एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा,
आँख हैरान है क्या शख्स जमाने से उठा।
– परवीन शाकिर
लोक गीत भारत की सांस्कृतिक संरचना का अभिन्न अंग हैं। ये गीत पीढ़ियों से चले आ रहे हैं और भारत के विभिन्न समुदायों के जीवन, विश्वासों और परंपराओं को दर्शाते हैं। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट लोक परंपराएँ होती हैं, और इन गीतों में प्रेम, प्रकृति, दैनिक जीवन, फसल, आध्यात्मिकता और सामाजिक मुद्दों की थीम्स होती हैं।
लोक गीत केवल एक संगीत रूप नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय परंपरा की एक समृद्ध बुनाई हैं, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों की आत्मा को दर्शाते हैं। अपनी कालातीत धुनों और काव्यात्मक बोलों के माध्यम से, लोक गीत लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ते हैं और उन प्राचीन परंपराओं को जीवित रखते हैं जिन्होंने भारत के जीवंत सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार दिया है। हाल के समय में लोक गीतों में पुनर्जीवन की रुचि बढ़ी है।
लोक गीत अर्थात हमारी संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों को अनुगूंज जो हमारे आचरणों, जीवन के रहन सहन और जन्म से लेकर जीवन के अंत तक विविध अवसरों पर गाये जाने वाले ठेठ देशी बोलो के ऐसे लोकगीत जो जन्म विवाह, मेंहदी, मुंडन, उप नयन संस्कार और त्योहारों आदि के अवसर पर गाये जाते हैं उन्हें शारदा सिन्हा ने अपने स्वर में ऐसे पिरोया कि वह लोकगीत जन सामान्य के हृदय में बस गये। कभी भी लोकगीत गायक का नाम ढूंढकर कोई गीत नहीं पता करना पड़ा बल्कि गीतों की पहचान ही इनकी आवाज़ों से हुई है।
शारदा सिन्हा के गीतों ने छठ पर्व की महत्ता को न केवल भारतीयों के बीच बल्कि प्रवासी भारतीय समुदायों में भी पहुँचाया है। उनके गीतों की लोकप्रियता इतनी है कि आज छठ पर्व के अवसर पर उनके गीत हर जगह सुनाई देते हैं। उनकी आवाज़ में गाए गए गीत लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं और इस पर्व के प्रति एक अलग ही जुड़ाव महसूस कराते हैं।
छठ पूजा के अवसर पर सर्वाधिक लोक गीत, लोक गायिका शारदा सिन्हा के सुने जाते हैं। उनके गानों को इतने उत्साह और आनंद से सुना जाता है कि श्रोता इन्हें सुन बस झूम जाते हैं। वह भोजपुरी, मैथिली, मगही, बज्जिका सहित आधा दर्जन से अधिक बोलियों और भाषाओं के लोक गीतों को अपार लोकप्रिय बना चुकी हैं। शारदा सिन्हा ने गांव, खेतों, खलिहानों और देहातों में गाये जाने वाले गीतों को घरों और परिवारों की चारदीवारी से बाहर निकाल कर उन्हें जन गीतों का स्वरूप दिया। यह बडा चुनौती पूर्ण कार्य था, जिसे शारदा सिन्हा ने अपना मधुर स्वर दे कर उनको लोक जीवन से जोड़ा।
शारदा सिन्हा को बिहार कोकिला कहा जाता है। उनके गीतों को लोकप्रियता को इसी से समझा जा सकता है कि यदि प्रवासी श्रमिक छठ पूजा पर अपने घर नहीं जा पाते है तो वह कहते हैं कि शारदा सिन्हा के गीतों के साथ वह अपनी कर्म भूमि पर ही इस पर्व को उल्लास पूर्ण ढंग से इन गीतों को सुनते हुए मनाएंगे। यह गीत उनके जीवन का अविभाज्य हिस्सा बन चुके हैं। उन्हें सुनते ही उन्हें ऐसी अनुभूती है होगे लगता है, जैसे मानो वह अपने ही घर पर गंगा किनारे इस त्योहार को मना रहे हों। वास्तव में शारदा सिन्हा बिहार और उत्तर प्रदेश के घर-घर में एक ऐसा परिचित नाम बन गया है, जिसे सुनना एक आदत बन गया है।
उनके गायन जीवन के उदय की भी बडी दिलचस्प कहानी है। जब वह स्कूल में पढ़ रहीं थी तब वह सहपाठियों के साथ गीत गा रहीं थी तो उनके स्कूल टीचर ने उनका स्वर सुन कर कहा “यह रेडियो बजा कर कौन गीत सुन रहा है”। सभी विद्यार्थियों ने कहा मास्टर जी यहां कोई रेडियो नहीं बजा रहा शारदा गीत गा रही है।
तब मास्टर जी शारदा सिन्हा को लेकर प्रधानाचार्य के कक्ष में गये जहां उनके गाये गीत को टेप रिकार्डर में रिकार्ड कर लिया, और उनके गायन को प्रशंसा करने लगे। मूल रूप से वह मणिपुरी नृत्यांगना हैं। उनके नृत्य को देख कर उस समय के पूर्व राष्ट्रपति सर्वेपल्ली राधा कृष्णन इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने संबोधन में उनके नृत्य की प्रशंसा की।
जब वह पटना में रह कर शिक्षा प्राप्त कर रहीं थी, तब गर्मियों की छुट्टी में अपने घर हुलास (सुपौल) जाया करती, जहां बड़े-बड़े आम के बागीचों में आमों को पक्षियों से बचाते हुए, वह अपनी सहेलियों के साथ खेलते हुए लोक गीत गाया करतीं जो उनके गीत गायन की पाठशाला बनी।
वहीं पर उन्होंने अनेक लोक गीतों को अपने मधुर कंठ में गाया जो आगे चल कर बहुत लोकप्रिय हुए। आम के उद्यानों मे सीखे यह गीत इतने चाव से सुने जाने लगे कि उनके रिकार्ड और कैसेट बनने लगे। उनके गांव हुलास मे दुर्गा पूजा के अवसर पर नाटक हुआ करते थे, उसे देखने के लिये कम लोग जाते और अधिकतर दर्शक उनके लोक गीतों को सुनने के लिए उमड़ पडते थे।
इसे देख कर उनके पिता इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने घर पर संगीत के गुरू को घर बुला कर गायन और संगीत की शिक्षा दिलवानी शुरू कर दी। उसी गांव में 1984 में पहली बार शारदा सिन्हा ने मंच से गाकर रूढ़िवादी सोच को तोडा। गायन के साथ उनका उसूल रहा कि वह शालीन और भद्र गीत ही गाएं जिसमें संस्कार, शालीनता और मिट्टी की महक हो।
1970 में, उन्होंने संगीत के प्रति एक समान प्रेम रखने वाले ब्रजकिशोर सिन्हा से विवाह किया। विवाह के बाद उनके गायकी का ससुराल में काफी विरोध हुआ। जब शरदा सिन्हा की सास उनके गाने-बजाने से नाराज हो गईं, तब उनके पति ब्रजकिशोर सिन्हा ने उन्हें पूरा प्रोत्साहन और सहयोग दिया। शारदा सिन्हा की सास का मानना था कि घर में भजन गाने तक तो ठीक है। लेकिन , ऐसे बाहर गाना-बजाना ठीक नहीं है। परंतु बाद में उन्होंने बहु को बाहर गाने की इजाजत दे दी। समस्तीपुर में रह कर उन्होंने अपनी पत्नी शारदा सिन्हा को एक संगीत महा विद्यालय में शिक्षा भी दिलवायी। वहों उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण की।
22 साल की उम्र में 1974 में उन्होंने भोजपुरी गीत गाना शुरू किया था और 1978 में पहली बार छठ गीत उग हो सूरज देव …. गाकर छठ गीत का पर्याय बन गई थी। जब उन्होंने गीत गायन शुरू किया तब किसी को यह आशा नहीं थी कि एक समय ऐसा आयेगा जब समाज ही नहीं पूरे देश के लिये शारदा सिन्हा गौरव बन जायेगी।
सन 1988 में वह पहला विदेश में कार्यक्रम देने मॉरीशस पहुंची तो जिस टैक्सी से वह होटल जा रही थीं तब उस टैक्सी में अपने गाये गीतों को सुन कर वह अचंभित रह गयीं। यह उदीयमान गायिका की हर तरफ फैल रही लोकप्रियता का उदाहरण था जो बाद में रिकार्ड तोड सफलता की कहानी में बदलता चला गया।
शारदा सिन्हा ने लोकगीतों की परंपरा को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया है। उनकी आवाज़ में एक विशेष मिठास है, जो श्रोताओं को तुरंत अपनी ओर आकर्षित करती है। उन्होंने छठ पर्व के लिए कई गीत गाए हैं, जिनमें “केलवा के पात पर उगेलिह सूरज मल झाके झाक” और “पहिले पहिल हम कईनी छठी माई के बरतिया” जैसे लोकप्रिय गीत शामिल हैं। इन गीतों में लोक की पवित्रता और सरलता को विशेष रूप से संजोया गया है।
भोजपुरी को एक ख़ूबसूरत पहचान देने वाली शारदा सिन्हा जी का बिहार समेत समस्त भारत सदा ऋणी रहेगा। उनके गीत मन को ही नहीं आत्मा को छू लेते हैं। शुद्धता, आस्था, समर्पण, निश्छलता, सद्भावना और मिठास का पर्याय हैं उनके मनभावन गीत विशेष रूप से उनके गाए छठ गीत बेजोड़ हैं। शारदा सिन्हा हमेशा से छठ पूजा के गीतों से जुड़ी रही हैं। उन्होंने ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल झुके झुके’ और ‘सुनअ छठी माई’ जैसे कई प्रसिद्ध छठ गीत गाए हैं। उनके गीतों ने इस त्योहार को और भी खास बना दिया है।
शारदा सिन्हा का छठ पर्व के लोकगीतों में योगदान अतुलनीय है। उन्होंने छठ पर्व की भावना को अपनी मधुर आवाज़ के माध्यम से जीवंत किया है, और उनके गीत इस पर्व को और भी खास बनाते हैं। उनके लोकगीत भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और आने वाले वर्षों में भी लोगों के दिलों में बसे रहेंगे।
अपने प्रशंसकों से मिल रहे अगाध स्नेह और सम्मान को पाते हुए उन्होंने कभी भी सस्ती लोकप्रियता को पाने का लालच नहीं किया। फिर चाहे इसके लिये कई ऐसे मौके खोने पडे हों, जिनसे बडे लाभ मिलने की पूरी संभावना थी। लोक गीतों को वर्तमान स्थिति से वह नाखुश रहीं क्योंकि उसमें फूहडता बढ रही हैं जिससे हमारे में बसी उच्च कोटि की संस्कृति पर गलत असर पड रहा है।
लोक गीतों के अतिरिक्त उन्होंने भजन, और गज़ल भी गाये। सन 1980 में उनका अलबम श्रद्धांजली शीर्षक से निकला जो श्रोताओं को बहुत पसंद आया। इसमें उन्होंने मैथिली के महाकवि विद्यापति के गीत गाये। उनके अन्य लोकप्रिय गीत ” पिरितिया काहे ना लगवले” “ पटना में बेदा बोलाइ द “ नज़रा गइलीं गया इईया “, “आ बताव चांद केकरा से कहां मिले जाल“ और “पनिया के जहाज़ से पलटनिया बनि अइहक पिया” इत्यादि हैं।
भिखारी ठकुर के जज़्बाती गीत “रोइ रोइ पतिया लिखवले रज मतिया गवलो “ को श्रोताओं से काफी सराहना मिली। शारदा सिन्हा अब तक भोजपुरी, बज्जिका, मगही और मैथिली भाषा में विवाह औऱ छठ के सैकड़ों पारम्परिक गीत गाये हैं।
शारदा सिन्हा द्वारा गाये दुर्गा पूजा एवं छठ पर्व के गीत तो इस कदर लोकप्रिय हैं कि उनके गीतों पर श्रोता विभोर हो उठते हैं। आज ऐसे हज़ारों गीत हैं जो श्रोताओं के दिल में अपना स्थान बना चुके हैं क्योंकि उनके गीतों में जो माधुर्य और भाव है वह काफी आकर्षक है इसलिये वह सुनने में मन भावन लगते हैं। जिन लोक गीतों को सुनने के बाद हमें आनंद प्राप्त होता है वह लोकगीत हमारी परंपरा, संस्कृति और सभ्यता के महत्व और उसको महिमा को याद दिलाते हैं उसी में जीवन राग बसा हुआ है, और इन गीतों की सम्राज्ञी बिहार कोकिला शारदा सिन्हा हैं।
शारदा सिन्हा की शिक्षा उनके संगीत करियर का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू रही है। उन्होंने अपनी संगीत की रुचि को दूसरों के साथ साझा करने और सिखाने के लिए पहले शिक्षा में स्नातक (बी. एड.) की डिग्री प्राप्त की। अपनी डिग्री के साथ-साथ, शारदा ने मगध महिला कॉलेज और प्रयाग संगीत समिति में भी प्रशिक्षण लिया, जो उनके संगीत कौशल को और मजबूत करने में सहायक रहे। शारदा सिन्हा ने लालित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से संगीत में पीएचडी किया और समस्तीपुर महिला कॉलेज में संगीत विभाग की विभागाध्यक्ष के पद से नवंबर, 2017 में सेवानिवृत हुईं।
उनके लोक गीतों के प्रति अटूट आस्था को देख भारत सरकार द्वारा उन्हें 1991 में पद्मश्री और 2018 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। शारदा सिन्हा को बिहार कोकिला के अलावे भोजपुरी कोकिला, भिखारी ठाकुर सम्मान, बिहार गौरव, बिहार रत्न, मिथिला विभूति सहित कई अन्य सम्मानों के सम्मानित किया गया।
ठेकुआ की महक इनकी गीतों के सोंधी मिठास से भर कर प्रसाद बन जाता था। ईख, अदरख, हल्दी,नारियल सज धज कर टोकरे में बैठ अपनी अम्मा शारदा मां के गीतों का अंग बन झूमते हुए खुशी से फूले न समाते थे। छठ की बारात निकली हो और मां शारदा के गीतों की शहनाई न गूंजे तो बारात की रौनक क्या और चित्त एकाग्रचित हो डूब न जाए तो बिहारी क्या? छठ व्रत द्वारा लोगों की खुशहाली और सम्पन्नता बढ़ी तो शारदा सिन्हा के स्वरों की गूंज से छठ व्रत की महत्ता विश्व के कोनों कोनों तक फैली है।
भोजपुरी को एक ख़ूबसूरत पहचान देने वाली शारदा सिन्हा जी का बिहार समेत समस्त भारत सदा ऋणी रहेगा। उनके गीत मन को ही नहीं आत्मा को छू लेते हैं। शुद्धता, आस्था, समर्पण, निश्छलता, सद्भावना और मिठास का पर्याय हैं उनके मनभावन गीत विशेष रूप से उनके गाए छठ गीत बेजोड़ हैं।
छठ के गीतों को अपने गले में उतार सुदूर बैठे लोगों को घर लौट आने के लिए भावुक कर देने वाली, छठ गीत परम्परा की जानकी शारदा सिन्हा जी को छठ मैया ने अति शुभ मुहूर्त में स्वयं धरती पर पधार कर अपनी गोद में समेट ले गई, परम लोक में पर्व करवाने के लिए। पूरे वर्ष में और किसी दिन नहीं, ठीक शुभ मुहूर्त में छठी माई स्वयं विराज कर अपनी बेटी को लेने आईं और उंगली थाम परम लोक यह व्रत न छूटे इनसे करवाने साथ लेती चली गईं। सुगवा भी इनके गले में उतर कर तर गया। इनके जैसी ओजस्विता और मधुरता हर स्त्री का हृदय हो, जाते हुए इस धरती को उनका बस यही आशीर्वाद मिले, आप तो जहां रहेंगी, वहीं गूंजेगी।
जिंदगी ऐसी ही होनी चाहिए कि शख्सियत चली गई और उसकी मधुर आवाज़ हर छठी व्रती के घर, गली, मोहल्ले में गूंज रही है। छठी मईया में मिल कर छठ हो गईं छठ गीतों की साम्राज्ञी …. शारदा सिन्हा