भारतीय साहित्य के अग्रणी कवियों में बिहारी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनके काव्य में संयोग और वियोग के मर्मस्पर्शी भाव मिलते हैं। रीतिकालीन कवियों में बिहारी की गणना प्रतिनिधि कवि के तौर पर की जाती है। साहित्य के पाठकों तथा रसिकों में बिहारी के रचित दोहे जितने लोकप्रिय हैं उतने ही प्रसिद्ध खरे खरे नीतिगत दोहे भी हैं। उनके काव्य की प्रशंसा में प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मसिंह शर्मा ने लिखा कि “बिहारी के दोहों का अर्थ गंगा की विशाल जलधारा की भांति है, जो शिव की जटाओं में तो समा गई थीं लेकिन उसके बाहर निकलते ही इतनी असीम और विस्तृत हो गयीं कि लंबी चौड़ी धरती में भी सीमित न रह सकीं। उनका काव्य, रस का सागर है, कल्पना का इंद्रधनुष हैं “बिहारी की एकमात्र रचना “ सतसई “ है। इसमें उनके 719 दोहे संकलित हैं। इसमें ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। उस समय ब्रजभाषा ही सर्वमान्य और ग्राह्य काव्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। वस्तुतः वह कृष्णोपासक थे। कवि की प्रसिद्धि उसके द्वारा लिखित ग्रंथों के परिमाण पर नहीं बल्कि उसके गुणों पर निर्भर करती है बिहारी के साथ भी यही है। “सतसई” ग्रंथ ने उन्हें साहित्य का अमर रचनाकार बनाया। शृंगार रस के ग्रंथों में “बिहारी सतसई” के समान लोकप्रियता किसी को नहीं मिली। उदाहरण के लिये उनके इस दोहे को पढ़ें- मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई / जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित-दुति होई।।
यह दोहा आज भी लोकप्रिय है इसका भावार्थ है कि हे! राधा जी, मेरे सांसारिक दुखों को दूर करें आपकी पीली आभा वाले शरीर की परछाई से श्याम वर्ण के श्रीकृष्ण हरित वर्ण वाले हो जाते हैं( हरे रंग का अर्थ खुश होने से किया गया है)। कवि कहते हैं कि आपके प्रभाव से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तो मेरे भी सारे कष्टों को दूर कीजिये। इस दोहे में उनके चित्रकला का ज्ञान भी प्रकट होता है। नील और पीत वर्ण मिल कर हरा रंग समान हो जाता है। यह राधा की वंदना है। बिहारी ने भक्ति और नीति संबंधी अनेक दोहों की रचना की राधा कृष्ण की स्तुति में अनेक दोहे लिखे। भगवान कृष्ण की आराधना पर आधारित दोहों में उनके प्रति दास्य, सख्य और प्रभु भाव व्यक्त किये। श्रृंगार वर्णन में प्रकृति के विविध सुंदर रूपों को चित्रित किया उनके दोहों में सरलता, अनुपम आकर्षण उत्पन्न करने की आश्चर्यचकित वर्णन शक्ति है। नीति संबंधी सूक्तियों का प्रयोग भी किया स्वर्ण का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि धतूरे को खा कर लोग पागल हो जाते हे लेकिन स्वर्ण को पा कर भी लोग पागल हो जाते हैं – कनक- कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाय / इहि खाए बौराय जग, बहि पाए बौराय।।
बिहारी की शिक्षा दीक्षा ओरछा में हुई। वहीं वे महात्मा नरहरि दास के शिष्य हो गये उनकी आस्था किसी वाद विशेष पर नहीं थी। कृष्ण के साथ राम और नरसिंह का यशोगान किया। कबीर के समान दिखावटी आडंबरों का विरोध किया। मंत्र पाठ, माला फेरने, छापा या तिलक से कोई भी उद्देश्य नहीं सध सकता जब मन कच्चा है, और वश में नहीं है तो यह सारा नाच दिखावा मात्र है क्योंकि राम तो सत्य से ही प्रसन्न होते हैं- जप माला छापा तिलक सरै न एको काम / मन कांचै नाचै वृथा सांचै रांचे राम॥
बिहारी श्रेष्ठ मुक्तककार हैं। मुक्तक कविता में जो गुण होने चाहिए, उनके दोहों में पाये जाते है। मुक्तक उस रचना को कहा जाता है जो अपने में अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हो। उन्हें ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, इतिहास-पुराण इत्यादि का गहन ज्ञान था। इन विषयों का उपयोग अपने दोहों में किया। उनके दोहों के बारे में उचित कहा गया कि “सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर / देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।।’.
शृंगार रस के ग्रंथों में “बिहारी सतसई“ के समान ख्याति किसी को नहीं मिली। कालांतर में यह कई कवियों के लिये प्रेरणा का बीज बना। महाकवि बिहारी का जन्म 1603 के लगभग ग्वालियर में हुआ। उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता और युवावस्था मथुरा में व्यतीत हुई। यह बात निम्न दोहे से सिद्ध होती है जनम ग्वालियर जानिये खंड बुंदेल बाल/ तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल।।
उनसे प्रचलित प्रसंग है कि जयपुर-नरेश राजा जयसिंह अपनी नयी रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते कि वे महल से बाहर भी नहीं निकलते और राजकाज की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। इससे उनके मंत्री और प्रजा बड़े परेशान रहते लेकिन राजा से कुछ कहने की शक्ति किसी में नहीं थी। बिहारी ने इस काम को अपने हाथ में लिया उन्होंने निम्न दोहे को लिख कर किसी तरह से राजा को पहुंचाया। नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल / अली कली सा बिंध्यों, आगे कौन हवाल।।
इस दोहे ने राजा पर जादू जैसा कार्य किया। वे रानी के मोह पाश से मुक्त हो पुनः अपना राजकाज संभालने लगे। इतना ही नहीं वे बिहारी की काव्य कुशलता से इतने खुश हुए कि बिहारी से इसी तरह से और दोहे लिखने को कहा और प्रति दोहे पर एक अशर्फी देने का वचन दिया। वे जयपुर नरेश के दरबार में रह काव्य रचना में लीन रहते। हावभाव और तजुर्बों का बडी बारीकी से चित्रण किया उन्होंने दोहा और सोरठा को अपनाया। लगभग सभी दोहों में हमेशा नये और सुंदर प्रसंगों की कल्पना करते हुए जन सामान्य के के प्रसंगों को उभारा। साहसी स्वभाव के कवि थे तभी कविता के माध्यम से राजा को विलास से निकाल कर कर्म क्षेत्र में वापस लाने की हिम्मत दिखायी।
भारतीय साहित्य में “बिहारी सतसई“ को एक महत्वपूर्ण कृति का स्थान प्राप्त है इसे इतनी ख्याति मिली कि इसके बाद सतसई रचना के लिये होड़ सी लग गयी जैसे “रस निधि सतसई“ “मतिराम सतसई“ “भूपति सतसई“ और “विकृम सतसई“ आदि। आधुनिक काल में भी सतसैयां लिखी गईं जैसे वियोगी हरि की “चीर सतसई“ सतसैयों में 700 या उससे कुछ अधिक छंद होते हैं। इनमें प्रमुख रूप से दोहा छंद का प्रयोग होता है। “बिहारी सतसई” का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ जैसे संस्कृत और उर्दू आदि में। बिहारी की भाषा में सूर की बृज भाषा का विकसित रूप मिलता है। सुंदर शब्द चयन के मामले में वे अधिक सजग रहे जिससे भावों की प्रधानता असरदार हुई। कविवर बिहारी का पूरा नाम बिहारी लाल था। श्रृंगार रस के कवियों में जितना मान सम्मान उन्हें प्राप्त है वह अजोड है। “बिहारी सतसई“ पर टीका लिखते हुए डॉ. अवध द्विवेदी ने लिखा कि “संभवतः विश्व साहित्य में ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलेंगे, जो गागर में सागर भरने की क्षमता के विचार से बिहारी की समता कर सकें“।
वास्तव में बिहारी उच्च्कोटि के काव्य शिल्पी थे जिन्होने अपनी रचनाओं से साहित्यिक इतिहास में शिखर को पाया। अपनी पत्नी के देहांत के बाद वैरागी हो वृंदावन में वास करने लगे। उनके कोई संतान नहीं थी। बताया जाता है कि जयपुर नरेश जयसिंह उनकी रचनाओं से इतने प्रभावित थे कि उनकी रचनाओं पर अशरफी देते तथा उन्हें चिंतन का वट वृक्ष मानते। उनके काव्य में प्रकट भाव तथा गुणों के कारण ही वह अविस्मरणीय हैं। 1663 में वे कीर्ति शेष हुए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके दोहों के संबंध में लिखा कि “बिहारी का प्रत्येक दोहा रस की पिचकारियां हैं। वे एक ऐसी मीठी रोटी हैं जिसको जिधर से तोड़ा जाए, उधर से ही मीठी लगती है“ यही कारण है कि महाकवि बिहारी कालजयी हैं।