राजस्थान कला एवं संस्कृति मंत्रालय के चलते जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में हर साल कुछ ऊर्जावान युवा निर्देशकों को ग्रांट दी जाती है। इस ग्रांट के तहत ही तीन नाटक इस साल चयनित हुए। पहला नाटक इस योजना के अंतर्गत था ‘ गोरधन के जूते’ जिसे आपातकाल के चलते बीच में छोड़कर दुखी मन से आना पड़ा। अगले दिन के नाटक ‘ लठ्ठा चाशनी’ को देखने की अनुमति इंद्र देव ने नहीं दी।
लिहाजा आज मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखित चर्चित कहानी ‘कठपुतलियां’ का नाट्य रूपांतरण देखा। युवा नाट्य निर्देशक अनुराग सिंह राठौड़ निर्देशित इस नाटक में उनकी रचनात्मकता, कर्मशीलता और रंगमंचीय विधान भरपूर नजर आया।
यह नाटक मनुष्य के भीतर की चेतना और उसकी आंतरिक जागृति की बारे में बात करते हुए प्रेम की गहराई के रास्ते चलता हुआ उसकी शुद्धता को टटोलता है। दैहिक कामनाओं के पाश में बंधा इंसान किस कदर दृष्टिहीन होकर उनकी पूर्ति की ओर बढ़ते हुए कठपुतली बनकर रह जाता है। यह नाटक उसी की बानगी है।
स्त्री-पुरुष संबंधों की प्राकृतिकता के तत्वों से उपजा तमाम संवेदनाओं के सहारे तलाश करता है उनकी सांस्कृतिक, पारिवारिक चेतना को। एक स्त्री के मातृभाव की नैसर्गिक मौजूदगी तो दूसरी ओर भूमंडलीकरण के पश्चात बदलती तथाकथित मानसिक विचारों की क्षीणता को भी पुनर्व्याख्यायित करता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में आत्मकेंद्रित व भौतिक परिवेश तथा उनकी जरूरतों को भी यह नाटक रेखांकित करता है।
निर्देशक अनुराग सिंह राठौड़ ने जिस तरह राजस्थान की मेवाड़ी बोली को इस्तेमाल करते हुए इस कहानी को नाटक के रूप में कहा वह दर्शनीय होने के साथ ही दार्शनिक अंदाज भी बयां कर गया। इंसान का मन उसे इधर-उधर दौड़ाता है। लेकिन जब वह संयम के साथ विचार करता है तो प्रेम और मोह के अंतर को समझ पाता है। नाटक की नायिका अपने ही कथित प्रेम के लावण्य में जिस तरह उलझी रहती है और अंततः वो चेतन होकर यह समझ पाती है कि स्त्री केवल मोहपाश में बंधी हुई कोई भौतिक वस्तु ना होकर के एक सृजनकर्ता व ममत्व से भरी हुई मां है।
ये कहानी है कठपुतली कलाकार रामकिशन और सुगना की। रामकिशन जिसकी बीवी एक बच्चे को जन्म देने के कुछ समय बाद सांप के डस लेने से मर गई। सरल स्वभाव का रामकिशन खुद बच्चे को पालता है और उसे अपने साथ लेकर गांव-गांव जाकर कठपुतली का खेल दिखाता है। अब उसका दूसरा विवाह हुआ भी तो एक ऐसी लड़की सुगना से जो पहले से जग्गू के प्रेम में पागल मोरनी की तरह डोलती है। जग्गू उसे सब्जबाग दिखाता है और जीप खरीदने के बाद शादी करने की बात कहता है। सुगना के परिजन उसका विवाह रामकिशन से कर देते है। सुगना जग्गू को भुला नहीं पाती है और उसका मन बार- बार उसे बीते दिनों में ले जाता है। रामकिशन सुगना की हर भावना की कदर करता है। अंततः सुगना को रामकिशन की नेकदिली का एहसास होता है और वह खुशी-खुशी अपनी गृहस्थी बसाती है। नाटक में कई बार मुखौटे लगाकर पात्रों को कठपुतली की तरह दिखाया गया है जो दर्शकों को बड़ा आकर्षित करता है।
इसी बीच कई सारे लोकगीत और कठपुतलियों के सहारे जब यह नाटक इंसान के स्वयं के शरीर के कठपुतली हो जाने की कहानी कहता है तो दर्शकों का अंतर्मन भीग उठता है।
नाटक में नारायण सिंह चौहान, रामकिशन की भूमिका में हर भाव बखूबी अपने चेहरे पर लाने का प्रयास करते हैं। किंतु जब भी रोने का सीन हो तो उनका रोना बहुत सी जगहों पर आपको रुलाता नहीं, जब वह मामा (कुलदीप मेड़तिया) के गले लगकर रोता है तब जरूर दर्शक उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए साधारणीकरण की अवस्था को प्राप्त होता है। शिवांगी बैरवा सुगना के किरदार में खूब जंचती हैं। तो वहीं साथी महावीर सैन, प्रभु प्रजापत, विभूति नारायण चौधरी, अंकित शाह, विकास जैन, दुष्यंत हरित व्यास, आराधना शर्मा, गरिमा पंचोली, रेखा जैन, कोमल पारीक, दिव्या ओबेरॉय, राहुल रांका, दिनेश चौधरी आदि कलाकार समां बांध देते हैं।
कठपुतलियों का सीन करीने से सजाया गया था। तभी ये ‘कठपुतलियां’ पति-पत्नी के जीवन में उत्पन्न होने वाले सुःख-दुःख, संत्रास तथा पीड़ा का चित्रण भी बखूबी कर पाते हैं। दहेज के कारण गरीब माँ-बाप अपनी बेटी का ब्याह अक्सर उनकी इच्छा के बिना ही कर देते है, तेरह वर्षीय सुगना का विवाह तीस वर्षीय विधुर कठपुतली वाले रामकिशन के साथ जब होता है तो बेमेल विवाह के कारण सुगना की इच्छाओं का अंत हो जाता है और वह अपनी तुलना उस कठपुतली से करती है जिसके जीवन के संचालन की डोर किसी और के हाथ में रहती है। सुगना पति की हर इच्छा पूरी करने की कोशिश में अपनी सभी इच्छाएँ अपने तक ही सीमित रखती है। यहां मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानी में सुगना के पति के साथ होने की अवस्था के बारे में लिखती है-
रात किस मुहाने पर जाकर उफ़न पड़ी थी वह कि रामकिसन कुंठित हो गया-पहले देह जब शांत नदी-सी पड़ी रहती थी तो वह मिलों तैर जाता था। अब जब वह नैसर्गिक आकांक्षाओं से भरपूर नदी में बदल जाती है और इन्ही आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु प्रसन्न- प्रच्छन्न क्षमताओं से परिपूर्ण हो कर बहती है-प्रबल-प्रगल्भ, तो रामकिसन के लिए मुश्किल हो जाता है इस उफनती नदी की बाँहों में भरकर तैरना। उसने खुद को काठ कर लिया। अब रामकिसन चाहे जैसे नचाए। वह जब तृप्ति कीडकार लेता…. तो वह जूठन के इधर-उधर गिरे टुकड़े समेट-भूखी ही उठ जाती।
कुल मिलाकर मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘कठपुतलियां’ के नाट्य रूपांतरण ने दिल भिगो डाला।अनुराग सिंह राठौड़ ने इस कहानी का नाट्य रूपांतरण बेहतरीन तरीके से प्रदर्शित किया। रंगमचीय तमाम विधानों, लाइट, गीत-संगीत, कलाकारों के हावभावों और उनके मेकअप के साथ अनुराग सिंह राठौड़ की निर्देशकीय दृष्टि बहुत सुदृढ़ आधार पाती है। राजस्थान वालों को खुशी होनी चाहिए की अनुराग सिंह राठौड़ जैसे युवा निर्देशक आज भी रंगमंच की बागडोर संभालते हुए उसे दर्शनीय बनाए रखे हुए हैं।