हिंदी कथानक साहित्य में समाजवादी चिंतन से प्रभावित होकर लिखे गए उपन्यासों का विशेष महत्व है। इनमें कई उपन्यास कालजयी हुएहैं। इस श्रेणी में मूर्धन्य रचनाकार श्री प्रेमचंद रचित ‘गोदान’ प्रथम स्थान पर है। कहना गलत नहीं होगा कि प्रगतिशील चिंतन परंपरा प्रेमचंद से शुरू होकर यशपाल, मुक्तिबोध, फणीश्वर नाथ रेणु तक पहुंचती है।
प्रेमचंद हिंदी के प्रथम यथार्थवादी उपन्यासकार हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने युग के सामाजिक यथार्थ के विविध स्वरूपों को रेखांकित किया है।‘गोदान’ प्रेमचंद की कालजयी रचना है।‘गोदान’ को कृषक-महाकाव्य का दर्जा प्राप्त है। हिंदी उपन्यास और व्यापक अर्थ में भारतीय उपन्यास के इतिहास में भी ‘गोदान’ का अद्वितीय महत्व है। पहली बार ‘गोदान’ में समाज के सबसे उत्पीड़ित, साधारण मनुष्य को नायक का स्थान मिला था। यह घटना अब तक के परंपरागत और अभिजात्य साहित्यिक मूल्यों का विरोध था। अब तक समाज की वास्तविकता को अभिव्यक्ति देने के स्थान पर केवल राजा-महाराजाओं, सामंतों, नवाबों, जमींदारों के जीवन के संकुचित प्रसंगों को ही प्रस्तुत किया जाता रहा। इसके अलावा तिलस्म और ऐयारी को साहित्य माना जाता रहा क्यूँकी साहित्य सृजन मनोरंजन के साधन मात्र के रूप में जाना जाता था।इस वजह से आम आदमी की व्यथा, वेदना या उत्पीड़न को रेखांकित करने में किसी साहित्यकार को कोई रुचि नहीं थी। ऐसे में प्रेमचंद ने साहित्य को सामाजिक जीवन की वास्तविकता को अभिव्यक्त करने का सशक्त एवं सार्थक माध्यम बनाया।
वास्तव में प्रेमचंद ने कथानक साहित्य को उस महत्वपूर्ण बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहां हिंदी क्षेत्र के शिक्षित वर्ग की सामाजिक चेतना गांधीवादी दर्शन और विचारधारा की पर्याप्तता को पहचान कर समस्याओं के यथार्थवादी समाधान की आकांक्षा व्यक्त करने लगी थी।प्रगतिशील आंदोलन के दौर में कथाकारों ने न केवल प्रेमचंद के इस लोकतांत्रिक दृष्टि को स्वीकार किया अपितु उसके मूलभूत पक्षों को यथासंभव अपने लेखन में आत्मसात किया।
‘गोदान’ में प्रेमचंद ने कृषक-जीवन की त्रासदी के जिम्मेदार शोषक तत्वों के दमनकारी शोषण व शोषक वर्ग की अमानवीय प्रवृत्तियों को उजागर किया है।‘गोदान’ का लेखन काल सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर उथम-पुथल का था। गांव और शहरों की आर्थिक स्थिति पर पूंजीवाद का शिकंजा कस रहा था। ऐसे में किसानों को दोहराशोषण झेलना पड़ रहा था। एक तरफ जमींदारों का नृशंस शोषण, तो दूसरी तरफ महाजनों से लिए कर्ज से संपूर्ण जीवन मुक्त ना होपाना। अंततः अपनी जमीनेखोकर किसान मजदूर बनने पर मजबूर हो रहे थे। हालांकि ‘गोदान’ की कथावस्तु में राष्ट्रीय आंदोलन की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम है परंतु राष्ट्रीय आंदोलन की लोकतांत्रिक भावधारा की चेतना के विकास को रेखांकित किए जाने में कमी नहीं बरती गई है।
प्रेमचंद की दृष्टि में लोकतंत्र का अर्थ है समानतामूलक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण। जिसके तहत् भू-स्वामियों के जातिवादी वर्चस्व को खत्म करके भूमि को लोकतांत्रिक रूप से विभाजित किए जाने के प्रभावकारी नीति को लागू किया जा सकता था। प्रेमचंद ‘गोदान’ के माध्यम से सामाजिक स्तर पर समानता स्थापित करने के लिए समाज के उच्च तबके के मन से जातिवाद, छुआछूत, गरीबी-अमीरी के भेदभाव को मिटाने की आवश्यकता समझते थे। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन चेतना का विकास इस दिशा में हुआ ही नहीं। एक उद्देश्य पूर्ण सामाजिक आंदोलन हीं इस दिशा में बदलाव ला सकता था।‘गोदान’ में हम देखते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन का जनसाधारण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। होरी, धनिया,सिलिया, मातादीन और अन्य ग्रामीण नागरिकों में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति कोई उत्साह या जानकारी नहीं थी। जिसके फलस्वरूप होरी का शोषण जमींदार राय साहब उसके कारिंदे, धर्म-समाज के पञ्च तथा महाजन आदि जीवन पर्यंत करते हैं कथा में शक्तिशाली अंग्रेज बहादुर की उपस्थिति ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन शोषण समर्थक व्यवस्था का पर्दाफाश करती नजर आती है। राय साहब तथा अन्य उच्च वर्ग को पतनोंन्मुख वर्ग के रूप में रेखांकित किया गया है। ‘गोदान’ के राय साहब स्वीकार करते हैं कि “बहु।त जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है।“ राय साहब अपनी स्थिति से भलीभांति परिचित हैं। वे कहते हैं,“हम अपने आसामयों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती डालिया न दें, तो बागी समझे जाएँ, शान से ना रहे तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं और अफसरों के पास फरियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, ना पुरुषार्थ ही रह गया।“ राष्ट्रीय आंदोलन के पूर्व प्रेमचंद द्वारा लिखे गए उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ से ‘गोदान’ की तुलना करने पर हम पाते हैं कि ‘प्रेमाश्रम’ के लखनपुर में पटेश्वरी नहीं था। ‘गोदान’ में इस पात्र की उपस्थिति यह साबित करती है कि राष्ट्रीय आंदोलन से यह समझ पैदा हुई कि भारतीय किसानों की बदहाली का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार है।
गोदान की कथा के लगभग सभी प्रमुख पात्र ऋण के बोझ से आकंठ डूबे हुए हैं। क्या राय साहब, क्या कुंवर दिग्विजय सिंह और क्या राजा सूर्य प्रताप सिंह! सभी पर भारी क़र्ज़ है। और तो और, राय साहब की ससुराल की जायदाद जो उनके पुत्र को मिलने वाली है, उस पर भी दस लाख का ऋण है। क़र्ज़ के मामले में राय साहब और होरी, दोनों की स्थिति नाजुक है। दोनों महाजनों के समक्ष चिरौरी करते दिखते हैं।रुपयों की कमी की वजह से राय साहब कभी खन्ना, कभी मि. तन्खा तथा एक बार तो मिस्टर ओंकारनाथ की भी मिन्नत करते नजर आते हैं।प्रेमचंद लिखते हैं कि “राय साहब के तीन बड़े मंसूबे थे जो पूर्ण हुए। कन्या की शादी धूमधाम से हो गई। वह स्वयं होम मेंबर हो गए। चारों ओर से बधाइयां मिल रही थी। इस मुकदमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। ……… सुख की जो ऊँची से ऊँची कल्पना उन्होंने की थी उससे भी ऊपर पहुँच गए थे।“ परन्तु यहां पर प्रेमचंद ने जमींदार को एक पतनशील वर्ग के रूप में देखा है अतः राय साहब के सभी सुखों को दीमक लग जाता है। उनकी पुत्री का तलाक हो जाता है तथा जिस पुत्र के लिए उन्होंने एड़ी-चोटी एक करके मुकदमा जीता था उस पुत्र से उनका झगड़ा हो जाता है। अंततः होरी तो बर्बाद हुआ हीं, राय साहब भी आबाद ना होने पाए।
प्रेमचंद के इस लेखकीय न्याय में राष्ट्रीय आंदोलन की अनुगूंज सुनाई देती है। प्रेमचंद की लोकतांत्रिक दृष्टि शोषणहीन समाज की परिकल्पना करती है।‘गोदान’ में उन्होंने होरी-धनिया के शोषण की कहानी कही है। इस वर्णन में प्रेमचंद ने माना है कि यह शोषण अवैध तथा गलत है। दीन-हीनअजागरूक होरी इस शोषण को प्राकृतिक मानता है। प्रेमचंद होरी के इस मानसिक पिछड़ेपन को उजागर करते हुए मानव और मानव की समानता का आधारभूत दर्शन रखते हैं।