शिक्षा साध्य भी है और साधन भी। शिक्षा मनुष्य को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानव पूंजी में बदलती है और उसे समाज का एक सक्रिय सदस्य बनती है। गांधीजी के अनुसार शिक्षा मानव या बालक के शरीर, आत्मा और मन मस्तिष्क का चहुमुखी विकास करती है। वह बालक के शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक और मानसिक विकास का आधार शिक्षा को मानते थे। समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर के शिक्षा अंतर्निहित शक्तियों तथा बाह्य जगत के मध्य समन्वय स्थापित करने का काम करती है। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला माना जाता है जहाँ उसे अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है। और विद्यालय बच्चे को औपचारिक शिक्षा एवं कौशल प्रशिक्षण उपलब्ध कराता है जिसके माध्यम से न केवल वह जीविकापार्जन करना सीखता है अपितु उसके समग्र व्यक्तित्व का विकास भी है।
कोरोना महामारी ने जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसे प्रभावित न किया हो। पिछले दो सत्रों से अनेक नौनिहाल स्कूलों में प्रवेश नहीं ले पाए हैं और जिन्होंने प्रवेश ले लिया था और कोरोना काल शुरू हो गया उन्हें स्कूल के कंसेप्ट को समझने का समय ही नहीं मिला। शिक्षक, सहपाठी, प्राचार्य, बायीं जी, ड्राइवर अंकल जैसे शब्द उसके शब्दकोश का हिस्सा ही नहीं बन पाए या फिर कक्षा का अनुशासन, हर बात के लिए शिक्षक से अनुमति लेना, नियत समय पर टिफिन खोलकर खाना खाना, अन्य बच्चों के साथ मिलकर खेलना, शारीरिक व मानसिक अभ्यास करना, दोस्त बनाना, उनसे अपनी बाते साझा करना, पाठ हो या गिनती खेल खेल में सीखना, इत्यादि इन दो सालो में रूक से गए हैं या कहें कि गायब हो गए हैं। इन सबका बच्चों के बाल मन और उनके व्यक्तित्व पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि परिवार के बाद विद्यालय ही एकमात्र वह संस्था है जहाँ बच्चा अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होता है।
परन्तु इस महामारी काल में बच्चे इन सब बातो को सीखने से वंचित रहने को बाध्य हैं अब उनके लिए शिक्षा भी एक मोबाइल गेम की तरह हो गयी है मन किया तो पढ़ लिया अन्यथा नहीं। स्कूल में बच्चे परिवार से निकलकर अन्य लोगो की संस्कृति, भाषा व जीवन शैली से परिचित होते हैं और तभी समाज का अर्थ समझ पाते हैं लेकिन ये बच्चे उससे वंचित हो रहे हैं। स्कूल में मित्रों के साथ शेयरिंग, टीम वर्क, सहयोग-संघर्ष, भविष्य के सपने बुनना सीखते हैं परन्तु इस दौर में उससे भी दूर रहने को मजबूर हैं। परिवार में बच्चे केवल अपने परिवार की संस्कृति और परम्परा को सीखते है जबकि विद्यालय में पुस्तकीय ज्ञान के अलाबा दुसरे धर्मों, संस्कृतियों और त्योहारों से परिचित होकर साझा संस्कृति का हिस्सा बनते हैं। वहीं अधिकांश समय मोबाइल या अन्य गजेटस के साथ बिताने के कारण बच्चे मानसिक और शारीरिक दोनों दृष्टि से अस्वस्थ हो रहे हैं। ऐसे में इनकी संघर्ष करने और सोचने की क्षमता पर तो नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है साथ ही उनकी सृजनशीलता व कल्पनाशीलता भी प्रभावित होती है। शारीरिक गतिविधियाँ कम होने की वजह से और एक जगह बैठे बैठे ऑनलाइन क्लास लेने की वजह से उनमे अनेक समस्याएं जैसे मोटापा, आँखों का कमजोर होना, कन्धों व पीठ का दर्द होना, सर दर्द और तो और आलस्य की प्रवृत्ति का विकसित होना देखा जा सकता है। अधिकांश बच्चों के अभिभावक बताते हैं कि कई बच्चे ऑनलाइन क्लास में कैमरा और माइक बंद करके लेटे-लेटे क्लास लेते हैं, या फिर कुछ बच्चे क्लास ऑन करके अपनी प्रेजेंट बोलकर वापस सो जाते हैं या फिर तकनीकी खराबी का बहाना लगाकर क्लास ऑफ कर देते हैं इत्यादि इत्यादि। ऐसे में आप अनुमान लगा सकते हैं कि ये बच्चे क्या सीख रहे हैं? यह भी सच है कि सौ प्रतिशत बच्चे ऐसा नहीं करते होंगे पर ऐसा करने वालों की संख्या अधिक है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।
ऐसे में अभिभावकों को अधिक सतर्क रहने की जरुरत है और उनकी भूमिका इस दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। बच्चों को इलेक्ट्रॉनिक्स गजेट्स (मोबाइल इत्यादि) का कम से कम प्रयोग करने दे। ऐसा करना उनकी आँखों और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरुरी है। बातचीत के दौरान यह देखा गया है कि आज के अभिभावक कविता, कहानी इत्यादि लैपटॉप या मोबाइल पर चला कर बच्चों को दे देते हैं यहाँ तक कि बहुत से बच्चे ड्राइंग बनाना, रंग भरना भी कप्यूटर पर करते हैं जिसके कारण वह वास्तविकता का आनंद नहीं ले पा रहे हैं। फिर उनकी ऐसी ही आदत पड जाती है और वे आभासी दुनिया (वर्चुअल विश्व) को ही वास्तविक विश्व मानने लगते हैं। इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि वह कविता, कहानी या पाठ कुछ भी उसे स्वयं पढ़ाएं और उनके पीछे छिपे भावार्थ को भी समझाए। उनके साथ अन्य धर्मो, संस्कृतियों, प्रथाओं की भी निष्पक्ष चर्चा करे ताकि उसकी सोच विकसित हो और उनमे समाज की व्यापक समझ विकसित हो। बच्चों को मोबाइल गेम्स की लत न लगने दे उसके साथ फिजिकल गेम्स भी खेले जो घर के अंदर संभव हो। उसमें जल्दी उठने, व्यायाम करने की आदत भी डाले। ताकि स्कूल खुलने पर उसे परेशानी न हो बरना स्कूल खुलने पर वे बदलते परिवेश के साथ सामंजस्य नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अभी बच्चों का न तो सोने का कोई समय है और न जागने का। अभिभावकों को भी लगता है कि सारा दिन घर में ही तो रहना है सोते रहे तो अच्छा है उठ गए तो परेशान करेंगे।
और सोचिये उन बच्चो का भविष्य क्या होगा जिनके पास आधुनिक तकनीक के संसाधन ही उपलब्ध नहीं हैं। जनसंख्या का वह हिस्सा जो पहले से ही दमित और शोषित जीवन जीने को विवश है, शिक्षा के दायरे से अनेक बरसो तक दूर रहा है कुछ समय पूर्व ही उन्हें शिक्षा का लाभ मिलने की उम्मीद थी इस ऑनलाइन शिक्षा के दौर ने वह अवसर भी उससे छीन लिया। ऐसे न आने वाले समाज की तस्वीर क्या होगी, यह भी एक विचारणीय बिंदु है जिस पर बुद्धिजीवियों, समाज और राज्य को सोचने की जरुरत है। मार्गरेट मीड तर्क देती हैं कि बच्चों को सिखाइए कि कैसे सोचा जाये, न कि क्या सोचा जाये। और संभवत: शिक्षा का मकसद भी यही है एक खाली दिमाग को खुले दिमाग में बदलना। क्या ऑनलाइन शिक्षा इन नौनिहालों को ऐसी शिक्षा दे पायेगी यह एक गहन चिंतन और विमर्श का विषय है।