जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
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बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
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पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
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अपने में ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन का राग.
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शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
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जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
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कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
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भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
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हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
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सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
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हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
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भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
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लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.