जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
भारतीय वाङ्मय में राष्ट्र शब्द का प्रयोग वैदिक काल से ही होता आ रहा है। राष्ट्र एक जीवमान इकाई है। वर्षों, शताब्दियों व लम्बे कालखंड में इसका विकास हुआ है। मनुष्य की सहज सामुदायिक भावना ने इसको जन्म दिया जो कालांतर में राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ। इस प्रकार ‘राष्ट्र’ एक स्थायी सत्य है और राष्ट्रीयता एक विशिष्ट भावना। जब हम कहते हैं कि व्यक्ति के समान ‘राष्ट्र’ की भी अस्मिता होती है तो हमारे समक्ष भूमिखण्ड में निवास करने वाला मानव समुदाय उपस्थित होता है। अतः “राष्ट्र” की भूमि और भूमि के निवासी और इन निवासियों की संस्कृति से “राष्ट्र” का स्वरूप निर्मित होता है।
किसी भी देश की समृद्धता की पहचान में उसकी सांस्कृतिक विरासत का अत्यंत महत्व है और सांस्कृतिक विरासत बिना भाषा के अधूरी है क्योंकि भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए भारत में कई साहित्यकारों ने अपना अमूल्य योगदान दिया। विश्व बंधुत्व बढ़ाने के लिए भारतीय संस्कृति की महत्ता को दुनिया के सामने रखा। हमें अपनी प्राचीन संस्कृति के बारे में अपने साहित्य से ही पता चलता है शायद इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।
राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए भारत में कई साहित्यकारों ने अपना अमूल्य योगदान दिया। विश्व बंधुत्व बढ़ाने के लिए भारतीय संस्कृति की महत्ता को दुनिया के सामने रखा। अपनी कविता के माध्यम से भारत के गौरवपूर्ण इतिहास से लोगों को परिचित कराया। मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कृति “भारत भारती” के माध्यम से देश में राष्ट्रीयता की अलख जगाई और लोगों को आत्म सम्मान, साहस, बलिदान तथा संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
जंग-ए-आजादी में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका क्रांतिकारियों की थी, उतनी ही क्रांति लेखक और कवि अपनी रचनाओं से भी कर रहे थे। अंग्रेज जितना क्रांतिकारियों के हथियारों से डरते थे, महात्मा गांधी की अहिंसा से हिलते थे, उतना ही लेखकों-कवियों की राष्ट्रवादी रचनाओं से भी कांपते थे। इसलिए इन पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाते रहते थे। इसके बावजूद स्वाधीनता संग्राम के दौरान मैथिलीशरण गुप्त ने एक ऐसी रचना की, जिसने देश के गौरवशाली इतिहास का ज्ञान कराया तो आंदोलन का गीत बन गया। स्कूल-कॉलेजों से लेकर आंदोलन तक में यह गूंजने लगा। इस रचना को हम “भारत भारती” (1912) के नाम से जानते हैं, जिसने ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया था।
‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में गुप्तजी लिखते हैं : ‘हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जाये और हम वैसे ही पडे़ रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? क्या हमारे लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी नहीं जा सकती? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं?’
आजादी के लिए संघर्ष के दौर में आई ‘भारत भारती’ ने भारत देश के गौरवशाली इतिहास का बोध करवाया। यही कारण था कि प्रभातफेरियों, राष्ट्रीय आन्दोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में भारत भारती के पद गांवों-नगरों में गाये गये। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि यह काव्य वर्तमान हिंदी साहित्य में युगांतर उत्पन्न करने वाला है। इसमें यह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है। यह ग्रन्थ तीन भागों में बांटा गया है – अतीत खण्ड, वर्तमान खण्ड तथा भविष्यत् खण्ड।
‘अतीत खण्ड’ में गुप्त ने भारतवर्ष के अतीत की, उसके पूर्वजों, आदर्शो, सभ्यता, विद्या, बुद्धि, साहित्य, वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता, नीति, कला-कौशल, गीत-संगीत, काव्य इतिहास आदि के गौरव की गाथा गाई है। उन्होंने भारतीय अतीत की प्रशंसा करते हुए लिखा है- आये नहीं थे स्वप्न में भी, जो किसी के ध्यान में, / वे प्रश्न पहले हल हुए थे, एक हिन्दुस्तान में।
भारत भारती ने सबसे पहले तो देशवासियों को देश के गौरवशाली इतिहास से परिचित करवाया। फिर यह बच्चों के स्कूलों से लेकर बड़े आंदोलनों तक में गाया जाने लगा। इससे देशवासियों के मन में कौंधने लगा कि हम क्या थे और क्या हो गए?
वर्तमान खण्ड में गुप्त जी ने तत्कालीन भारत के नैतिक एवं बौद्धिक पतन का विस्तार से वर्णन किया है। इसका प्रारम्भ ही उन्होंने ‘जिस लेखनी ने है लिखा उत्कर्ष भारतवर्ष का/लिखने चली अब हाल वह उसके अमित अपकर्ष का’ लिखकर किया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस खण्ड में तत्कालीन भारत की समस्याओं व अपकर्ष की परिस्थितियों का वर्णन किया है।
वर्तमान खण्ड में वर्णित भारत आज के भारत की तुलना में सर्वथा भिन्न था। उस समय देश पर अंग्रेजों का आधिपत्य था और उसके द्वारा भारतीय उद्योगों धंधों को अपने लाभ के लिए समाप्त करना, भारत का धन विदेशों को भेजना और अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल कौड़ियों के भाव खरीदकर, वहां तैयार माल को यहां खपा कर अत्यधिक लाभ कमाना उद्देश्य था। इसलिए हिन्दुओं का मनोबल टूट चुका था, उनकी जीवन शक्ति लुप्तप्राय हो गईं थी। धार्मिक दृष्टि से भी यह समय सर्वथा अनुकूल न रह गया था। लोग मनमाने ढंग से धर्म की व्याख्या कर रहे थे। यहां अनेक पंथ अस्तित्व में आ गये थे जिसके कारण अकर्मण्यता फैली हुई थी। मुट्ठी अन्न के लिए घर घर जा कर भीख मांगते हैं। लोग भूख से व्याकुल होकर अपना धर्म परिवर्तन कर विदेशों में जा कर बस रहे हैं।
भविष्यत खण्ड में उन्होंने भारतवासियों से जागृत हो जाने का आह्वाहन किया है। है कार्य ऐसा कौन सा, साधे न जिसको एकता के द्वारा उन्होंने एकता में बल की भावना का प्रसार किया। वह देश को जगाते हुए कहते हैं— अब और कब तक इस तरह, सोते रहोगे मृत पड़े और साथ ही ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो, जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो कहकर जातीय अस्मिता व गौरव के प्रति युवाओं को आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया है और सुप्तावस्था में पडे़ देशवासियों को जागृत करने के साथ ही कवियों को ‘करते रहोगे पिष्ट-पेषण और कब तक कविवरों’ कहकर सचेत किया है और उन्हें उनका कवि-कर्म स्मरण कराते हुए लिखा है— केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
भारत-भारती के माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र की स्थिति का चित्रण किया है। जिसमें प्रत्येक वर्ग के स्त्री पुरुष का चिंतन जुड़ा हुआ है और कवि चाहता है कि राष्ट्र की तरक्की के लिए सभी को एक होना होगा तभी कहीं जाकर राष्ट्र में एकता और अखंडता की अलख जगाकर हम आगे बढ़ सकते हैं।
उनकी भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति भारत-भारती भारत के स्वतंत्रता संग्राम को असरकारक और देशभक्ति की भावना भरने में कामयाब हुई थी। उनकी यही कृति उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। गुप्त जी ने भारत-भारती कविता के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन में जबरदस्त हुंकार भरी। जब देश में आजादी का आंदोलन अपने उफान पर था तब गुप्तजी की कविताएं आजादी के मतवालों के दिलों में जोश और उत्साह भरती थी।
‘भारत-भारती’ स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, ‘पहले-पहल हिंदी प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली पुस्तक भी यही है।’ राष्ट्र के विकास में उनका रचनाधर्म मील का पत्थर बना। उनके शब्दों ने ही उन्हें ऊंचा उठाया, इसीलिए सारा देश द्विवेदी युग के इस यशश्वी रचनाकार को श्रेष्ठ और महान कवि मानता है।
1954 में पद्म भूषण सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित मैथिलीशरण गुप्त ने प्रारम्भ में सरस्वती जैसी पत्रिकाओं में कविताएं लिखीं। उनकी 40 मौलिक तथा 6 अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हुई। इनकी पहली प्रमुख कृति रंग में भंग 1910 में प्रकाशित हुई थी। इनकी प्रमुख काव्यगत कृतियां हैं रंग में भंग, भारत-भारती, जयद्रथ वध, बिकट भट, प्लासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा, अर्जुन-विसर्जन, काबा और कर्बला, जय भारत, द्वापर, नहुष, बैतालिक, कुणाल। उन्होंने ये सब उस समय किया जिस समय ज्यादातर हिंदी कवि ब्रज भाषा का उपयोग उपभाषा के रूप में करते थे। उन्होंने खड़ी बोली को पहचान दी।
इनकी कृति भारत भारती सन् 1912 में प्रकाशित हुई थी, जो एक राष्ट्रवादी कविता है, जिसमें भारतीय इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की महिमाओं का बखान किया गया है। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। लेकिन ‘भारत-भारती’ उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। अपने साहस, हिम्मत ताकत और संघर्ष के बल पर जीवन में यश सफलता अर्जित करने वाले वे एक सर्वप्रिय कवि थे। यशोधरा में प्रकाशित उनकी कविता की दो लाइन स्त्री-जीवन का सर व्यक्त करती है – अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी! / आंचल में ही दूध और आंखों में पानी !
03 अगस्त सन् 1886 में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में जन्मे मैथलीशरण गुप्त ने 78 वर्ष को आयु में दो महाकाव्य, 19 खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। 1952-1964 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् 1962 ई. में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी. लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक काल के सर्वाधिक प्रभावशाली और लोकप्रिय रचनाकार थे जिन्हें स्वयं महात्मा गांधी ने राष्ट्रकवि की उपाधि दी थी।
उन्होंने न केवल भारत के जन-मन में राष्ट्रीय चेतना का जागरण कर उसे स्वाधीनता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया, बल्कि स्वयं भी आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर जेल गये। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे।
महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व गुप्तजी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। लेकिन बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। गुप्त जी ने कविता के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन में जबरदस्त हुंकार भरी। 12 दिसंबर,1964 को हिंदी साहित्य ने अपने सबसे महान लेखक खो दिया।
आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ -आज भारत की ज्ञान-संपदा नई तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है।
लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिए निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा।
उन्होंने शब्द शिल्पी का ही नहीं, बल्कि साहित्यकार कहलाने का गौरव प्राप्त किया है, जिनके शब्द आज भी मानवजाति के हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। बलदेव ने ठीक ही कहा है:- “उनमें कालिदास जैसी विशालता, तुलसीदास जैसी समन्वयवादी दृष्टि, विवेकानंद जैसी निर्भीकता, रवींद्र जैसी संगीतात्मकता, प्रेमचंद जैसी यथार्थोन्मुखी आदर्शवादिता है। उन्होंने पराधीन भारत की जड़ता को अपनी ओजस्वी वाणी से तोड़ने का प्रयत्न किया। “यदि रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्व कवि हैं, तो गुप्तजी भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनिधि कवि हैं।”