युवाकवि और राजनीतिक, समसामयिक, सामाजिक, पर्यावरण विषयों पर विश्लेषणात्मक एवं सृजनात्मक लेख लिखने वाले लेखक डॉ.हेमचन्द्रस बेलवाल (सहायकाऽध्यापक रा.उ.मा.वि.घसाड़, पिथौरागड़, उत्तराखण्ड) काव्यसंग्रह “देवभूमिग्रामशतकम्” एपेक्स बुक्स पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स नई दिल्ली से वर्ष 2014 ई. में प्रकाशित है। इस पुस्तक में कुल 100 पद्य (हिन्दी अनुवाद सहित) हैं।
इस पुस्तक का शीर्षक “देवभूमिग्रामशतकम्” अत्यन्त सार्थक है। लेखक ने इस किताब में अपने तर्कसम्मत विचारों, सन्दर्भों के साथ उदाहरण भी दिए हैं और तथ्यों के साथ गहरा विश्लेषण भी किया है। पुस्तक को बहुत ही सरल एवं साधारण भाषा में लिखा गया है।
गाँव के रहन-सहन, खानपान और रीति-रिवाज के विषय में कवि लिखता है कि –
प्रातर्जागरणं करोति सततं क्षेत्रं तथा गच्छति
कृत्वा भोजनमल्पमेव दिवसे क्षेत्रं पुन: गच्छति ।
सायं चायमयं कदापि लभते नो वा कदाचित्पुन:
सर्व जीवनमर्पयन् परहिते जीवन्नदसौ कर्षक: ॥5॥
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ग्रामीणेन तु कोद्रवस्य मधुरा या निर्मिता रोटिका:
खादित्वा खलु तास्तु जीवनमिदं धन्यं भवेन्निोश्चि तम् ।
शाकं सर्षपनिर्मितं च यदि वै साकं भवेत्खाछदितुं
नूनं सार्थकता तदात्र धरणौ स्याज्जन्मान: किं पुन: ॥9॥
एक तरफ जहाँ आज शहरों में माँगने पर भी बिना पैसे के पानी नहीं मिलता वहीं आज भी गाँवों में लोग अपने नल पर बाल्टी लोटा या मग तथा गुड़ अथवा चीनी गरमी के महीनों में राहगीरों को पानी पीने के लिए रखते हैं ।
नेतुं शीलतजलं निदाघदिवसे ‘नौला’ स्थलं मोददं
ग्रामेभ्यो जनता प्रयाति सततं हस्तेषु नीत्वा घटान् ।
नौलात: क्रमश: निवर्त्य कतिचित् कुर्वन्तिं कार्य गृहे
केचिच्चात्रहि पाययन्तिि पथिकान् शीतं जलं प्राणदम् ॥28॥
आज भी गाँव में कोई व्यक्ति यदि किसी के घर का पता पूछता है तो लोग उस पथिक को उस व्यक्ति के घर तक पहुँचा आते हैं ।
पन्था न: सरला भवन्ति जगतो नो विभ्रमो जायते
एकाकी पथिकोऽपि निर्भयतया गन्तरव्यमाप्नोत्यसौ ।
जात: कश्चन विभ्रमो यदि तदा सन्मा्र्गदा: संस्थिता:
ग्रामस्था: पशवोपि सन्तिस निपुणा: कर्तुं समेषां सुखम् ॥ 76॥
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है कि हम किसी भी जाति-धर्म-वर्ण के हों पर अपने सभी तीज-त्यौहार मिलजुल कर मनाते हैं ।
पक्वान्नातनि तु पर्वसु प्रमुदितं कुर्वन्तिह वै मानसं
स्थित्वैकत्र समेऽपि पर्वदिवसे पृच्छन्तिव दु:खं सुखम् ।
दूरात्स्थानत आगता अतिथय: देवस्वरूपास्तथा
पूज्ययन्तेन सततं हि यत्र स जयेद् ग्रामो निजे भारते ॥6॥
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सन्तोषी च कुलेश्व री भगवती दुर्गा तथा कालिका
भिन्नैर्नामभिरर्चिता जनतया शक्तिव: परं शाश्वती ।
तस्या एव कृपास्ति, यज्जगति या ‘नारी’ जनैरुच्यते
सा माता, भगिनी सुता च रमणी भिन्ने‘षु रूपेष्विह ॥95॥
डॉ.हेमचन्द्रग बेलवाल का लेखन बुनियादी सरोकारों का लेखन है। यह काव्य संग्रह पठनीय ही नहीं, चिन्तन मनन करने योग्य, देश के कर्णधारों को दिशा देती हुई और क्रियान्वयन का आह्वान करती, छात्रों, शोधार्थियों, सामान्य नागरिकों के लिए सार्थक और उपयोगी कृति है। यह पुस्तक इतनी अधिक उपयोगी है कि इसे हमारे देश के हर शिक्षित व्यक्ति ने पढ़नी चाहिए।
मैं कवि हृदय डॉ.हेमचन्द्रग बेलवाल को उनके इस काव्य संग्रह के लिए शुभकामनाएँ देता हूँ तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में भी संस्कृत के प्रति अपनी लेखनी ऐसे ही चलाते रहें ताकि संस्कृत जगत् आपसे प्रेरित एवं लाभान्वित होता रहे ।