(भाग – 14 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (ड)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
भारतीय-यूरोपीय संख्याओं के सबूत
‘भारत-भूमि अवधारणा’ के पक्ष में एक और अप्रत्याशित और निर्णायक सबूत बनकर हमारे सामने भारतीय-यूरोपीय संख्यायों की व्यवस्था का सच आता है। इसकी विस्तार से चर्चा श्री तलगेरी ने अपनी पुस्तक “संख्याओं और अंकों की दुनिया में भारत का अनोखा स्थान’ ( India’s Unique Place in the world of Numbers and Numerals) में की है। संक्षेप में हम उनकी यहाँ चर्चा करेंगे। भारोपीय भाषाओं में संख्यायों की व्यवस्था दशमलव- प्रणाली में परिचालित होती हैं। इनका आधार अंक १० (दस) होता है। दुनिया की सारी भाषाओं में क़रीब–क़रीब यहीं व्यवस्था दिखायी देती है और शायद इसका एक कारण क़ुदरत की वह व्यवस्था हो सकती है कि उसने मनुष्य के दोनों हाथों में गिनने के लिए कुल मिलाकर दस अंगुलियाँ दी है। ऐसे तो आप हाथ और पैर दोनों की अंगुलियों को गिनने के लिए ले लें तो कुल मिलाकर बीस अंगुलियाँ हो जाती हैं, और इसी कारण कहीं-कहीं दस आधार अंक वाली ‘दशमलव-प्रणाली’ की जगह बीस आधार अंक वाली ‘विंशमलव-प्रणाली’ के प्रचलन के भी दृष्टांत मिलते हैं। भारोपीय भाषाओं के आने से पहले दक्षिण-पश्चिम यूरोप में बोली जाने वाली बास्क भाषा के प्रभाव में ‘आइरिश’ और ‘वेल्श’ जैसी सेल्टिक भाषाओं में भी यह ‘विंशमलव-प्रणाली’ विकसीत हो गयी थी और यहाँ तक कि इटालिक और फ़्रेंच भाषाओं पर भी इसके छिटपुट प्रभाव देखने को मिल जाते हैं।
यूस्करा (बास्क)
१–१० : बट, बिगा, हिरूर, लौर, बोर्त्ज़, से, जजपी, ज़ोर्टजी, बेडेरटजि, हमर
११-१९ : हमेक, हमबि, हमहिरर, हमबोर्टज, हमसे, हमजजपी, हमज़ोर्टजी, हमरेटजि
२०, ४०, ६०, ८०, १०० : होगे, बेर्रोगे, हिरुएटनोगे, लुएटनोगे, एहुन
अन्य संख्या : विंशमलव + टा + १-१९
अतः २१ : होगे टा बट (२० +टा +१),
९९ : लुएटनोगे टा हमरेटजि (८० + टा + १९)
वेल्श ( भारोपीय – सेल्टिक)
१-१० : उन, दौ, त्रि, पेडवर, पम्प, छवेच, सैथ, वय्ठ, नव, देग
११-१५ : उन-अर-द्देग, देद्देग, त्रि-अर-द्देग, पेडवर-अर-द्देग, ब्य्म्थेग
१६-१९ : उन-अर-ब्य्म्थेग, दौ-अर-ब्य्म्थेग, त्रि-अर-ब्य्म्थेग, पेडवर-अर-ब्य्म्थेग
२०, ४०, ६०, ८०, १०० : हुगैं, देगैं, त्रिगैं, पेडवरगैं, सेंट
२१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों के बनने के लिए नियमित व्यवस्था इस प्रकार है – १-१९ + अर + विंशमलव (पुरानी अंग्रेज़ी भाषा की तरह यहाँ भी पहले इकाई संख्या आती है। जैसे २१ के लिए – उन अर हगैं (१ + अर +२०) और ९९ के लिए – पेडवर-अर- ब्य्म्थेग अर पेडवरगैं (१९ + अर + ८०)
आइरिश (भारोपीय-सेल्टिक)
१-१० : आओं, दो, त्रि, केथैर, कूइग, से, सीख़्त, ओख्ट, नोई, देख
११-१९ : आओं-देग (१ + १०), आदि।
२०, ४०, ६०, ८०, १०० : फिखे, दा-फिखिद, , त्रि-फिखिद, खेथ्रे-फिखिद, कीद
अन्य संख्याएँ : १-१९ + इस + विंशमलव ( यहाँ भी इकाई संख्या पहले आएगी)
अतः २१ : आओं इस फिखे, ९९ : नोई-देग इस खेथ्रे-फिखिद (१९ + इस + ८०)
[ किंतु इस भाषा में वैकल्पिक तौर पर दशमलव-प्रणाली का भी चलन पाया जाता है। १०, २०, ३० आदि : देख, फिखे, त्रोखा, देखीद, काओगा, सीसका, सीखटो, ओखटो, नोखा, कीद ]
फ़्रांसीसी (भारोपीय-इटालिक) (किंतु आंशिक तौर पर ही)
१-१० : उन, डू, त्रोईस, कुआत्रे, सिंक, सिक्स, सेप्ट, हुईट, नेफ़, दिक्ष
११-१९ : ओंजे, डौज़े, ट्रेजे, कुआतोरजे, कुइंजे, सीज़, दिक्ष-सेप्ट, दिक्ष-हुईट, दिक्ष-नेफ़
२०-१०० : विंग्ट, त्रेनते, कुआरंते, सिंकुआंते, सोईक्षांते, सोईक्षांते-दिक्ष, कुआत्रे-विंग्ट्स, कुआत्रे-विंग्ट-दिक्ष, सेंट
२१ से लेकर ९९ तक की संख्याएँ इस प्रकार से लिखी जाती हैं :
२० : विंग्ट, १ : उन, २१: विंग्ट एट उन
‘एट’ (और) सिर्फ़ ‘उन’ के पहले आता है। २२ : विंग्ट-डू आदि।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ७०, ८० और ९० के लिए ‘६०+१०’, ‘४*२०’ और ‘(४*२०)+१०’ का प्रचलन है। इसलिए ७१ से लेकर ७९ तक की संख्याओं के लिए सोईक्षांते-एट-ओंजे, सोईक्षांते-डौजे ……… सोईक्षांते-दिक्ष नेफ़ क्रमशः लिखे जाते हैं। उसी तरह ९१ से ९९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-ओंजे, कुआत्रे विंग्ट डौजे (४*२०+११,४*२०+१२) आदि तथा ८१ से ८९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-उन, कुआत्रे-विंग्ट-डू आदि लिखे जाते है।
बाक़ी भारोपीय भाषाओं में तीन चरणों वाली दशमलव पद्धति का चलन है। सही मायने में तो दशमलव पद्धति के विकसित होने की चार अवस्थाएँ हैं, लेकिन विकास के पहले चरण का भारोपीय भाषाओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुछ-कुछ अनजानी प्राक-भारोपीय भाषा वाली स्थिति है। फिर भी, कुछ ग़ैर-भारोपीय भाषाओं में इसका विवरण अवश्य मिलता है और प्राचीनतम प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में इसके उपस्थित होने के पर्याप्त तर्क हैं।
क – दशमलव-पद्धति की पहली अवस्था :
दशमलव पद्धति के विकास के प्रथम चरण में मात्र ग्यारह संख्याओं १ से १० और १०० के लिए शब्द थे। बीच की संख्याओं का निर्माण सीधे इन्हीं ग्यारह संख्याओं की मदद से या फिर घुमा-फिराकर किसी दूसरे तरीक़े से किया जाता है। यह पद्धति प्रमुख रूप से साइनो-तिब्बती भाषा (चीनी, तिब्बती, थाई आदि) और औस्ट्रिक परिवार की कुछ भाषाओं (वियतनामी आदि) में पायी जाती है। भारत की संथाली भाषा के साथ-साथ दुनिया की अनेक भाषाओं में भी यह प्रणाली देखने को मिलती है।
संथाली (औस्ट्रिक- कोल, मुंडा)
१ से १० : मित, बार, पे, पॉन, मोरे, तरुई, इया, इरे, आर, जेल
दहाई २०-९० : बार-जेल, पे-जेल, पॉन-जेल, मोरे-जेल, तरुई-जेल, इया-जेल, इरे-जेल, आर-जेल। १००: मित-साए।
अन्य संख्याएँ : दहाई + खान + इकाई
जैसे ११ : जेल खान मित, २१ : बार-जेल खान मित, ९९ : आर-जेल खान आदि।
और चाहे तो ‘खान’ को लगाए बिना भी लिख सकते हैं। (अब यदि अंग्रेज़ी में इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता तो बड़ी सहजता से ११ के लिए ‘दस-एक’, बीस के लिये ‘दो-दस’ २१ के लिए ‘दो-दस-एक’, ९९ के लिए ‘नौ-दस-नौ’ लिखा जाता।)
ख – दशमलव पद्धति के विकास की दूसरी अवस्था
दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में भाषाओं में १ से १०, २० से ९० के दहाई अंकों और सैकड़ा १०० के लिए शब्दों का इजाद हो गया था। बीच की संख्याओं का निर्माण सीधे इन बीस शब्दों से या फिर घुमा-फिराकर किसी अन्य तरीक़े से कर लिया जाता है। यह पद्धति मूल रूप से अटलांटिक परिवार की भाषाओं ( तुर्की, मंगोलियाई, मंचु, कोरियाई, जापानी) के साथ- साथ दुनिया की कुछ अन्य भाषाओं में भी पाया जाता है। भारोपीय भाषाओं की जहाँ तक बात की जाय तो यह सिर्फ़ संस्कृत भाषा में ही पाया जाता है और वहाँ भी अपनी लचकदार शैली में यह कहीं-कहीं भाषा की संधियों के छलजाल में जाकर मिल जाती है। साथ में इनका चलन दक्षिण की सिंहली और उत्तर की टोकारियन भाषा में भी देखने को मिलता है।
संस्कृत :
१-९ : एक, द्वि, त्रि, चतुर, पंच, षट्, सप्त, अष्ट, नव
दहाई अंक ९० तक : दस, विंशती, त्रिंशत, चत्वारिमशत, पंचशत, षष्ठी, सप्तति, असीती, नवती, शतम।
अन्य संख्याएँ : इकाई रूप + दहाई।
संयुक्त होने की प्रक्रिया में दहाई अंकों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। बस केवल एक अपवाद सोलह (षोडस) का है, जहाँ ‘द’ का ‘ड’ हो जाता है। संस्कृत-उच्चारण के नियमानुसार शब्दों के संयोजन में ‘अ’ और ‘अ’ की संधि ‘आ’ हो जाती है और ‘इ तथा ‘आ’ की संधि ‘या’ हो जाती है। ८१ के लिए ‘एकासीति’, ८२ के लिए ‘दव्यशीति’ आदि।
इकाई स्वरूप
१ – एक : एका – (११), एक – (२१, ३१, ४१, ५१, ६१, ७१, ८१, ९१)
२ – द्वि : द्वा – (२२, ३२), द्वि – (४२, ५२, ६२, ७२, ८२, ९२)
३ – त्रि : त्रयो – (१३, २३, ३३), त्रि – (४३, ५३, ६३, ७३, ८३, ९३)
४ – चतुर : चतुर – (१४, २४, ८४, ९४), चतुस – (३४), चतुष – (४४), चतु: – (५४, ६४, ७४)
५ – पंच : पंच (१५, २५, ३५, ४५, ५५, ६५, ७५, ८५, ९५)
६ – षट् : षो (१६), षड (२६, ८६), षट् (३६, ४६, ५६, ६६, ७६), षण (९६)
७ – सप्त : सप्त – (१७, २७, ३७, ४७, ५७, ६७, ७७, ८७, ९७)
८ – अष्ट : अष्टा – (१८, २८, ३८, ४८, ५८, ६८, ७८, ८८, ९८)
९ – नव : ऊन – (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव (९९)
[ नोट – यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि आज की संस्कृत-गिनती में ‘एकोन’ (अर्थात एक पहले) शब्द का प्रचलन बढ़ गया है। जैसे १९ के लिए एकोनविंश। एकोन (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९) – विश्वमोहन]
बोलचाल की सिंहली भाषा :
१ – ९ एक, डेक, टुना, हतरा, पसा, हया, हता, अटा, नवय
दहाई – १० से १०० : -दहया-, -विस्सा-, -टिसा-, -हतलिस-, -पनस-, -हेटा-, -हेट्टे-, -असु-, -अनु-, सिया-
बाक़ी संख्याएँ दहाई + इकाई मिलकर बनाती है। जैसे ११ : दह-एक, २१ : विसि-एक, ९९ : अनु-नवय
टोकारियन :
१ – १० : से, वि, त्राई, सत्वेर, पिष, स्क, सुक्त, ओक्त, न, षक
११ – १९ : दहाई + इकाई। जैसे, ११ षक से
२० : इकम
[अब चूँकि यह भाषा लुप्तप्रायः हो गयी है और अब कुछ पुरातात्विक अभिलेखों तक ही ही सीमित है, इसलिए अन्य संख्याओं की जानकारी अब उपलब्ध नहीं है।]
यदि अंग्रेज़ी ने इस प्रणाली को स्वीकारा होता तो संभवतः इसका सरलतम स्वरूप ऐसा होता कि ११ = टेन-वन, २० = ट्वेंटी, २१ = ट्वेंटी-वन, ९९ = नाइनटी नाइन
दशमलव के विकास की तीसरी अवस्था
उत्तर-पश्चिम में बुरुशासकी और पूरब की तुरी एवं साओरा सरीखी औस्ट्रिक जैसी विंशमलव संख्या-पद्धति वाली पड़ोसी अभारोपीय भाषाओं के प्रभाव में दशमलव प्रणाली के विकास का तीसरा चरण इस मायने में उल्लेखनीय रहा कि ग्यारह से लेकर उन्नीस तक की संख्याओं का स्वरूप अपने बाद की संख्याओं के समूह अर्थात २१ से २९, ३१ से ३९, ४१ से ४९, ५१ से ५९, ६१ से ६९, ७१ से ७९, ८१ से ८९ और ९१ से ९९, के स्वरूप से भिन्न हो गया। दशमलव के विकास की इस तीसरी अवस्था में भाषाओं में एक से दस, दहाई अंकों बीस से नब्बे और सौ के लिए संख्याएँ आ गयी। ग्यारह से उन्नीस तक की संख्यायों का गठन एक ख़ास ढंग से था। अन्य संख्याएँ ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९ आदि) या तो सीधे या परोक्ष रूप से अन्य पद्धतियों के सहारे किसी दूसरे तरीक़े से बनती थीं। यह व्यवस्था संसार के दो भाषा परिवारों की ख़ासियत है। पहला परिवार है – भारोपीय परिवार और दूसरा परिवार है – द्रविड़ परिवार। हालाँकि, संसार की अन्य भाषाओं में भी अलग-अलग छिटपुट तौर पर यह प्रवृत्ति पायी जाती है।
इस मामले में सबसे अनोखी बात तो यह है कि भारतीय-आर्य शाखा और टोकारियन एवं सेल्टिक शाखाओं के अलावा भारत के बाहर यह प्रणाली समान रूप से भारोपीय भाषाओं की आठ शाखाओं में पायी जाती है। भारतीय-आर्य, टोकारियन और सेल्टिक शाखाओं में पाए जाने का कारण हम पहले ही तलाश चुके हैं कि ये शाखाएँ बास्क की विंशमलव पद्धति को पहले से ग्रहण कर चुकी थी। भारतीय-आर्य शाखा में भी जिस एक भाषा में यह पद्धति मिलती है वह भाषा है – भारत भूमि के उत्तर से बाहर निकल चुकी साहित्यिक सिंहली भाषा। अब आइए हम भारोपीय परिवार की इन शाखाओं और साहित्यिक सिंहली भाषा के इन लक्षणों की तनिक तुलना कर के देखें।
संख्या/
भारोपीय भाषा |
पारसी
(ईरानी) |
अर्मेनियायी
(थ्रको फ़्रिजीयन) |
प्राचीन यूनानी (हेलेनिक) | अल्बानी
(इल्लि रियन) |
रूसी
(स्लावी) |
लिथुआनियन
(बाल्टिक) |
जर्मन
(जरमे निक) |
स्पैनिश
इटालिक) |
साहित्यिक
सिंहली |
१ | याक | मेक | हेस/मिया/
हेन |
नजी | ओडिन | वाइनस | ऐंस | ऊनो/
ऊना |
एक |
२ | दु | एरको | डूओ | डाई | द्वा | दु | जवे | दोस् | डेक |
३ | सी | एरेख | त्रेइ | त्रे | त्रि | त्राइस | द्रे | त्रेस | टुना |
४ | चहार | चोर्स | ट्रेस्सरेस | कटेर | चितिरी | केतुरी | वाईर | च्वात्रो | हटरा |
५ | पंज | हींग | पेंट | पेसी | फ़्यात | पेंकि | फूँफ | चिंचो | पसा |
६ | शीश | वेच | हेक्स | जाश्ती | श्येस्त | शेशि | सेच्स | सीस | हया |
७ | हफ़्त | योथ | हेप्ट | श्तति | स्येम | सेप्तिनि | साइबेन | साइत | हटा |
८ | हश्त | आउथ | औक्टो | तेति | वोस्येम | अश्तुओनी | अच्ट | ओकों | आट |
९ | नुह | आइन | एन्नी | निंद | डाइवित | देव्यनि | न्यून | नुइव | नवय |
१० | दह | तस | डेका | ध्जिते | डाइसित | दशीमतिस | ज़ेहं | दाइज | दहय |
११ | याजदह | तसन्मेक | हेंडेका | नजी-म्बि-ध्जिते | अदी
नतसत |
वाइनयोलिका | एल्फ़ | ओंच | एकोलह |
१२ | दवाजदह | तस्नेरको | डोडेका | डाई-म्बि-ध्जिते | द्वा
नतसत |
द्विलिका | ज्वोल्फ | दोच | दोलह |
१३ | सीजदह | तस्नेरेख | त्रेइ-कै-डेका | त्रे-म्बि-
ध्जिते |
त्रि
नतसत |
त्रिलिका | ड्रेज़ेहं | त्रेच | तेलह |
१४ | चहारदह | तसँचोर्स | ट्रेस्सरेस-कै-डेका | कटेर-म्बि-ध्जिते | चितिर
नतसत |
केतुरि-
ओलिका |
वाईर-ज़ेहं | चतोर्च | तुदह |
१५ | पांजदह | तस्नहींग | पेंट कै डेका | पेसी-म्बि-ध्जिते | पित
नतसत |
पेंकीयोलिका | फूँफ-
ज़ेहं |
कुइंच | पहलह |
१६ | शांजदह | तस्नवेच | हक्कै डेका | जाश्ती-म्बि-ध्जिते | श्य्स्त
नतसत |
शेशी-
योलिका |
सेच्ज़-
ज़ेहं |
दाइसिसिस | सोलह |
१७ | हिवदह | तस्नयोथ | हेपटाकैडेका | श्तति-म्बि-ध्जिते | स्य्म
नतसत |
सेप्ति-
नीयोलिका |
साइब-
ज़ेहं |
दाइसिसित | हतलह |
१८ | हिजदह | तस्नआउथ | औक्टोकैडेका | तेति-म्बि-ध्जिते | वास्यम
नतसत |
अश्तुओ-
नीयोलिका |
अच्ट-
ज़ेहं |
दाइसीओकों | अठलह |
१९ | नुजदह | तस्नाईन | एन्नेकैडेका | निंति-म्बि-ध्जिते | डाइवित
नतसत |
देव्या-
नीयोलिका |
न्यून-
ज़ेहं |
दाइसी
नुइव |
एकुंविस्स |
२० | खसँ | खसाँ | ऐकोसि | नज़ीजेत | द्वादसत | द्विदेशीमत | ज्वां-
जिग |
वींते | विस्स |
३० | बिस्ट | एरेसूँ | ट्रियाकोंटा | तृधजेत | त्रीतसत | त्रिसदेशीमत | द्रेस-
ज़िग |
त्रीनता | तीस |
४० | सी | तस्नेरेख | टेस्सरकोंटा | डाइजेत | सोरुक | केतुरीआ-
देशीमत |
वाईर-
ज़िग |
च्वारें ता | हतलिस |
५० | चिहिल | तसँचोर्स | पेंटेकोंटा | पेसी-ध्जेत | फ़्यात
दाइस्यत |
पेंकीयस-
देशीमत |
फूँफ-
ज़िग |
चिंचुएंता | पनास |
६० | पंजाह | तसंहिंग | हेकसेकोंटा | जाश्ती-
ध्जेत |
शेस्त
दाइस्यत |
शेशिया-
देशीमत |
सेच-
ज़िग |
सेसेंता | हात |
७० | शष्ट | तसंवेच | हेब्डोमेकोंटा | श्तति-ध्जेत | साइम
दाइस्यत |
सेप्तिनियस-
देशीमत |
साइब-
ज़िग |
सेतेन्ता | हत्तव |
८० | हफ़्ताद | तस्नेओथे | औग्डोएकोंटा | तेति-ध्जेत | वोसाइम
दाइस्यत |
अश्तुओनियस-देशीमत | अच्ट-
ज़िग |
औकेन्ता | असुव |
९० | नवाद | तसनौथ | एनेनेकोंटा | निंद-ध्जेत | दाई
वाइनोस्तूह |
देव्यनियस-
देशीमत |
न्यून-
ज़िग |
नवेन्ता | अनुव |
१०० | सद | हारिर | हेकाटोन | नजी-किंद | स्तो | सिमतस | हुँडेरत | सियेंटो | सैया |
२१ | बिष्ट-उ-याक | खसाँ मेक | ऐकोसि काई हेस
या हेस काई ऐकोसी |
नज़ीजेत ए नजी | द्वादसत ओडिन | द्विदेशीमत
वाइनस |
एनुंज
वांजिग |
त्रीनता य
ऊनो |
एकविस्स |
९९ | नवद-उ-नुह | इंनसौं इन | एनेनेकोंटा काई एन्नी
या एन्नी काई एनेनेकोंटा |
निंद ध्जेत ए निंद | दाई
वाइनोस्तो दाइव्यात |
देव्यनियस-
देशीमत देव्यनि |
न्यूनुंद
न्युंज़िग |
नोवे न्ता य ऊनो | नव अनुव
८९( एकुन-अनुव) |
दशमलव पद्धति के विकास की यह तीसरी अवस्था अपनी दूसरी अवस्था से पूरी तरह रूपांतरित हो गयी थी। इस बात को यदि ठीक-ठीक समझना है तो हम इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करें कि ११ और १२ की संख्यायों के लिए संस्कृत भाषा में कैसे शब्द-रूप हैं और इन संख्याओं के लिए बाक़ी भारोपीय भाषाओं या द्रविड़ भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों का रूप क्या है।
१ |
२ |
१० |
११ |
१२ |
|
संस्कृत |
एक |
द्वा |
दश |
एकादश |
द्वादश |
अंग्रेज़ी |
वन |
टू |
टेन |
इलेवन |
ट्वेल्व |
स्पैनिश |
ऊनो |
दोस् |
दाइज |
औंच |
दोच |
पारसी |
याक |
दु |
दह |
याजदह |
दवाजदह |
साहित्यिक सिंहली |
एक |
डेक |
दहय |
एकोलह |
दोलह |
तेलगु |
ओकट्टी |
रेण्डु |
पाड़ी |
पड़ाकोंडु |
पन्नेंडु |
हिंदी |
एक |
दो |
दस |
ग्यारह |
बारह |
हम यहाँ स्पष्ट तौर पर यह देखते हैं कि संस्कृत में ११ और १२ के लिए शब्दों का रूप सीधे-सीधे क्रमशः ‘एक और दस’ तथा ‘दो और दस’ के शब्दों का संयोजन है। आगे भी लगभग यहीं क्रम रहता है। जैसे, एक (१) + विंश (२०) = एकविंश (२१)।
दूसरी ओर, ऊपर की सारणी में यदि हम ध्यान दें तो संस्कृत के अलावा बाक़ी सभी भाषाओं में ११ और १२ के लिए बिलकुल स्वतंत्र शब्द हैं जिनमें उनके अवयव अंकों १, २ और १० के लिए बने शब्दों का कोई योगदान नहीं है। कहने का सरलार्थ यह है कि संस्कृत के शब्दों (एकादश और द्वादश) में हम १, २ और १० की उपस्थिति आराम से ढूँढ सकते हैं लेकिन अन्य भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं में यह सुविधा हमें नहीं मिलेगी।
साथ ही, संस्कृत, दूसरे चरण की बोलचाल की सिंहली भाषा, टोकारियन बी, और विकास के चौथे चरण की भारतीय-आर्य भाषाओं के अलावा अन्य सभी भारोपीय भाषाओं एवं द्रविड़ परिवार की भाषाओं में भी एक बात समान रूप से पायी जाती है। बाद की संख्याओं (२१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों के गठन की प्रक्रिया अत्यंत नियमित शैली में एक वैज्ञानिक तरीक़े से है। उनका यह स्वरूप ११-१९ की शब्द-शैली से बिलकुल अलग है।
क्रमशः…