मीडिया के इस युग में जनसंचार ने लोगों का जीवन, उनकी सोच, उनकी दिनचर्या, कार्यप्रणाली,यहाँ तक रिश्ते तथा रिश्तों के साथ व्यवहार सबकुछ बदलकर रख दिया है.आधुनिक युग मशीनी युग है. मशीनीकरण ने मनुष्य को ही मशीन बना दिया है. बड़े – बड़े महानगरों में मनुष्य जैसे सोने के लिए ही घर पहुँचता है. सुबह जब वह नौकरी के लिए निकलता है तब बच्चे सोए रहते हैं. लौटता है तब बच्चे देर रात हो जाने की वजह से सो जाते है.मगर खाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण घर की सुकूनभरी नींद ही उसे अपने कार्य में, अपने अपने जीवन में सक्रियबनाए रखती है वर्ना जीवन की धूप तथा काम का बोझ उसे निढाल कर देता है.
इसी सन्दर्भ में प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ जीवन की कई परतों को खोलता है और उससे जुड़कर तथा उसके प्रभाव जीवन में होनेवाली तब्दिलियों को बहुत ही सूक्ष्म तथा मार्मिक रूप से प्रस्तुत करता है.उपन्यासकार प्रदीप सौरभ पेशे से पत्रकार हैं. पच्चीस वर्षों से अधिक समय पूर्वोत्तर सहित देश के कई राज्यों में उन्होंने गुजारा है.कलम से ऊब महसूस हुई तो उन्होंने कैमरे की आँख से जीवन की हलचल को निहारा. कैमरा, कलम और पत्रकारिता द्वारा उपजे लेखक के विशाल नजरिये तथा दृष्टिकोण से ‘मुन्नी मोबाइल’ का जन्म हुआ. बक्सर से आई बिंदु यादव अपने परिवार की लालन – पालन की मज़बूरी में एक अवैध गर्भपात केंद्र की एजेंट बन जाती है. जीवन में कई झंझावातों एवं संघर्षों को चुनौती देते हुए उसका सामना पत्रकार आनंद भारती से हो जाता है. धीरे – धीरे उन से परिचय बढ़ने पर वह उनकी घरेलु नौकरानी बन जाती है. उत्तरआधुनिक युग की पूंजीवादी एवं बाजारी चकाचौध ने स्त्री को आजादी दी.आकर्षक दिखने की नई सोच साथ ही जीवन को (जीवन को सकारात्मक बनाने) सही नजरिये से देखने की उर्जा प्रदान की है. आज के उदारीकरण की प्रणाली में स्त्री भोक्ता के रूप में हमारे सामने आती है.
२१ वीं सदी के इस संघर्षपूर्ण युग में नारी अपनी छबि पहचान चुकी है.इलेक्ट्रोनिक मीडिया के इस युग में बाहरी आकर्षण और मोबाइल की चकाचौध से लबरेज मुन्नी मोबाइल! जिसके लिए उपन्यासकार कहते हैं – ‘जो पढ़ी नहीं है लेकिन कढ़ी फुल – फुल है.’वह आनंद भारती के यहाँ झाड़ू – पोछा करती है. जिसे वह किसी तरह हस्ताक्षर करना सीखा देते हैं. मुन्नी चतुर तो थी ही.वह पैसों के लिए बड़े – बड़े घरों में काम करके पैसा कमाने लगती है. वह ऐसी जगह काम पकडती जहाँ उसका मुनाफा हो .इस काम में भी वो परिपक्व हो जाती है. वह अपने स्वभाव के जिद्दीपन व अक्खड़पन के कारण एक बार आनंद भारती के समक्ष जिद पर अड़ जाती है.कहती है – ‘इस बार मुझे दिवाली गिफ्ट में कुछ स्पेशल चाहिए’.आनंदभारती ने कुछ ध्यान नहीं दिया. वे अखबार पढ़ते रहे. इतने पर भी मुन्नी नहीं मानी. वह उनके और अखबार के बीच की दूरी को कम करते हुए बोली – ‘मोबाइल चाहिए मुझे ! मोबाइल.’पहले झुग्गी – झोपड़ी और फिर जमींन खरीदकर मकान बनानेवाली मुन्नी छह- छह बच्चों को अपने मजदूर पति की कमाई में किसी तरह पालती-पोसती है.वह स्वेटर बुनकर भी कुछ कमाई कर लेती है तो कभी चोरी – छिपे नाजायज तरीके से करनेवाली (झोला छाप) महिला डॉक्टर के यहाँ हाथ बटाती है.उसके लिए केस लती है और बदले में कमीशन पाती है. अव्यवहारिक और निरन्तर नई प्रकृति के काम ढूंढ़कर पकडनेवाली मुन्नी अव्वल दर्जे की दुस्साहसी है. उसके काम से खुश होकर आनंद भारती उसे मोबाइल देते हैं. यहीं से मुन्नी के जीवन का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है.मोबाइल उसके जीवन में नई क्रांति ला देता है, वह उसके खेल को समझ जाती है. अनपढ़ होते हुए भी मोबाइल उसके लिए एक खिलौना बन जाता है.इस तरह से उपर की सीढियाँ चढ़ती और भटकती , मुन्नी हर तरह के दाँवपेंच में माहिर होने लगती है. लोगों के नंबर उसके दिमाग में सेव हो जाते थे. पहली बार आनंद भारती ही उसे ‘मुन्नी मोबाइल’ के नाम से संबोधित करते हैं. धीरे – धीरे वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो जाती है.अब वह हर किसी से लोहा लेने को तैयार रहती है. वह संपन्न ठेकेदारों, रंगदारों, पुलिस्थानों से लड़ती – झगड़ती, तरह – तरह की संघर्ष पूर्ण स्थितियों को सहती , उनके इर्षा और द्वेषपूर्ण नजरिये को भेदती कई बसों की मालकिन बन जाती है. धीरे – धीरे वह चौधराइन के नाम से जानी जाने लगती है. स्थानीय पुलिस को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए वह जब – तब पत्रकार आनंद भारती के रसूख को भुनाती रहती है. वह एक सेक्स रेकेट की सर्विस इन्चार्ज के रूप में अपना काम चला रही होती है. मगर अंत में पेशेगत स्पर्धा के तहत उसकी हत्या कर दी जाती है. समकालीन समाज में उत्तर आधुनिक युग की क्रूर सच्चाइयों को उजागर करने वाला उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ दिलचस्प उपन्यास है.
उपन्यासकार प्रदीप सौरभ ने अपने इस उपन्यास के द्वारा एक दुर्लभ प्रयोग किया है. मोबाइल क्रांति के द्वारा फैली अनेक भ्रांतियों का तथा उसके द्वारा उपजे राजनीतिक दाँवपेचों का निरूपण अनूठे अंदाज में किया है. उपन्यास का शीर्षक ‘मुन्नी मोबाइल’ पाठक को अपनी ओर सहज रूप से आकर्षित करता है.मगर उसके साथ ही कई सवाल भी खड़े करता है.उसके साथ ही कौतुहल, ओत्सुक्य,विस्मय आदि भाव जैसे उमड़ पड़ते है.
प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी के शब्दों में –‘मुन्नी मोबाइल एकदम नई काट का एक दुर्लभ प्रयोग है. प्रचारित जादुई तमाशों से अलग, जमीनी, धड़कता हुआ, आसपास का और फिर भी इतना नवीन कि लगे आप उसे उतना नहीं जानते थे’.