अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर रसायन, भौतिकी, जैव प्रौद्योगिकी, जीव विज्ञान, चिकित्सा, नैनो तकनीक, परमाणु अनुसंधान, पृथ्वी तथा पर्यावरण विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग, कृषि और प्रौद्योगिकी आदि के क्षेत्र में इसने ऐसी चमत्कारी ऊंचाइयों को छुआ जिसके बारे में सोचा नहीं गया कि ऐसा भी हो सकता है। विज्ञान की इन हिस्टोरिकल अचीवमेंट को जिन वैज्ञानिकों ने सातवें आसमान की ऊंचाइयां दी, उनमें एक अग्रणी भारतीय वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा थे, जिन्होने वैज्ञानिक जगत को अपनी विलक्षण प्रतिभा से गौरवान्वित किया।डॉ. भाभा ने 15 वर्ष की अल्पायु में ही सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा आइंस्टीन के सापेक्षवाद को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विवि में इंजीनियरिंग का अध्ययन प्रारम्भ किया। सन् 1930 में इंजीनियरिंग ट्राइपास का द्वितीय खंड प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने भौतिक विज्ञान के प्रसिद्ध प्रोफेसर पी. ए. एम. गहरेक व एन. एफ. आर. के पास सैद्धांतिक भौतिक विज्ञान का अध्ययन करते रहे। लेकिन चित्रकला के प्रति भी उनकी रुचि बरकरार रही। विशेषज्ञ रेजर फाई ने उनके चित्रों की प्रशंसा की। 1932 में डॉ. भाभा को ट्रिनिये कालेज से गणित की उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति मिली।
1932 में उन्होंने ज्यूरिख के प्रो. डब्ल्यू पालि से गणित की शिक्षा ली। उन्होंने रोम में प्रो. ई. फार्मी के पास भी अध्ययन किया। यूरोप निवास के समय ही उन्हें वहां की चित्रकला का ज्ञान प्राप्त करने का अवसर भी मिला। सन 1935 से 39 के बीच भाभा कैम्ब्रिज में विद्युत और चुम्बकीय विज्ञान पढ़ते रहे। भौतिक विज्ञान के नवीन विषयों पर भाषण भी दिए। जिसमें कास्मिक किरण तथा सापेक्षवाद सरीखे गहन विषय भी शामिल थे।
परमाणु ऊर्जा के विकास में डॉ. होमी जहांगीर भाभा का महत्वपूर्ण योगदान है। उनके बिना परमाणु विज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्हीं के आदर्शों और सिद्धांतों से प्रेरित हो विज्ञान जगत को डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे तेजस्वी वैज्ञानिक मिले, जो हमारे देश के राष्ट्रपति भी बने। डॉ. भाभा प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक थे जिन्होंने नाइल्स बोहर के साथ पढ़ाई की जिससे क्वांटम थ्योरी के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ। वाल्टर हेटलर के साथ कासकेड थ्योरी ऑफ़ इलेक्ट्रान शावर्स पर भी काम किया जो कॉस्मिक रेडिएशन को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। उनके मतानुसार विश्व में अग्रणी भूमिका निभाने का सपना रखने वाला कोई भी देश लगातार रिसर्च करते रहने की अनदेखी नहीं कर सकता, अत; रिसर्च को सदैव ज़रूरी माना। ऐसे महान वैज्ञानिक थे जिनके अनुसंधानों से भारतीय विज्ञान जगत को ही नहीं बल्कि पूरे मानव समुदाय को कम मिला।
प्रसंगानुसार कैंब्रिज में अध्ययन और अनुसंधान कार्य के दौरान डा भाभा छुट्टियों में भारत आए हुए थे तभी सन 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड गया। उस समय हिटलर ने पूरे यूरोप पर कब्ज़ा कर लिया और इंग्लैंड पर धावा बोलना तय दिख रहा था। इंग्लैंड के अधिकांश वैज्ञानिक युद्ध के लिये सक्रिय हो गये और वहां रिसर्च का काम ठप पड गया। इन हालातों में वहां जाकर पुनः रिसर्च के काम में लगना डॉ. भाभा के लिये असंभव लग रहा था। देश में ही रह क्या किया जाए इस पर सोचते रहे। उनकी इस उलझन का निराकरण जल्द हो गया। तेजस्वी प्रतिभा के कारण कुछ विश्वविद्यालयों ने उन्हें अध्यापन कार्य के लिये आमंत्रित किया। इसके लिए उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर को चुना और वहां भौतिक शास्त्र विभाग में प्राध्यापक बने। देश में विज्ञान की प्रगति को ले चिंतित रहते। उनकी इस मूल चिंता का विषय था ” क्या भारत उस गति से प्रगति कर रहा है, जिसकी उसे ज़रूरत है? देश में वैज्ञानिक क्रांति लाने का जो उनका सपना था उसे पूरा करने के लिये बैंगलोर का संस्थान पर्याप्त नहीं था अत; नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ठ अनुसंधान के लिये एक अलग संस्थान बनाने के लिये दोराबजी टाटा ट्रस्ट से अनुरोध किया। उसी के अनुरूप सन 1945 में “इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च“ की स्थापना की गयी। वह उसके निदेशक बने।
देश स्वतंत्र होने के बाद दुनिया भर में रह रहे वैज्ञानिकों से स्वदेश लौटने की अपील की। भाभा की प्रतिभा से नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी वी रमण इतने प्रभावित थे कि उन्हें भारत का लियोनार्दों द विंची बुलाते। मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अनुसंधान के माध्यम से उन्होंने जो कामयाबी हासिल की उसका लोहा विज्ञान जगत मानता है। भौतिक विज्ञान में विभिन्न रिसर्चों के फलस्वरूप “केस्केंड थ्योरी आफ कास्मिक – रे शोअर्स” नामक सिद्धांत को प्रतिपादित किया। शांतिपूर्ण कामों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के समर्थक थे। उनके कथनानुसार दुनिया के अविकसित तथा गरीब देश तब तक आधुनिक औद्योगिक विकास से दूर रहेंगे जब तक वे परमाणु शक्ति और ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं करते हैं। अणु शक्ति द्वारा बिजली उत्पादन कर उद्योगों और कारखानों में अच्छे माल की व्यवस्था हो सके और इसका लाभ प्रत्येक गरीब मज़दूर को मिल सके। और भारत विश्व में अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को स्थापित कर सके इसके लिए उन्होंने अप्समा और जरलीना नामक परमाणु भट्टियों की स्थापना की। उनके प्रयत्नों से ही भारत में थोरियम से तैयार होने वाला यूरेनियम परमाणु शक्ति उत्पादन के लिए विदेशों से मंगाए जाने वाले ईंधन के समान ही उपयोगी सिद्ध हुआ और विदेश से यूरेनियम मांगने की समस्या हल हो गई।
बिहार, राजस्थान और नैल्लोर में यूरेनियम उत्पादक खनिज भी पाये गये। उन्होंने भारत को इस योग्य बनाया कि आवश्यकता पड़ने पर हम अपनी रक्षा के लिए अणु बम भी बना सके। पाकिस्तानी आक्रमण के समय देश की उत्तरी सीमा पर चीन की सरगर्मियों को देखते हुए उन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा सम्पन्न होने की घोषणा की तथा कहा कि भारत 18 माह में परमाणु परमाणु बम बना सकता है।
बाल्यावस्था से उन्हें चांद सितारे देखने व अंतरिक्ष को लेकर जानने की रुचि थी। उन्हें देख सदा जिज्ञासा भरी दृष्टि से निहारते। अध्ययन के दौरान कुशाग्र बुद्धि के कारण छात्रवृत्ति मिलती रही। परिवार की इच्छा का मान रखने के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई की लेकिन फिजिक्स उनका सबसे प्रिय विषय था। उनके बारे में दिलचस्प बात यह है कि साइंस के साथ साथ शास्त्रीय संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला और नृत्य कला आदि क्षेत्रों में उनकी रुचि और पकड थी। अजंता एलोरा तथा एलिफेंटा की गुफाएं भी देखने गये। वे चित्रकारों और मूर्तिकारों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से उनके चित्रों और मूर्तियों को खरीदते और उन्हें ट्रांबे स्थित संस्थान में सजाते। शास्त्रीय संगीत और गायन के कार्यक्रमों में भाग लेते पश्चिमी संगीत कला के भी अच्छे ज्ञाता थे। वह बिथोवन नामक संगीतज्ञ के बड़े प्रशंसक थे। उनके अनुसार संगीत व्यक्ति की कार्य क्षमता को बढाता है। स्वयं भी चित्रकारी करते तथा बागवानी किया करते। विविध वनस्पतियों के बारे में जानकारी रखते। अपने प्रिय गुलाब के फूल की कई तस्वीरें बनायीं। कला और संस्कृति उनके प्रिय विषय थे।
डॉ. भाभा का जन्म 30 अक्टूबर 1909 को मुंबई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता जे. एच. भाभा तत्कालीन बम्बई के प्रसिद्ध वकील थे। बाद में वे टाटा के प्रतिष्ठान में एक उच्च पद पर नियुक्त हुए। उनका परिवार शिक्षा के क्षेत्र से जुडा था जिसने मुंबई में कई लोकोपकारी कार्य किये। निजी प्रतिष्ठा की लालसा उनके मन में बिल्कुल नहीं थी। एक बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव मिला लेकिन नम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया मंत्री पद के वैभव से अधिक उन्हें विज्ञान से अधिक प्यार था। उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि रिएक्टरों के निर्माण से देश में परमाणु शक्ति से चलने वाले विद्युत संयंत्रों की परियोजना का मार्ग प्रशस्त हुआ। परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कृषि, उद्योग, औषधि निर्माण, और प्राणी शास्त्र समेत विविध क्षेत्रों में हो रहा है। 18 मई 1974 को भारत ने पोखरण में पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया यह भारत की परमाणु शक्ति का पहला प्रदर्शन था। डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने का जो सपना देखा था वह पूरा हुआ।
सन 1950 से सन 1966 तक परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष थे। सादगी और सरल स्वभाव के थे। बताया जाता है कि अपने चपरासी को कभी अपना ब्रीफ केस उठाने नहीं देते। 6 जनवरी 1954 को परमाणु ऊर्जा आयोग द्वारा परमाणु ऊर्जा संस्थान के नाम से शुरू किया गया जिसे 20 जनवरी 1957 को राष्ट्र को समर्पित किया गया। सन 1967 में इसका नाम भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र किया गया। नाभिकीय अनुसंधान संस्थान के रूप में इसकी काफी ख्याति है। यहां नाभिकीय भौतिकी, रसायन एवं जीव विज्ञान, रिएक्टर इंजीनियर, और नाभिकीय चिकित्सा इत्यादि में मूलभूत अनुसंधान होते हैं। मरुस्थलीय क्षेत्रों में अणु शक्ति द्वारा उपजाऊ भूमि तैयार करने में जो सफलता मिली, इसका श्रेय भी डॉ. भाभा को है।
डॉ. भाभा को असाधारण योग्यता के कारण देश-विदेश में बहुत सम्मान प्राप्त हुआ। भारत के सभी विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी एस सी की उपाधि प्रदान की। 1955 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। 1960 में इंग्लैंड की राजमाता ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। 1961 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। इसी वर्ष राष्ट्रपति ने पद्मविभूषण की उपाधि प्रदान की। 1964 में अफ्रीका व एशिया की विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।
डॉ. भाभा को पांच बार भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के लिये नामित किया गया। पर्यावरण प्रेमी थे जहां रहते वहां बडे बडे पेड लगाते इस विचार को सालों पहले सोचा “कि पेड़ों को काटने के बजाए ट्रांसप्लांट किया जा सकता है“ यह प्रथा अब बढ़ रही है।
डॉ. होमी जहांगीर भाभा केवल एक साइंटिस्ट ही नहीं बल्कि आधुनिक भारत के निर्माता भी थे। युवा पीढ़ी के लिये सदैव प्रेरणा पुंज रहेंगे। 24 जनवरी 1966 को जेनेवा के हवाई अड्डे पर उतरने के पूर्व ही उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस दुर्घटना में डॉ. भाभा सहित 117 यात्री मारे गये। उनकी मृत्यु का समाचार फैलते ही देश में शोक की लहर दौड़ गई। आज भी देश उस अनहोनी को स्वीकार नहीं कर पाया है।