जब भी भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुर्गति की चर्चा होती है, लोग इसके लिए सामान्यत: लॉर्ड मैकाले द्वारा पूर्व प्रचलित संस्कृत-फारसी शिक्षा पद्धति को हटा कर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करने को दोष देते हैं। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। उसके लिए मंच-यवनिका आदि पहले से तैयार कर दी गयी थी। 1834 से 1838 तक कुल चार वर्षो के अपने भारत-प्रवास में उसने दो महत्वपूर्ण कार्य किये-उपनिवेश के क्रिमिनल कोड में सुधार और ब्रिटिश मॉडल पर शिक्षा पद्धति की स्थापना। आज के ब्रिटेन में तो मैकाले को शायद ही कोई जानता हो पर भारत में उसे लेकर उठापटक जारी है।
जब भी भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुर्गति की चर्चा होती है, लोग इसके लिए सामान्यत: लॉर्ड मैकाले द्वारा पूर्व प्रचलित संस्कृत-फारसी शिक्षा पद्धति को हटा कर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करने को दोष देते हैं। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। उसके लिए मंच-यवनिका आदि पहले से तैयार कर दी गयी थी। 1834 से 1838 तक कुल चार वर्षो के अपने भारत-प्रवास में उसने दो महत्वपूर्ण कार्य किये- उपनिवेश के क्रिमिनल कोड में सुधार और ब्रिटिश मॉडल पर शिक्षा पद्धति की स्थापना।
मैकाले छात्रावस्था में अत्यंत मेधावी था। उसे पाश्चात्य साहित्य और संस्कृति पर बहुत घमंड था। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, डच भाषा अच्छी तरह जानता था और ग्रीक की क्लासिक कविता का परम भक्त था। यूरोपीय साहित्य को हीरा और भारतीय तथा अरबी साहित्य को दो कौड़ी का मानने वाला मैकाले कभी भारत आना भी नहीं चाहता था। 10 जुलाई, 1833 को ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस में दिया गया उसका वह भाषण- ‘संपूर्ण भारतीय साहित्य यूरोप के किसी पुस्तकालय की एक अलमारी में रखा जा सकता है’, हम कभी भूल नहीं सकते। दुर्भाग्य है कि जिस ‘जंगली उपनिवेश’ को सभ्य बनाने के लिए मैकाले ने 1834 में अंग्रेजी शिक्षा का बीज बोया था, उसके पेड़-पौधे आज गांव-गांव में गाजर घास की तरह फैल रहे हैं।
संस्कृत शिक्षा को बलिवेदी तक ले जाने का काम इससे बहुत पहले अलेक्जेंडर डफ (1806-1878) उच्च शिक्षा के बहाने कर चुका था। मई, 1830 में चर्च ऑफ स्कॉटलैंड से आकर धर्म-प्रचार के लिए पद-दलित भारत-भूमि पर कदम रखने वाला वह प्रथम ईसाई मिशनरी था। अंगरेजी माध्यम से आधुनिक विषय की शिक्षा देने के लिए जुलाई, 1830 में कलकत्ता में सर्वप्रथम स्कॉटिश चर्च कॉलेज की स्थापना की। कलकत्ता में उसने देखा कि मिशनरी के अथक प्रयासों के बावजूद सवर्ण हिंदू ईसाई धर्म की ओर आकृष्ट नहीं हो रहे हैं। तब उसने त्रिसूत्रीय शिक्षा मिशन बनाया-(1)भारत सरकार की शिक्षा-नीति में परिवर्तन, (2) ईसाई चर्च द्वारा दी गयी शिक्षा को मिशनरी कार्य की मान्यता, (3) सवर्ण हिंदुओं में शिक्षा के माध्यम से ईसाई विचार का प्रवेश।
डफ से पहले फ्रेंच मिशनरी ज्यां एंतोन दिबुआ ने 1823 में पांडिचेरी, मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर में भारतीय वेशभूषा में रह कर और ईसा मसीह के गॉस्पेल सुना-सुना कर हार गया और यह सोच कर पेरिस लौट गया कि भारतीयों को ईसाई रंग में रंगना असंभव है। उस समय शिक्षा की आधिकारिक भाषा फारसी थी और आनुषंगिक रूप से संस्कृत-अरबी में भी शिक्षा दी जाती थी। डफ कामयाब हुआ और अंतत: 1835 में लॉर्ड बेंटिक ने मैकाले द्वारा तैयार नयी शिक्षा-नीति के प्रारूप को अधिकृत रूप से घोषित कर दिया।
इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं कि मैकाले यूरोप और विशेषकर इंग्लैंड के गोरे लोगों को धरती का संरक्षक और सर्वोच्च मानव मानता था। वह भारत देश पर ज्यादा शोध को समय की बर्बादी मानता था। मैकाले ने भारत में आई सी एस, जो आजादी के बाद आई ए एस बना, की स्थापना की ताकि शासन सही तरीके से चले। पर मैकाले भारतीय जीवन पद्धति को नापसंद करता था पर भारत के लोगों से नफ़रत नहीं करता था और ना ही कोई अत्याचारी और भ्रष्ट प्रशासक था।
आज कल सामाजिक मीडिया में मैकाले का जो तथाकथित पत्र प्रसारित हो रहा है जिसमें संस्कृत गुरुकुल को भारत की सबसे बड़ी ताकत बता कर उसे नष्ट करने की बात कही गई है। यह पत्र ना जाने किसने लिखा है पर मैकाले ने तो नहीं लिखा। पर मैकाले का यह मानना था कि संस्कृत भाषा से आधुनिक विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, गणित, साहित्य और तकनीकी शिक्षा नहीं पढ़ी जा सकती है इसलिए भारत के लोगों को अंग्रेजी सीखनी पड़ेगी ताकि आगे चलकर इस देश के लोग भी यूरोप जैसी वैधानिक और अन्य संस्थाओं की मांग करें और जिस दिन ऐसा होगा वह दिन इंग्लैंड के लिए गर्व का दिन होगा। यहां यह बताना भी रोचक हो सकता है कि जो लोग गुरुकुल शिक्षा के तो प्रबल हिमायती हैं उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों, खासकर उच्च स्तर के मिशनरी स्कूलों में पढ़ाया है और बाद में इंग्लैंड,अमेरिका, रूस या ऑस्ट्रेलिया भेजा।
अंग्रेजी शिक्षा की बात करने वाले मैकाले अकेले नहीं थे, राजा राममोहन राय के नेतृत्त में बंगाल का ब्रह्म समाज भी इसकी मांग कर रहा था। इसी अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की बदौलत ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं और दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश दिलाया। दूसरा पक्ष देखा जाए तो आज भारत का तकनीकी क्षेत्र में जो विशाल व्यापार और महत्व है क्या वह अंग्रेजी के बग़ैर संभव हो पाता?
गुरुकुल की ‘फोटो सामाजिक मीडिया पर लगा कर तालियां पीटना-पिटवाना एक बात है और अपने परिवार के बच्चों को वहां पढ़ाना दूसरी बात है। हमें संस्कृत, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का विकास निश्चित रूप में करना चाहिए पर इसका आधार अंग्रेजी से नफ़रत नहीं होना चाहिए। दूसरे, गुरुकुल का गुणगान करने वालों को इस शिक्षा की आज के संदर्भ में व्यावहारिकता और उपयोगिता पर भी विचार करना चाहिए।
यदि पिछले दो सदी के इतिहास पर नजर डालें, तो भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ ईसाई मिशनरियों द्वारा बहुत सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ और कुलीन ब्राह्मण छात्र भी अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए संस्कृत/फारसी के अलावा अंग्रेजी सीखने लगे थे। उनमें सबसे अग्रणी राजा राम मोहन राय हुए, जिनका जन्म (1772) कुलीन बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता रमाकांत राय (बंदोपाध्याय) वैष्णव थे और मां तारिणी देवी शैव थीं। 1795 में वे तांत्रिक हरिहरानंद विद्यावागीश के मारफत बैप्टिस्ट मिशनरी विलियम कैरी के संपर्क में आये और उससे अंग्रेजी सीखने की इच्छा जाहिर की। 1803 से 1815 तक वे इस्ट इंडिया कंपनी में मुर्शिदाबाद के रजिस्ट्रार के निजी क्लर्क (मुंशी) रहे। ब्रिटिश बुद्धिजीवियों के संपर्क में आकर उन्होंने तत्कालीन हिंदू समाज के अवगुणों (सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, जातिगत कट्टरता, बाल विवाह आदि) को दूर करने में उल्लेखनीय योगदान किया. वे ‘ब्रह्म सभा’ के संस्थापकों में थे और ईसाई धर्म के अनुरूप एकेश्वरवाद का स्वर वेदांत में रहने के कारण अनेक उपनिषदों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
1811 में लॉर्ड मिंटो ने यह पाया कि भारत में विज्ञान और साहित्य का ह्रास बहुत तेजी से हो रहा है। इसलिए 1813 के चार्टर एक्ट में भारतीय साहित्य शिक्षण को सुदृढ़ करने तथा यूरोपीय विज्ञान की शिक्षा शुरू करने के लिए प्रतिवर्ष न्यूनतम एक लाख रुपये खर्च करने का प्रावधान किया गया। कंपनी इस राशि को संस्कृत-अरबी और फारसी पर खरचना चाहती थी, क्योंकि ब्रिटिश जजों को हिंदू और मुस्लिम कानून के जानकारों की जरूरत थी। जून, 1814 में इसके निदेशक मंडल ने संस्कृत की उत्कृष्टता की प्रशंसा करते हुए संस्तुति की कि भारतीय साहित्य और विज्ञान में विधि, नीतिशास्त्र, औषधि, गणित,ज्योतिष आदि सब कुछ है, इसलिए संस्कृत शिक्षा को अधिक प्रोत्साहित किया जाये।
इसी पृष्ठभूमि में लॉर्ड एम्हस्र्ट ने कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना भी की। मगर उसके बाद संस्कृत शिक्षा के प्रोत्साहन के विरोध में राजा राम मोहन राय आकर खड़े हो गये। उन्होंने 11 दिसंबर, 1823 को वायसराय को एक लंबा पत्र लिखा, जिसमें संस्कृत अध्यापकों पर और राशि न खरचने का अनुरोध करते हुए लिखा कि ‘इस देश को अंधकार में रखने के लिए संस्कृत शिक्षा सर्वथा उपयोगी होगी, यदि यही ब्रिटिश विधायिका की मंशा हो। लेकिन यदि सरकार का लक्ष्य भारतीय जनता की प्रोन्नति है, तब इसको अधिक उदार और परिपक्व शिक्षा प्रणाली लागू करनी होगी, जिसमें गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, शरीर-रचना विज्ञान तथा अन्य विज्ञानों को शामिल किया जाये।’ इसके बाद देश में जो वातावरण बना या बनाया गया, उसमें 1835 में मैकाले की शिक्षा-नीति लागू हुई और 1858 में ब्रिटिश राज पूरी तरह से कायम हो गया।
मैकाले नहीं होता तो भारत में 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस भी नहीं होता। आज करोड़ों लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं मिलता। हर गाँव गली में स्कूल नहीं खुलता। बनिया, कुर्मी, नाई, जुलाहे आदि को विद्या का मंदिर स्कूल में प्रवेश दिलाता। कौन ऐसे लोगों को शिक्षा में समान अवसर दिलाता अर्थात् आज की तरह सर्व समाज में शिक्षक दिवस की धूम नहीं होती। हम जैसे लाखों लोगों ने जो स्कूली शिक्षा पायी उसमें मैकाले का बहुत बड़ा योगदान है। लाखों लोगों ने जो नौकरी पायी और पायेंगे उसका श्रेय आधुनिक शिक्षा पद्धति के जनक व कर्ता-धर्ता श्रीमान् मैकाले महाशय को जाता है। आज यही मैकाले लाखों लोगों को रोजगार में समान अवसर दिलाते हुए रोजी रोटी का प्रबन्ध कर गये। हर स्कूल में शिक्षक हर बच्चे को आज कमोबेश यही तो सिखा रहा है। आज ऐसी शिक्षा किसे नहीं चाहिए।
मैकाले ने स्त्रियों के लिए न केवल शिक्षा के द्वार खोला वरन् शिक्षा क्षेत्र में सुधार भी किया। मैकाले ने ही भारतीय विधि व्यवस्था को सुदृढ़ करने की आधार शिला रखी। यही प्रथम विधि आयोग का अध्यक्ष था जिसने विधि के संहिताकरण करने पर जोर दिया। भारतीय दण्ड विधान संहिता उसकी ही देन है।