एनिमल – फ़िल्म प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिक पक्ष
फ़िल्में बनाना शुद्ध रूप से मानवीय मनोविज्ञान के साथ शातिराना संतुलन बैठाने का व्यापार है। और जो भी फिल्म निर्देशक मानव और मनविज्ञान में भरोसा रखता है वो एक कामयाब फिल्म का फार्मूला अपने हर शॉट के साथ लेकर चलता है मसलन मैं बात करूँ अगर हाल ही प्रदर्शित हुई फिल्म “एनिमल” के बारे में तो स्पष्ट है की संदीप रेड्डी वेंगा ने एक वन लाइनर (एक वाक्य में कही जाने वाली कहानी) कहानी को सबसे पहले दर्शकों के ज़ेहन में टांगने के लिए बढ़िया ‘विपणन अभियान’ का इस्तेमाल किया तत्पश्चात ना केवल डायरेक्टर बल्कि एडिटर के नज़रिए से भी साढ़े तीन घंटे के इस वन लाइनर को मनोरंजक रखने के लिए बेहद चालाकी से संगीत और दृश्य संयोजन का इस्तेमाल किया है।
फिल्म की शुरुवात में आप संदीप की पिछली फ़िल्मों के अर्जुन रेड्डी या कबीर सिंह की विद्रोही छवि को जेहन में बैठा कर सिनेमा की कुर्सी पर बैठे दृश्यों में आप कबीर सिंह/अर्जुन रेड्डी सरीखे किरदार को ढूँढने निकलते हैं पर सहसा सिनेमा की सीढ़ी पर मुकाम बना चुकी फिल्म “खलनायक” के संजय दत्त सरीखी अगली पीढ़ी से मुलाकात कर बैठते है।
दृश्य और परछाई वाले प्रभाव के साथ भयावह निओन लाइट्स वाले एक्शन दृश्य “एटॉमिक ब्लॉन्ड” की याद ताज़ा कर देते है, दृश्य निरंतरता के साथ साथ फिल्म के सिनेमाई रंग विभिन्न दृश्यों के दौरान ओपन एंड शट स्टाइल में कट टू/ या जम्प कट पर एक दम से दृश्यांकित हो जाते है, और दर्शक को फिल्म की गति से जोड़ देते है।
एडिटर के रूप में ऑडियो इंजीनियरिंग की समझ रखते हुए संदीप रेड्डी का ये एक बहुत साहसिक निर्णय कहा जा सकता है जो की सिर्फ फिल्म एडिटिंग करने वाले साउंड इंजिनियर जानते है की – 6db से ऊपर साउंड फ्रीक्वेंसी रखने से सिनेमेटिक ऑडियो एक्सपीरियंस ख़राब हो जाता है। उसके बाद भी कुछ ख़ास सीन में साउंड -6db ऊपर जाता है उसको बेहतरीन तरीके से साथ चलती दूसरी ध्वनियों को लो पिच करके इस तरह जमाया गया है जो एक पेशेवर में भी हर किसी के बस की बात नहीं है, क्योकि अधिकतर साउंड इंजीनियर बनी बनाई परिपाटी पर ही ऑडियो एडिटिंग करते है।
आज के बहुसंखीय दर्शक वर्ग के आयु संतुलन का ख्याल रखते हुए 20-20 मैच या शार्ट वीडियो देखने वाली जनरेशन-Z के लिए एक्शन को तेज़ गतिमय और जोशीले संगीत से सुसज्जित रखा गया है, साथ ही पिछली पीढ़ी के दर्शकों को बांधे रखने के लिए दृश्यों के साथ मैच ना भी करती हुये भी पुराने टप्पे और क्षेत्रीय संगीत (महाराष्ट्रियन लावणी) का सहारा लिया गया है मसलन;
फिल्म के शुरुवात में हम Threeory Band का AR Rahman medly सुनते है जिस से एक ख़ास दक्षिण भारतीय आभा उनके दक्षिण भारत के दर्शक को फिल्म से जकड़ लेती है। और फिर दिल्ली पंजाब और उत्तरी पश्चिम क्षेत्रों के लिए उच्च स्वरों पर पुरातन भावनाओं की कमान संभाले जानी का संगीत और हरी सिंह नलवा के सुपुत्र अर्जन वेल्ली जैसे शूर वीरों का रक्त उबालू शौर्य का यशगान आपको रनवीर के योद्धा अवतार में देखने को मिलता है। अब सम्पूर्ण भारत की सिनेमाई दर्शक बैठकी को समेटने के बाद संदीप संगीत द्वारा रुख करते है साउथ एशिया और मिडल ईस्ट और UK US ऑस्ट्रेलिया में बसी ऐसे दर्शक वर्ग का जो हिंदी फिल्में तो देखते है पर भारतीय नहीं है, और फिर अबरार की आगमन पर हम शिराज़ी बैंड के 1950 के ईरानियन गीत “जमाल कुद्दू” का जलवा देखते है। जिसको कल ही टी-सीरीज को अपने यू-ट्यूब चैनल पर डालना पड़ा क्योंकि उसने परख लिया कि ये भाग दर्शक सिनेमा से वीडियो बना कर उसपर रील बना बना कर डाल रहे है तो हम अपने ही असल दृश्य ही क्यों ना डाल दें, जिस से उन्हें भी कुछ अतिरिक्त बिजनेस मिल जाए और आज शाम ये लेख लिखे जाने तक टी-सीरीज का ये वीडियो १ करोड़ से भी ज्यादा देखा जा चुका है।
साथ ही जम्प कट वाली एडिट कला जो कभी हमें एक दम कहानी में दो कदम आगे ले जाती है और कभी दो कदम पीछे ले आती है एक आम सिनेमाई दर्शक की सोचने के क्षमता को विकसित कर एडवांस सिनेमा के लिए प्रौढ़ बनाती है। श्वेत श्याम दृश्यांकन का होना सिर्फ मसखरे पन के लिए नहीं बल्कि फ़क्त कहानी और किरदार के अंत:करण की अंतहीन रंग विहीनता को दर्शाता है, जहाँ सूत्र अपने पुराने जमाने के रंग याद कर रहा है और एक तरह से खुद ही खुद की कहानी का सूत्रधार है।
कहानी का एक दृष्टिकोण भाइयों की रंजिश की लपेट में पिछले 1200 साल के भारतीय आक्रान्ताओं के संघर्ष की एक चुटकी गंध भी परोसता है पर संदीप की शानदार एडिट ने ये पक्ष जाहिराना रूप से जाहिर नहीं होने दिया है। एक फिल्म विद्यार्थी के नाते ये एक फिल्म विधा का सूक्ष्म मूल्यांकन भर है, कहानी और अभिनय की बात फ़िल्म आलोचकों के निर्णय के लिए छोड़ दी जानी चाहिए।
कुल मिला कर कुछ कमी कहें तो किसी किसी जगह तर्क की कमी (पुलिस की नगण्यता) को देखते हुए भी फिल्म हर पक्ष हर विभाग में अपना झंडा बुलंद करता है। फिल्म की लम्बाई केवल 3 घंटे भी होती तब भी फिल्म उतनी ही शानदार होती, क्योंकि संदीप बहुत सारे फिल्म-मेकिंग के नियम को तोड़ते हुए भी एडिटिंग की दोधारी तलवार को हाथ में लेकर फिल्म एडिट करने बैठे है जिसमें वो काबिल तौर पर बहुत निर्मोही है, वो किसी भी दृश्य की मुग्धता में नहीं फंसे है और अग्र दर्शक दीर्धा के दर्शक से लेकर बॉक्स में बैठी जनता को एक शुद्ध खरा “मेथाफेटामीन” थमा दिया है।
फिलहाल आम बोलचाल की भाषा में इतना ही, बाकी सब “एजेंडा” और “-वाद” के फेर में दर्शक को नहीं उलझना चाहिए।