मानव जीवन का एक अकाट्य सत्य यह भी है कि किसी भी राष्ट्र का, समाज का और स्वयं मानव का भी निर्माण एक माता के गर्भ में ही होता है और यह भी एक माता पर ही निर्भर करता है कि उसे किस तरह की संतान को उत्पन्न करके उसे समाज के अर्पित करना है। परन्तु आज जिस तरह के मानव का निर्माण समाज में हो रहा है, उसको देख कर तो लगता है कि आज की माताओं को उनके कर्तव्य का ही बोध नहीं रहा। माँ तो कभी ऐसी नहीं होती, जो जान बूझ कर अपनी संतानों को अन्धकार में धकेल दे, वह तो ममता की मूरत होती है। आज जो कुछ भी अनहोनी समाज में हो रही है उसका कारण एक मात्र अज्ञान और अज्ञान ही है।
महिला दिवस के अवसर पर एक माँ की सच्ची कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ जो भारतीय इतिहास में कहीं दबी पड़ी लुप्त प्राय ही थी। एक ऐसी माँ की कहानी जिसने अपनी संतानों को अपनी मीठी मीठी लोरियां सुना सुना कर ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसने ब्रह्मज्ञान का उपदेश लोरियों के रूप में अपनी संतानों को दिया और जैसा चाहा अपनी संतान को बना दिया। वह माँ थी माँ मदालसा।
प्राचीन काल में गन्धर्वलोक में विश्वावसु नाम के राजा राज करते थे। उनकी एक सुन्दर कन्या थीं। उसका नाम मदालसा था। उन दिनों पृथ्वी पर पातालकेतु नाम का एक बड़ा पराक्रमी दानव रहता था। पातालकेतु दानवों का राजा था। उसने छल से मदालसा का अपहरण कर लिया और अपने पाताललोक में बने हुए किले में कैद कर दिया।
उन्हीं दिनों गालव नाम के एक बडे़ भारी तेजस्वी ऋषि महाराज शत्रुजित् के राज्य में तपस्या करते थे। उनकी तपस्या में भी पातालकेतु बड़ा ही विघ्न करता था। इससे ऋषि बड़े दुखी होते। एक दिन किसी दैव पुरुष ने ऋषि को एक घोड़ा देते हुए कहा-भगवन् आप इस घोडे़ को लीजिये, इसका नाम कुवलयाश्व है। यह आकाश- पाताल में सब जगह जा सकता है, इसे आप जाकर महाराज शत्रुजित् के राज कुमार ऋतुध्वज को दें। ऋतुध्वज इस पर चढ़कर पातालकेतु तथा अन्यान्य राक्षसों को मारेगा। इतना कहकर वह दैव पुरुष चला गया।
राजकुमार ऋतुध्वज घोड़े के रूप और गुणों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। और अपने पिता के आदेश अनुसार पतालकेतु के राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसे परास्त करके, मदालसा को कैद से छुड़ा कर लौट आया। अपने राज्य में लौट कर उन्होंने मदालसा से विवाह कर लिया। विवाह के कुछ ही दिनों बाद ऋतुध्वज के उपर दानवों ने पुनः आक्रमण कर दिया। यह युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा। युद्ध के समय शत्रुपक्ष जानबूझ कर तरह तरह की अफवाह फैला दिया करते हैं। उसमें से कौन सी खबर सही कौन सी झूठी इसका निर्णय करना मुश्किल हो जाता था। दानवों ने षडयंत्र करके ऐसी ही एक झूठी खबर को फैला दिया। वे लोग सब जगह यह कहते हुए घूमने लगे कि ऋतुध्वज युद्ध में मारे गये हैं। रानी मदालसा बहुत चिन्तित होकर राजभवन में समय काट रही थीं। यह समाचार उड़ते उड़ते उनके कानों तक भी पहुँच गया। अपने पति के शोक में वे अत्यधिक उद्विग्न रहने लगीं और अन्त में शोक नहीं सह सकने के कारण उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
इधर कुछ दिनों बाद दानवों को पराजित कर ऋतुध्वज राजधानी में लौट आते हैं। बड़ी आशा के साथ यह आनन्द-समाचार मदालसा को सुनाने जब वे राजभवन पहुँचे, तो मदालसा के इस प्रकार प्राण त्याग देने का समाचार सुनकर एकदम मूर्छित हो गये हैं। मदालसा को याद करके उनका हृदय शोकाकुल हो गया। युद्ध में विजय प्राप्ति से प्राप्त होने वाले आनन्द उल्हास के बदले राजधानी में विषाद की काली छाया उतर आई थी। पत्नी के शोक में आहार-निद्रा का त्याग दिया, और लगभग पागलों जैसी हालत उनकी हो गयी।
उनके पड़ोसी राज्य के राजा नागराज ऋतुध्वज के परम मित्र थे। राजा की अवस्था को देखकर वे बड़े चिन्तित हुए। अपने मित्र का दुःख दूर करने की इच्छा से नागराज हिमालय जाकर तपस्या में लीन हो गये। इस आशा से वे तपस्या में रत हुए कि यदि उनकी तपस्या से शिवजी प्रसन्न हो गये तो शायद वे कोई उपाय निकाल देंगे और उपाय भी निकल गया! भगवान शिव ने उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर उनको दर्शन दिए और उनकी कामना को पूर्ण कर दिया। शिवजी के वरदान से मदालसा अपना पहले जैसा ही रूप और यौवन को लेकर वापस लौट आई। नागराज उनको लेकर राज्य में लौटे और उनको ऋतुध्वज के हाथों में सौंप दिया। किसी मृत व्यक्ति के इस प्रकार पुनः लौट आने की बात तो कल्पना से भी परे है। किन्तु ऋतुध्वज के आनन्द की सीमा नहीं थी। नागराज के उद्योग से मृत्युंजय शिवजी की कृपा से ऋतुध्वज को मदालसा पुनः मिल गयी और ऋतुध्वज सुखपूर्वक रहने लगे।
मृत्यु के बाद दुबारा उसी शरीर में वापस लौट आने के कारण मदालसा के मन का अज्ञान मिट चुका था। जीवन का सार तत्व, इसका चरम तत्व, उनको ज्ञात हो चुका था। किन्तु इस बात को वे किसी के सामने प्रकट नहीं करती थीं। जैसे साधारण लोग जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार वे भी अपना जीवन यापन करती थीं। किन्तु ज्ञान की बात केवल अपने पुत्रों को ही सुनाती थीं। अपने पहले लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते इस प्रकार की लोरी गा गाकर सुनाती थीं-
शुद्धोऽसिरे तात न तेऽस्ति नामकृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।
पंचात्मकम् देहमिदं न तेऽस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः।।
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
यह कल्पित नाम ‘विक्रान्त’ तो तुझे अभी मिला है। तुम्हारा (आत्मा का) न तो जन्म है, न मृत्यु। तुम भय, शोक, आदि दुःख से परे हो। शरीर के भीतर तुम हो, किन्तु तुम शरीर नहीं हो। तुम हो मेरे लाल, निरंजन! अति पावन निष्पाप! अमित है तेरा प्रताप!
भूतानि भूतैः परि दुर्बलानिवृद्धिम समायान्ति यथेह पुंसः।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः।।
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पंचभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है। इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है। तुम्हारा शरीर जैसे एक दिन जन्मा है, उसी प्रकार एक दिन नष्ट भी हो जायेगा। जिस प्रकार पुराने वस्त्र फट जाने पर लोग उसको त्याग देते हैं, शरीर का त्याग भी ठीक वैसा ही है। शरीर नष्ट होने से तुम्हारा कुछ नहीं नष्ट होता। तुम तो आनन्दमय आत्मा हो, फिर किस लिये रो रहे हो ?
तू अपने उस चोले तथा इस देहरूपी चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुई है। तेरा यह चोला (शरीर और मन) षड्रिपुओं – काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह मात्सर्य त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिं-स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथाः।।
शुभाशुभैः कर्मभिर्दहमेतन्मदादि मूढैः कंचुकस्ते पिनद्धः।।
आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है)। मदालसा को कालान्तर में दो पुत्र और हुए और उन दोनों को भी महारानी ने बाल्यकाल से ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया और वे तीनों ही निवृत्ति मार्गी (संसारत्यागी) संन्यासी बन गये। वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे। महारानी मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों को बचपन से ही (ब्रह्म) ज्ञान और वैराग्य का उपदेश देकर निवृत्तिमार्गी संन्यासी बना दिया।
इसीलिये जब चतुर्थ बालक ने जन्म लिया, तब महारानी उसे भी बचपन से ही जब निवृत्तिमार्ग की शिक्षा देने लगी। उसी समय महाराज ने मदालसा से विनती की कि-देवि! पितृ-पितामह के समय से चले आये मेरे इस राज्य को चलाने के लिये तो एक बालक को राजा बनना ही चाहिये, अतः इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसा ने महाराज की बात मान ली, लेकिन मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। उसने इस पुत्र का नाम ‘अलर्क’ रखा। जिसका अर्थ होता है मदोन्मत्त व्यक्ति या पागल कुत्ता। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को अत्यधिक भोगने लगेगा तो उसके पागल कुत्ते की तरह कहीं भोगी हो जाने की संभावना न हो। इसीलिये और अपने चौथे पुत्र को पालने में प्रवृत्तिमार्ग के कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग का उपदेश इस प्रकार दिया-
धन्योऽसि रे यो वसुधाम्शत्रु-रेकश्चिरम् पालयितासि पुत्र।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगोंधर्मात् फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम्।।
धरामरान् पर्वसु तर्पयेथाः समीहितम बंधुषु पूरयेथाः।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथाः।।
बेटा! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुख भोग की प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना।
अन्ततोगत्वा मदालसा ने एक उपदेश भी लिखकर अलर्क के हाथ में विराजमान मुद्रिका के भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा ‘‘जब कोई बड़ी विपत्ति पड़े या संकटों से घिर जाओ तब तुम यह उपदेश पढ़ लेना।’’ अलर्क राजा हुए और उन्होंने गंगा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी (जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है।) किन्तु अलर्क भी राज के मोह में आसक्त हो गया। माता के उपदेश को भूल गया। तब तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता आये हैं। अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ‘‘आज्ञा।’’ भ्राताओं ने कहा ‘‘माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो।’’ वह हँसने लगा और बोला ‘‘तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो? चलो, किले से बाहर हो जाओ।’’ वे तीनों काशीराज मामा के पास गये। सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेर लिया। जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है। वह उदास हो गया। तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला। उसमें माता ने लिखा था।
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां! मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम्!!
जब अलर्क ने इस श्लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया। अलर्क प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग में आ गया और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा। और ‘‘अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि’’ इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा। सेना ने रास्ता दे दिया। जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला। गुरुदेव ने अलर्क को आत्म ज्ञान का उपदेश दे – देकर शीतल बना दिया। महाराज अलर्क उसी समय राज्य को अपने पुत्र को सुपुर्द करके वन चले गये। इस प्रकार योग्य माता मदालसा ने अपने चारों पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने भी माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया।
माता गुरूतरो भूमेः
महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं, ‘माता गुरूतरा भूमेः युधिष्ठिर द्वारा माँ के इस विशिष्टता को प्रतिपादित करना यूं ही नहीं है आप अगर वेद पढ़ेंगें तो वेद माँ की महिमा बताते हुए कहती है कि माँ के आचार-विचार अपने शिशु को सबसे अधिक प्रभावित करतें हैं। इसलिये संतान जो कुछ भी होता है उसपर सबसे अधिक प्रभाव उसकी माँ का होता है। माँ धरती से भी गुरुत्तर इसलिये है क्योंकि उसके संस्कारों और शिक्षाओं में वो शक्ति है जो किसी भी स्थापित मान्यता, धारणाओं और विचारों की प्रासंगिकता खत्म कर सकती है।
इन बातों का बड़ा सशक्त उदाहारण हमारे पुराणों में वर्णित माँ मदालसा के आख्यान में मिलता है। मदालसा राजकुमार ऋतुध्वज की पत्नी थी। ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गये, युद्ध में इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी, ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये हैं। ये खबर ऋतुध्वज की पत्नी मदालसा तक भी पहुँची तो वो इस गम को बर्दाश्त नहीं कर सकी और इस दुःख में उसने अपने प्राण त्याग दिये। इधर असुरों पर विजय प्राप्त कर जब ऋतुध्वज लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया। मदालसा के गम ने उन्हें मूर्छित कर दिया और राज-काज छोड़कर अपनी पत्नी के वियोग में वो विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे। ऋतुध्वज के एक प्रिय मित्र थे नागराज। उनसे अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वो हिमालय पर तपस्या करने चले गये ताकि महादेव शिव को प्रसन्न कर सकें। शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिये कुछ न मांग कर अपने मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी। शिवजी के वरदान से मदालसा अपने उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतूध्वज को प्राप्त हुई।