फिल्म – पलटन
निर्देशक – जे० पी० दत्ता
निर्माता – जे० पी० दत्ता , वरुण गुप्ता, शरीक पटेल, अजय आर यादव
कलाकार – अर्जुन रामपाल, ईशा गुप्ता, जैकी श्रॉफ, सोनू सूद, गुरमीत चौधरी, सोनल चौहान, हर्षवर्धन राणे, मोनिका गिल, सिद्धान्त कपूर, लव सिन्हा, निजोऊ थान्ग्जम, दीपिका कक्कर रोनित रॉय
म्यूजिक – संजय चौधरी
गीतकार – जावेद अख्तर
चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चाँदनी रात में चाँदी की चम्मच से चटनी चटाई। बस यही चाँदी की चम्मच देशभक्ति के नाम की और वही चाँदनी रातें और चटा दी निर्देशक साहब ने चटनी। खैर इस देश के इतिहास में ऐसी अनेक वीर गाथाएँ भरी पड़ी हैं, जिन पर आप जितना जी चाहे चाहें लिखें, बोलें या उन्हें पर्दे पर उतारें वे हर बार एक नए स्वरूप और कलेवर के रूप में सामने प्रस्तुत हो सकती हैं। ऐसी ही एक वीर गाथा को इस बार निर्देशक जे० पी० दत्ता ने चुना। हालांकि यह पहली बार नहीं है जब देशभक्ति पर फिल्म बनी हो या उसे पर्दे पर उतारा गया हो। यह वीर गाथा है भारत और चीन के युद्ध की। हिन्दुस्तान और चीन के बीच अभी तक दो युद्ध हुए पहला युद्ध हुआ 1962 में और उसके बाद 1967 में हुआ। लेकिन ठहरिये जनाब यह फिल्म किसी युद्ध पर पूरी तरह केन्द्रित है यह भी नहीं कहा जा सकता। कारण यह कि जब 1967 में युद्ध हुआ तो आप उसे एक साल पहले यानी 1966 के दौर में क्यों फिल्मा रहे हैं?
खैर छोड़िए क्या कहना अब देशभक्ति का मामला जो ठहरा। किन्तु देशभक्ति में यह चीनी मिलावट इस बार कुछ हजम नहीं हो पाई सरकार। एक तो फिल्म का नाम पलटन और ऊपर से उसमें ढेरों कलाकार। खैर अब आप कहेंगे कि युद्ध है तो सेना दिखाने के लिए पलटन दिखानी भी तो जरूरी है। ठीक है मान लिया लेकिन इसके अलावा फिल्म में कई लोचे और भी है मसलन एक सीन देखिए जब एक फौजी यानी अभिनेता अपनी सगाई पक्की होने के बाद अभिनेत्री यानी फौजन / फौजण से कहता है इस शुक्रवार फिल्म लगी है उसने कहा था। अब जनाब क्या कहें किसने कहा था? और क्यों कहा था? किसलिए कहा था? इन सब सवालों के पचड़े में पड़े बिना और बिना अपने दिमाग का दही किए या बिना कोई तर्क लगाए अगर आपने यह फिल्म देख ली तो समझो आपने सबकुछ हासिल कर लिया। अगर बात करूं उसने कहा था कि तो यह चन्द्रशर्मा गुलेरी जी की तकरीबन 100 (सौ), सवा सौ (125) साल पुरानी कहानी है जिस पर सबसे पहले इसी नाम से साल 1960 में फिल्म भी बन चुकी है । अब आया कुछ समझ? नहीं तो फिर जाइए और भेलपूरी खाइए। चलिए कुछ के लिए फिर से बता देता हूँ फिल्म में 1966 का दौर है और उसने कहा था फिल्म अगले हफ्ते के शुक्रवार को देखने की बात हो रही है जो 1960 में ही रिलीज हो चुकी है।
खैर मैं भी पलटन फिल्म की तरह आपके दिमाग को चाइनीज बनाने लगा शायद। लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिसे देखकर कहा जा सके या बताया जा सके कि फलां कहानी है। बस इत्ता सा समझ लें देशभक्ति की कहानी है फिर आपको कुछ और कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हालांकि यह फिल्म पलटन इसी 15 अगस्त 2018 को रिलीज होने वाली थी लेकिन सत्यमेव जयते और गोल्ड के चलते इसकी रिलीज डेट को आगे खिसकाना पड़ा। शायद जे० पी दत्ता साहब को लगा हो कि देशभक्ति के नाम पर चाइना का माल दिखा कर गद्दारी नहीं करनी चाहिए। हाँ इन सब में एक बात बताना भूल ही गया कि 1962 का युद्ध चीन से हारने के बाद चीन के हौसले और बढ़ने लगे और 1966 तक आते आते उसने सिक्कम के एक बड़े भू-भाग को अपने कब्जे में कर लिया। ये सब भी आप फिल्म में देखेंगे कि किस तरह वे नो मेन्स लैंड की जगह पर भी बंकर बनाते हैं और सुरंगें खोदते हैं। उसके ऊपर से 1966 में हिंदी चीनी भाई भाई का नारा बुलंद होता है। इसके अलावा चीन के एक बड़े आदमी माओ यानी माओ से तुंग की एक किताब का भी जिक्र है जिसमें अति मार्क्सवादी या कहें वामपंथी लोगों की नीयत का भी जिक्र है। फिल्म में कुछ एक पंजाबी सीन और पंजाबी भाषा के संवाद भी हैं जो पंजाबी पसंद करने वालों को जरुर थोड़ा मनोरंजित कर सकती है, हँसाने और रोमांस के मामले में । इसके अलावा फिल्म की शुरुआत के और अंत के कुछ एक आध दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे देखकर आप बॉर्डर, एल ओ सी कारगिल या वैसी ही कोई दूसरी फिल्म के सीन तलाशें। फिल्म अपने स्वाभाविक तरीके से देशभक्ति का जाम पिलाने की नाकाम कोशिशें करती नजर आती है। एक बात और देशभक्ति के नाम पर जितनी भी फ़िल्में आज के समय में बन रही हैं उसमें अगर आप ज्यादा एक्टिंग या अभिनय को तलाशने की कोशिश करेंगे तो आपके हाथ कुछ नहीं लगने वाला। ख़ास करके पलटन जैसी फिल्म को देखकर तो यही कहा जा सकता है इसके बाद भी अगर आप यह फिल्म देखने सिनेमा घर जाते हैं या वहाँ का रुख करते हैं तो मैं कह दूँ कि आप अपनी रिस्क पर जाएं।
पलटन फिल्म में लगभग सभी कलाकार स्वाभाविक तरीके से अदाकारी करने का प्रयास तो करते हैं किन्तु इसी प्रयास में कोई उन्नीस है तो कोई इक्कीस। सोनू सूद, गुरमीत चौधरी, हर्षवर्धन राणे, दीपिका कक्कर के अलावा कोई अदायगी से प्रभावित नहीं कर पाता। अर्जुन रामपाल और जैकी श्रॉफ जैसे लोग भी निराश करते हैं। गीत संगीत के मामले में बात करें तो कुल मिलाकर तीन गाने हैं और तीनों ही फिल्म में इसलिए डाले हुए लगते हैं कि बस सिनेमाघर में बैठे दर्शक बोर न हो और एक गाना ‘यादें लेके आई हैं सबको यहाँ’ के माध्यम से कम से कम देशभक्ति जरुर थोड़े देर के लिए जागती है। जिसे देखकर ही बॉर्डर जैसी फिल्म कुछ देर के लिए ही सही जहन में आती है। इसके अलावा कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे देखकर आपकी मुठ्ठियाँ भींचने लगे और हाथों को ऊपर उठाकर आप भारत माता के जय के नारे लगा सकें। परन्तु एक बार के लिए फिल्म खत्म होते होते जरुर आँखें नम होती हैं जब वीरों, शहीदों को उनके घर जाकर उन्हें पहुंचाया जाता है एक लोटे में राख के रूप में और कुल मिलाकर यही फिल्म का सार आपको जरुर आपको थोड़ी देर के लिए सुकून दे सकता है। जब शहीद सैनिकों को एक मिट्टी के लोटे में राख के रूप में घर वालों को पकड़ाया जाए तो उसका दुःख आप जरुर देख सकते हैं लेकिन भरपूर मात्रा में नहीं। ऐसे न जाने कितने बेटे, चाचा, ताऊ, पिता, भाई ने इस देश की अक्षुण्णता को बनाए रखने के लिए बलिदान दिया है उन्हें ऐसे ही भुलाया तो नहीं जा सकता लेकिन चाइनीज के साथ मिलकर चाइनीज चूं चां के डायलॉग, हिंदी चीनी भाई भाई जैसे संवाद जरुर पहली बार किसी फिल्म में देखने को मिलेंगे। वैसे देशभक्ति की फ़िल्में मनोरंजन के लिए नहीं होती माना लेकिन देशभक्ति के नाम पर अभी और कितनाचूर्ण चटाया जाना शेष है यह तो फिल्मकार, फिल्ममेकर ही जाने।
रेटिंग- 2.5 स्टार
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फिल्म – सत्यमेव जयते
निर्देशक- मिलाप मिलन ज़वेरी
कलाकार- जॉन अब्राहम, आयशा शर्मा, मनोज बाजपेई, अमृता खानविलकर, नूरा फातेही
निर्माता- भूषण कुमार, निखिल आडवाणी
फिल्म में एक ईमानदार बाप है और उसके दो बेटे यह भी पता चलता है फिल्म के दूसरे हाफ में। जानबूझ कर इस तरह का सीन डालने से ही पूरी फिल्म की मानसिकता समझ आ जानी चाहिए नहीं आई? भाई इसके अलावा फिल्म में बहुत कुछ है मसलन हिन्दू-मुस्लिम धर्म, शिव तांडव स्त्रोत बैकग्राउंड में तो कभी कभी कभी मुख्य रूप में वहीं दूसरी और मुस्लिम दर्शकों को खुश करने के लिए अजान है मातम बनाने के लिए मुहर्रम भी साथ ही एक्शन का ओवर डोज है ही। दरअसल हमारे देश में फिल्म की दुनिया भी राजनीति से प्रभावित हुए बिना नहीं रही रहती और इसी का भरपूर फायदा उठाया है निर्देशक मिलाप मिलन जवेरी ने। किन्तु फिल्म सिर्फ एक्शन या धर्म के भरोसे ही नहीं चलती शायद यह बात निर्देशक भूल गए हैं। फिल्म में नोट जलाने वाला सीन भी है जबकि निर्देशक को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह कानून अपराध है देशभक्ति की आड़ में आप देश की करंसी को नहीं जला सकते। दरअसल कमी उनकी भी नहीं है वो बात क्या है कि हमारे देश में मसाला फिल्मों और देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मों को लोग कुछ ज्यादा ही पसंद करते हैं किन्तु इस बार सत्यमेव जयते के मसाले थोड़े फिट नहीं है। हालांकि थोड़े से लंबे समय के बाद एक संपूर्ण मसाला फिल्म के रूप में जरुर दर्शकों के सामने आई है सत्यमेव जयते। एक्शन के लिए मशहूर जॉन अब्राहम हैं ने इस बार भी एक्शन बेहतरीन तरीके से निभाए हैं एक आध जगह को छोड़ दें तो और अभिनय के लिए तो मनोज बाजपेई हैं हीं। वहीं आँखों को सुकून देने के लिए जो आइटम सॉंग रखा गया है उसमें नूरा फतेही अदाओं से जरुर थोड़ा खींचती हैं लेकिन अगले ही पल वह तिलस्म और जादू भी उनके हाथ से फिसलता नजर आता है। इन सबके अलावा कहानी है वही घिसी पिटी हो चुकी भ्रष्टाचार की फिल्म के शुरुआती क्षण देखकर लगता है जैसे आगे भी फिल्म दमदार होने वाली है लेकिन सिनेमा हाल से बाहर आने के बाद दर्शक खुद को ठगा सा महसूस करता है।
फिल्म की कहानी यूँ है कि एक हीरो है, जो अपराध को खत्म करना चाहता है किन्तु वह अपने बाप की तरह ईमानदार पुलिस ऑफिसर है और दूसरा हीरो जो अपराध मुक्त मुम्बई बनाना चाहता है दरअसल एक कलाकार होने के साथ साथ अपराधी भी है। फ़िल्म में यही अंतर्द्वंद है जिनसे शायद निर्देशक भी जूझता रहा होगा और फाइनली इस फिल्म को बना डाला होगा। कई बार हमारे जीवन के अंतर्द्वद दूसरों के लिए घातक भी सिद्ध हो सकते हैं।
अभिनय की बात करें तो मनोज बाजपेई हमेशा की तरह अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं वहीं जॉन अब्राहम शिवांश यानी मनोज बाजपेई के छोटे भाई वीर के रूप में एक्शन से दर्शकों को रोमाचिंत करते हैं और एक आध जगह ताली बजाने का भी मौका देते हैं अपने फैन्स को। कुलमिलाकर इस फिल्म में एक्शन है, अभिनय है, रोमांच है, हल्का फुल्का रोमांस भी है, और आइटम नंबर के साथ साथ देशभक्ति, ईमानदारी का जज़्बा भी तो दूसरी ओर फिल्म के शुरुआत में वर्तमान सरकार की तारीफ़ में कसीदे गढ़ने वाले संवाद भी। स्वच्छ भारत अभियान से शुरू होकर भ्रष्टाचार मुक्त भारत की गलियों से गुजरते हुए यह फिल्म देशभक्ति के हर रंग को लगभग प्रस्तुत करती है। साथ ही इसके नाम पर जमकर मार-काट मचाते हुए यह खुद कई मौकों पर यह भी भूल जाती है कि असल में इसे जाना कहाँ है।
लगता है निर्देशक मिलाप मिलन झवेरी ने ‘जंजीर’, ‘मस्ती’, ‘ग्रैंड मस्ती’, ‘एक विलेन’,‘गब्बर इज बैक’ तक हर एक्शन फिल्म को निचोड़ कर जो मसला हाथ लगा उससे ‘सत्यमेव जयते’ तैयार की है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म का साथ देता है और फिल्म की स्क्रिप्ट कमजोर होने के बाद भी एक्शन के तले इतना दब जाती है कि मज़ा खराब नहीं होने देती। इस फिल्म के साथ डेब्यू कर रही आयशा शर्मा का किरदार और अभिनय दोनों औसत हैं।
रेटिंग- 2.5 स्टार
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फिल्म – गोल्ड
कास्ट : अक्षय कुमार, मौनी रॉय, कुणाल कपूर, अमित साध
डायरेक्टर : रीमा कागती
संगीत: सचिन जिगर, अर्को प्रवो मुखर्जी, तनिष्क बागची
शैली : बायोपिक, स्पोर्टस
फिल्म की शुरुआत होती है साल 1936 के ओलम्पिक से जहाँ भारत अंग्रेजों के अधीन है और उनके लिए हॉकी खेलता है। ब्रिटिश इंडिया की ओर से खेलने वाली इस टीम ने लगातार तीन गोल्ड मैडल जीतकर इतिहास रचा है किन्तु उसके बाद अचानक प्रथम विश्वयुद्ध और कई अन्य घटनाएँ ओलम्पिक के लिए ग्रहण बनकर आती हैं नतीजन 10 साल तक ओलम्पिक बंद रहते हैं। इस बीच कई अन्य घटनाएँ भी समानांतर चलती रहती हैं। फिर आता है साल 1948 इसमें भारतीय टीम ओलिंपिक खेलों में सिर्फ़ जीतने के लिए नहीं खेलती बल्कि वो खेलती है 200 साल की ब्रिटिश हुकूमत का बदला लेने की खातिर। इस बदले को पूरा करने का बेहतरीन अवसर उन्हें मिलता है लंदन में जहाँ उन्हीं के घर में अंग्रेजों को मात दे भारतीय टीम पहली बार आजाद भारत की ओर से गोल्ड जीतती है और फिर जैसा कि सब जानते हैं एक के बाद एक आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदक हमारे नाम होते हैं। अच्छी कहानी है प्रेरणादायक भी है तो लाजमी है इसे भुनाना और वो भी ऐसे समय में जब सरकार राष्ट्रवादी है उसकी ताल में ताल मिलाता हर भारतवासी अपने आप में राष्ट्रवादी है लेकिन जनाब इस राष्ट्रवाद के चक्कर में आप आम जनता को क्यों ठेंगा दिखाते हैं । इतिहास के बनते बिगड़ते मोड़ की यह कहानी जब पर्दे पर उतरती है तो सिवाए कड़वे घूंट के कुछ नहीं हाथ आने देती।
तलाश जैसी बेहतरीन फिल्मों का निर्देशन कर चुकी रीमा कागती के हाथ से इस फिल्म में थोड़ा रेत फिसलती है जिसका कारण भी स्पष्ट नजर आता है, वह कारण है देशभक्ति। लेकिन इससे बढ़कर जो फिल्म में सकारात्मक है वह यह की यह फिल्म चक दे इंडिया जैसी फिल्मों की याद बहुत ही कम समय के लिए दिलाती है यह उनके निर्देशन का कमाल ही कहा जा सकता है। फिल्म की शुरुआत के कुछ सीन और अंत के कुछ मैदान के सीन को छोड़ दिया जाए तो मौनी राय के संवादों और अदायगी के आलावा इस फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे प्रभावित हुआ जाए। एक बात जरुर है भारत बनाम ब्रिटेन और वो भी उनके ही घर में ऐसे वक्त में जब इंसान देशभक्ति के नाम पर मरने मारने को उतारू है, खून कब उबाल मारने लगे कहा नहीं जा सकता। फिल्म में थ्रिल और रोमांस के साथ साथ हल्के फुल्के हँसाने वाले सीन जरुर हैं।
तपन दास (अक्षय कुमार) जो अपने अंदर एक साथ कभी हाँ और कभी ना जैसी स्थिति को लिए घूमते रहते हैं। इसी वजह से उन्हें ‘पागल बंगाली’ भी कहा गया है किन्तु एक टीम मैनेजर की तरह उनमें कमाल की तकनीक और अनुभवशीलता दिखाई देती है जिस वजह से उन्हें एक बार फिर लंदन के ओलम्पिक के लिए बुलाया जाता है इस सीन को देख अक्षय के फैन्स तालियाँ और सीटियाँ भी बजाते हैं। तपन के अलावा फिल्म में कई प्रभावशाली चेहरे और अभिनेता हैं मसलन रघुबीर प्रताप सिंह के रूप में अमित साध, हिम्मत सिंह के रूप में सनी कौशल और इन सबसे बढ़कर बॉलीवुड में डेब्यू कर रही मौनी रॉय। मौनी रॉय एक परफेक्ट और भारतीय पत्नी के रूप में फिल्म में नजर आती है। कारण उन पर बंगाली जंचती है और सहजता से अपने संवाद अदायगी और अभिनय विभाग को सम्भालती है। इसके अलावा उनके हिस्से में ज्यादा बेहतरीन संवाद आए हैं मसलन उनका एक डायलोग खूब भालो सोपना, लेकिन तुम्हारे जैसे सपने देखने वाला गटर में पड़ा है। मौनी रॉय इससे पहले मोहित रैना के साथ ‘देवों के देव महादेव’ धारावाहिक में भी खूब प्रसिद्धि पा चुकी हैं।
जबकि अभिनय के मामले में उनके सहयोगी अक्षय कुमार ‘पैडमैन’ और ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ के मुकाबले इस फिल्म में 19 ही ठहरते हैं। फिल्म की लोकेशन अच्छी है किन्तु सत्यमेव जयते जहाँ A सर्टिफिकेट के साथ रिलीज हुई है वहीं यह U/A सर्टिफिकेट के साथ। बहुत कम फ़िल्में A सर्टिफिकेट के साथ सेंसर बोर्ड से पास की जाती हैं । अक्षय कुमार की हालिया रिलीज को देखकर लगता है उन्हें अब पद्म भूषण दे ही दिया जाना चाहिए। वे इस दौर में मनोज कुमार की तरह देशभक्ति से ओतप्रोत फ़िल्में जो लेकर आ रहे हैं। संवाद और बैकग्राउंड स्कोर कमाल का है। सिनेमेटोग्राफी भी कुलमिलाकर बढ़िया है। लेकिन फिल्म की लेंथ थोड़ी छोटी की जाती तो फिल्म और बेहतर बन सकती थी। फ़िल्म के एक आध गाने को छोड़ बाकि के जबरदस्ती घुसाए हुए से लगते है। ‘नैनो ने बांधी’ गाना जरुर सुनने कर्णप्रिय लगता है लेकिन ‘घर लाएंगे गोल्ड’ और ‘खेल खेल में” गाने औसत हैं। सचिन जिगर का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मूड के साथ चलता रहता है वहीं सत्यमेव जयते के मुकाबले गोल्ड का वीएफएक्स काफ़ी खराब रहा। कुल मिलाकर गोल्ड मनोरंजन का आधा अधूरा और अभिनय के तड़के के साथ आधा अधूरा मनोरंजन कर पाती है। कारण फिल्म के फ़र्स्ट हाफ़ में इम्तियाज़ वाला विभाजन का सीक्वंस है और इंटरवल के बाद, गूंगे पुजारी वाला सीन शानदार है जो फ़िल्म में जबरदस्त हँसी लेकर आता है।
रेटिंग- 2.5 स्टार