्री चंदरशेखर कम्बार को भी दिया गया। इस से पहले यह सम्मान 2021 मेंदिए गए थे।
हालांकि, अगस्त 2024 में आए दृष्टि दोष के कारण उनका लिखना-पढ़ना प्रभावित हुआ है –बकौल उनके,“अचानक से तब मेरे सामने से अक्षर गायब हो गए”- मगर अपने साहित्यिक मंच ‘डायलाग’ द्वारा देश के जाने-माने कवियों और लेखकों के मासिक संवाद का आयोजन व संचालन वह 1976 से अबाधित रूप से करती आई हैं जिसमें देश के पाँच-पाँच प्रधानमंत्रियों ने भी अपना काव्य पाठ किया है। साहित्य अकादमी के इस सम्मान से उल्लासित, उनके लाखों प्रशंसक कामना करते हैं कि वह उनके समृद्ध अनुभवों और ज्ञान के भंडार से आने वाले अनेक वर्ष लाभान्वित होते रहें।