1.
ख़िज़ाँ ने की है यारी शूल से आहिस्ता-आहिस्ता
है गुलशन मिल के रोया फूल से आहिस्ता-आहिस्ता
अभी ईमान से रोटी बहुत मुश्किल से मिलती है
तभी फिसला वो अपने मूल से आहिस्ता-आहिस्ता
ज़मीं की अहमियत से जब हुआ वो रू-ब-रू, तब ही
हुई है दोस्ती फिर धूल से आहिस्ता-आहिस्ता
मैं उसकी कामयाबी को लिखूँ पूरे यक़ीं से अब
लगा है सीखने वो भूल से आहिस्ता-आहिस्ता
हवा ये है सदी की या मेरा नाकाम होना है
सभी अब हो रहे मशग़ूल से आहिस्ता-आहिस्ता
कि’ जिस दिन से है आया ब्याज गोदी में, उसी दिन से
हटा है ध्यान थोड़ा मूल से आहिस्ता-आहिस्ता
बुरी बातों को भूलो तुम, लगाना दिल से मत “बादल”
बिगड़ती बात केवल तूल से आहिस्ता-आहिस्ता
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2.
झूठ का अवगुण छिपा है, बँट रहे सम्मान में
और सच का गुण हमेशा ही दिखा अपमान में
कथ्य में, बस कथ्य में है, पुस्तकों का रस छिपा
और तुम अटके पड़े हो आवरण, उन्वान में
‘बच्चे लंदन में सेटल हैं’, फ़ख़्र से कहते पिता
पर घिरे अंदर ही अंदर मोह के तूफ़ान में
इस बुढ़ापे में अकेले बैठकर वो सोचते
ख़ुशबुएँ तो उड़ गयीं, गुल सूखते गुलदान में
गाँव का है हाट छूटा, सिल की चटनी भी नहीं
खोजते हम स्वाद जाकर मॉल की दूकान में
इसकी तुलना क्यों भला उससे की जानी चाहिए
इसमें ख़ूबी है अलग और है अलग उपमान में
अब ज़ुबाँ में तेज़ खंजर और पत्थर दिल में है
मिल रहे हथियार “बादल” आज के इंसान में