सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल ने हाल ही में अपना बारहवां उपन्यास “टापुओं पर पिकनिक” पूरा किया है। प्रिंट में शीघ्र प्रकाश्य इस उपन्यास को ई बुक के रूप में तीन लाख से अधिक पाठक अब तक पढ़ चुके हैं। इससे पूर्व प्रबोध कुमार गोविल के दस उपन्यास- देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, रेत होते रिश्ते, वंश, आखेटमहल, जल तू जलाल तू, अक़ाब, राय साहब की चौथी बेटी, सेज गगन में चांद की, ज़बाने यार मनतुर्की छप चुके हैं। इसके अलावा दो उपन्यास ‘बसंती की बसंत पंचमी’, और ‘ख़ाम रात’, ई बुक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। गोविल जी के दो उपन्यास ‘जनसत्ता सबरंग, मुंबई’ और ‘स्वतंत्र मत, जबलपुर’ में धारावाहिक रूप में भी छप चुके हैं। प्रख्यात हस्तियों की जीवनियों पर आधारित दो अन्य उपन्यास ‘झंझावात में चिड़िया’ तथा ‘साहेब सायराना’ भी प्रकाशन की राह पर हैं। उनके पहले उपन्यास ‘देहाश्रम का मनजोगी’ के सिंधी अनुवाद ‘मनजोगी’ (अनुवादक डॉ. जगदीश लच्छानी) को केंद्रीय साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। हिंदी में भी इसके तीन संस्करण हो चुके हैं। इसके अलावा ‘जल तू जलाल तू’ उपन्यास कुल ग्यारह भाषाओं ( हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी, राजस्थानी, असमिया, मराठी, बांग्ला, तेलुगू तथा ओड़िया में प्रकाशित है। ‘अक़ाब’ उपन्यास तीन बार हिंदी में छपने के साथ – साथ अंग्रेज़ी,पंजाबी, तथा सिंधी में भी छप चुका है। उनके कई उपन्यास पुरस्कृत भी हो चुके हैं। उनके दो बाल- उपन्यास ‘उगते नहीं उजाले’ और ‘डोर टू डोर कैंपेन’ भी छप चुके हैं।
प्रस्तुत है, प्रबोध कुमार गोविल से उनके नए उपन्यास ‘टापुओं पर पिकनिक’ के संदर्भ में हुई बातचीत का एक अंश –
आपका नया उपन्यास ‘टापुओं पर पिकनिक’ पूरा होने पर आपको हार्दिक बधाई!
आपका धन्यवाद, लेकिन लिखने वालों के लिए किसी रचना के पूरा होने पर ‘बधाई’ जैसा क्या है?
सर, ये बधाई की बात इसलिए है कि आज जब हाइकू और लघुकथा जैसी छोटी रचनाओं का दौर है तब आपने तीन सौ पृष्ठ का उपन्यास लिखा है, वो भी एक ऐसे विषय पर जो आज का ज्वलंत मुद्दा है- “मेडिकल जैसे पवित्र पेशे में अनैतिकता और भ्रष्टाचार”! लोगों के अस्तित्व और आत्मा तक से खिलवाड़ होने के सवाल को उठाना। बड़ी बात है ऐसे नीरस विषय पर लिखना!
लेकिन जब आप स्वयं कह रहे हैं कि लोगों के अस्तित्व और आत्मा से खिलवाड़ हो रहा है तो ऐसे में इस मुद्दे को विषय बनाया ही जाना चाहिए। सरस और नीरस विषय की बात तो बाद में आती है, समाज में सिर उठा रहे विद्रूप की पड़ताल तो हो ही सकती है। हम लोग सदियों पहले घटी घटनाओं और इतिहास में ही इस तरह उलझे हुए न रह जाएं कि हमारा वर्तमान हमारे हाथ से निकल जाए।
लक्ष्मण की मूर्च्छा के समय संजीवनी के लिए आकाश- पाताल एक कर देने वाले वृतांत पढ़ते हुए युग बीत गए। आज यदि हम ऐसे समय में पहुंच गए कि मूर्छित लक्ष्मण से संजीवनी की कीमत वसूलने के लिए सुषैण उसकी जान की भी परवाह न करें तो चिंता होना स्वाभाविक है न?
लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे विषय तो मीडिया में आलेखों के ज़रिए उठाए जाने चाहिए। इन पर साहित्यिक ग्रंथ लिखने से क्या हासिल होगा?
उपन्यास केवल इसी एक समस्या की बात नहीं करता। इसमें आधुनिक जीवन से संबंधित और बहुत सी बातें हैं। मौजूदा समय की प्रवृत्तियों को दर्ज़ करने के बहुत से पड़ाव हैं। नई पीढ़ी की जीवनशैली का जीवंत अनुशीलन है।
मैंने इसके कुछ आरंभिक अध्याय पढ़े हैं। ये किसी बाल- उपन्यास की तरह शुरू होता है लेकिन बाद में जीवन की जटिल बातों से भी मुठभेड़ करने लगता है। आपके दिमाग़ में इसके संभावित पाठक कौन हैं, बड़े या बच्चे? कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़े इसे बाल – साहित्य की रचना समझ कर ध्यान ही न दें और बच्चे इसे आगे जाकर छोड़ दें?
नहीं! बच्चों की जिज्ञासा बड़ों से भी पैनी होती है। वो दुनिया को अंतिम तह तक जानना चाहते हैं। मुझे लगता है कि हमारा अधिकांश बाल- साहित्य बचपन पर ही समाप्त हो जाता है। लेकिन बच्चे ही तो एक दिन बड़े होते हैं। बचपन की कोई पटाक्षेप आयु नहीं है। बहुत से प्रौढ़ लोग भी बचपन और बचपने के साथ ताउम्र जीते हैं।
दूसरी ओर बड़ों में भी अपने बचपन को याद करने, महसूस करने और उसे फ़िर से जीने का चाव होता है। जिन सीढ़ियों पर चढ़ कर वे ऊपर आए उन्हें भूलते नहीं हैं। दोहराना चाहते हैं। चाहें उसे दोबारा जी न सकें पर उसके बारे में बात तो बार- बार करना ही चाहते हैं। मेरी तरह आप भी ऐसा क्यों नहीं सोचते कि शायद बच्चे इसे बाल- उपन्यास समझ कर पढ़ना शुरू कर दें और फिर कौतूहल के कारण अंत तक न छोड़ें। वहीं बड़े भी पहले इसे अपने बचपन की स्मृतियों की गुदगुदाती रचना समझ कर पढ़ना शुरू कर दें और बाद में आधुनिक दुनिया के जटिल प्रश्नों के चिंतन – समाधान में दत्तचित्त हो जाएं। इस तरह इस किताब को छोटे- बड़े सभी पढ़ें। सकारात्मक रहिए!
जी सर, मेरा तात्पर्य तो केवल इतना सा था कि आजकल छोटी रचना ही पसंद करते हैं लोग! उपन्यास कम पढ़े जा रहे हैं।
हाँ, आप ठीक कह रहे हैं। केवल साहित्य ही नहीं, बल्कि जीवन शैली में भी यही हो रहा है। मास्क, लंगोट या ब्रीफ़ जैसे छोटे वस्त्र ज़रूरी हैं। पर यकीन रखिए… साड़ी, धोती- कुर्ता या बुर्का भी रहने वाला है, आसानी से जाएगा नहीं। बड़े- बड़े मनोरंजक, फिल्मी और सौंदर्य कार्यक्रमों में तो रेडकार्पेट पर कई मीटर वस्त्र लटकता देख लोग ख़ुशी से ताली बजाते हैं। ये बात अलग है कि वस्त्र बदन पर थोड़ा ही होता है, लटकता हुआ ज़्यादा! वैसे आपकी जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि इसे छपने से पहले ही आभासी दुनिया में ई-बुक के रूप में तीन लाख से ज्यादा पाठक पढ़ चुके हैं।
इतने गंभीर विषय को उठाने वाले उपन्यास का ये शीर्षक (टापुओं पर पिकनिक) कुछ हल्का- फुल्का नहीं है?
जैसे जीवन हमें हल्के- फुल्के रूप में बिना मांगे मिल जाता है, फिर इसे कठोर जीवन- संग्राम से वजनदार बनाना पड़ता है ठीक वैसे ही साहित्य में भी कोई रचना सहज ही शुरू हो जाती है पर महत्व उसे तभी मिलता है जब वो पाठकों के बीच अपनी गंभीरता साबित कर दे। इस उपन्यास के पात्र भी बिना किसी पूर्व निर्धारण के पिकनिक की भांति ही गंतव्य की ओर चलना शुरू कर देते हैं। यदि इसे लोगों ने पसंद किया तो ये शीर्षक भी महत्वपूर्ण लगेगा। इसका अर्थ यह है कि ज़िन्दगी टापुओं पर पिकनिक की तरह ही आरंभ होती है।
संपर्क: बी- 301, मंगलम जाग्रति रेजीडेंसी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर – 302004 (राजस्थान) मो. 9414028938
ईमेल : prabodhgovil@gmail.com
(प्रस्तुति : हिमांशु जोनवाल, बरकत नगर, जयपुर)