एक समय था कि लोग छत पर लेटे हुए सितारे गिनते गिनते किसी की याद में रात बिता देते थे। मोबाइल, टेलीफोन तो थे नहीं कि उसके सहारे पूरी रात बिता दी जाए। लिहाजा तारे ही गिनने में लोग बाग मशग़ूल रहते थे। चिट्ठी पत्री दस दस पन्नों की लिखी जाती थी और दूसरे दिन उसको पोस्ट भी किया जाता था। पन्द्रह दिन बेसब्री से गुज़ारने के बाद जवाब नहीं आने पर, आदमी तनहाई का शिकार हो जाता था। क्योंकि संपर्क करने के लिए दूसरे कोई विकल्प नहीं थे। बस सिर्फ याद ही याद की जा सकती थी। बन्दे को केवल हिचकियों का ही सहारा था। किसी कारण से एक दूसरे से नहीं मिल पाते थे या फिर आपस में अलहदगी हो जाती थी, तो व्यक्ति तनहा हो जाता था। यहां आशनाई ही सब कुछ नहीं है, इसे समझाये कौन? मन बहलाने के लिये केवल दोस्त यार होते थे। जिनसे लोग हाले दिल बयां करते थे। आजकल तो दिल बहलाने के बहुत से साधन है, फिर भी लोग अकेले हैं। घर में दो लोग हैं, लेकिन वह अकेले हैं। क्योंकि मन नहीं मिलता। शादी तो हो गई लेकिन विचार ही नहीं मिलते हैं। इससे निपटने के लिए भारी मात्रा में शादी के बाद भी लोग अपनी ब्रांच ऑफिसेज खोले रहते हैं। क्या पता कब, कहां, किसकी जरूरत पड़ जाए। इसको कहते हैं, दूर दृष्टि।
लोग कहते हैं कि काटे नहीं कटते दिन ये रात, बात सोलह आने सही है। अकेलापन सामाजिक स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इसको हम में से बहुतों ने कभी ना कभी महसूस ही किया होगा। सबसे खराब बात यह है कि व्यक्ति अपने परिवार और दोस्तों के साथ रहते हुए भी ये दर्द महसूस करता है। धीरे-धीरे यही अकेलापन इंसान को पटक के रख देता है। अपने ही बारे में लोग नकारात्मक विचार रखने लगते हैं। जिंदगी से रूठ जाते हैं। उसका आनंद लेना बंद कर देते हैं। जिन चीजों में बहुत आनंद आता था, वही अब नीरस लगने लगती हैं।
इसी संदर्भ में एक मित्र की बात बार-बार ज़ेहन में आ रही है। बचपन में ट्रेन हादसे में उनके मां-बाप दोनों गुजर गए थे। छोटे भाई बहन भी थे। किसी तरह ट्यूशन, सिलाई, कढ़ाई करके अपनी एवं सब की शिक्षा दीक्षा पूरी की। बड़े गुरबत भरे दिन थे। अगर सुबह रोटी मिली तो शाम को मिलेगी कि नहीं इसमें हमेशा ही अंदेशा घेरे रहता था। छोटे भाई बहनों को खिला कर स्वयं पानी पी कर पेट भर लेती थीं। बड़ी जीवट, खुशमिज़ाज एवं शौकीन थीं। काम करते समय भी उनके होंठ कुछ ना कुछ गुनगुनाते ही रहते थे। बात बात में गुल गपाड़ा, हंसी ठट्ठा लगाने वाली उनकी शख्सियत थी। जहां भी जाती थीं खुशियों की बारिश से सबको सराबोर करके आती थीं। लोग उन्हें बहुत याद करते थे।
कहते हैं ना कि सभी दिन एक जैसे नहीं रहते हैं, समय बदला उन्होंने सबको पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाया जिससे वो सब अपना घर संसार अच्छी तरह से बसा सकें। शादी ब्याह सबका किया, लेकिन खुद के बारे में सोचने की कभी फुर्सत नहीं मिली। एक तरह से उनकी लाइफ बिल्कुल बद से बद्तर हो गई थी। उनकी भी उमर सठिया चली थी। भाई बहन अपनी अपनी गृहस्थियों में मगन थे, ना कभी किसी ने खैरियत पूछी ना कैफियत। यह भी घर का काम धंधा खत्म करके अपने कमरे में पड़ी रहती थीं या फिर भतीजे भतीजियों को संभालती थीं। धीरे-धीरे करके इनको यह महसूस होने लगा कि लोग इनको बोझ समझने लगे हैं। एक बार हिम्मत करके कहा कि, “अब हम अलग रहेंगे।“ बस घर में भूचाल आ गया। क्योंकि यह तो मुफ़्त की नौकरानी थी, चली जाएंगी तो घर में काम कौन करेगा? लेकिन तोहमत लगाने वाले शब्दों में कहा गया, “अकेले क्यों रहना है? अकेले रहकर क्या करेंगी आप? हम सब का नाम बदनाम करेंगी?” यह सुनते ही बेचारी मन मसोस कर रह गईं। मानो घड़ों पानी पड़ गया हो। क्या कर सकती थीं, हाथ पैर भी इस लायक नहीं रह गये थे कि फिर से नौकरी पेशा कर पातीं। लेकिन इस बार उन्होंने बहुत हिम्मत जुटा के एक कमरा किराए पर ले ही लिया और अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से बिताने लगीं। धीरे-धीरे उनका भी अंतिम समय आया और वह दुनिया छोड़ गईं, और छोड़ गईं अपने पूरे क्रिया करम का सामान और कुछ नकदी भी। वह इतनी अवसाद से ग्रसित थीं कि अंतिम समय में अपने आपको पूरी तरह से कमरे में बन्द कर लिया था। करीब दस बारह दिन बाद उनके ना रहने का पता चला। एक हंसती खिलखिलाती महिला का ऐसा हश्र? अपनों ने अपने को ठगा। ऐसे उदाहरणों से आज अखबार, टीवी, पत्रिकाएं पटे पड़े हैं।
इसके लिए आजकल काउंसलिंग की जरूर पड़ने लगी है। घर वालों से, मां-बाप से, बच्चों के साथ बैठकर पंचायत लो तो काहे की काउंसलिंग ! अकेलापन अवसाद का मार्ग प्रशस्त करता है। इसके लिए जगह- जगह क्लीनिक खुले हुए हैं। लेकिन सिर्फ बात करने के लिए, समझाने के लिए लोग हजारों की फीस ले लेते हैं और करते धरते ख़ाक नहीं है। एक आध किताबें पकड़ा देंगे, कह देंगे कि इसको पढ़ो या फिर कहेंगे कि मेडिटेशन करो, बहुत तनाव है। लोगों से मिलो बैठो। होता क्या है कि लोग इसमें से कुछ भी नहीं करते हैं सिर्फ डॉक्टर की फीस देते हैं और घर आ जाते हैं। फिर वही ढाक के तीन पात। समाचारों में खबर आती है कि फलां व्यक्ति ने स्वयं को ख़त्म कर लिया। अगर ये सब नहीं करते हैं तो ग़म ग़लत करने बैठ जाते हैं। समझ में ये नहीं आया आज तक कि ग़म कैसे ग़लत किया जाता है। यही सब रोज सुनने और पढ़ने को मिलता है।
सबसे बढ़िया बात यह है कि लोग हर विषय में चांद को शामिल कर लेते हैं। किसी के भाई को ढूंढना है, तो वह चंदा से गुहार लगाता है। किसी के आने से, किसी की गली में चांद निकल आता है। इसलिए वह भी नौ छ: पांच के हेर फेर में सबको भरमाता रहता है। कैसे भी करके अपना इंतकाम ले ही लेता है। जबकि इसे ना ऊधौ का लेना है ना माधौ का देना है। देखा जाय तो चांद को क्या मालूम कि चाहता है उसे कोई चकोर। एक चांद और करोड़ से ऊपर चकोर हैं तो उसे कैसे खबर होगी। हालांकि बेचारा खुद ही अकेलेपन का शिकार है, अपनी व्यथा किससे कहे, अगर चांदनी का साथ ना होता तो बेचारा क्या करता। उसकी तन्हाई को दूर करने के लिए अभी हाल ही में सारी दुनिया को धोबी पछाड़ देते हुए आखिरकार वहां भारतीय पहुंच ही गये। सबके अरमान तो चांद से ही पूरे होते हैं। भारत में सारे त्यौहार चांद पर निर्भर हैं। करवा चौथ पर तो दीवानगी की हद तक मस्का मालिश की जाती है। ऐसी ऐसी मांग रखते हैं कि बेचारे चांद की जान पर बन आती है। किसकी पूरी करें किसकी नहीं। इसीलिए वह बदली में छिपने की कोशिश करता है । सोचा जा रहा है कि इस साल का करवा यहीं चांद पर ही पूज लें और पति की लम्बी उम्र की वैलिडिटी लगे हाथों चार्ज करा लें। गिफ्ट शिफ्ट भी यहीं से लेते जायें। बस केवल एक से दूसरे गोले में जाना भर है। इससे अवसादी आंकडों में भारी गिरावट की संभावना है।
ग़ौर से महसूस किया जाय तो समस्या में ही समाधान शुरू से ही मौजूद रहते हैं। देखने के लिए सूक्ष्म निगाहों की आवश्यकता है। अक्सर देखा जाता है कि बड़े बुजुर्ग और युवा पीढ़ी में सामंजस्य नहीं बैठता है। दोनों की एक दूसरे से शिकायतें पुलिंदे भर रहती हैं। बुजुर्गों का कहना है कि बच्चे उनके पास नहीं बैठते, समय नहीं व्यतीत करते हैं। इस वजह से वह एकदम अकेले हैं। लेकिन अगर बच्चों की तरफ से ईमानदारी से देखें तो यह अवश्य ही समझ में आएगा कि पूरी गलती बच्चों की नहीं है। जब कुछ भी गलत होता है तो सारा ठीकरा नई पीढ़ी पर फोड़ दिया जाता है। दिनभर बच्चे अगर बुजुर्गों के पास बैठेंगे, मां बाप के पास बैठेंगे तो वह पढ़ाई कब करेंगे? अपना कैरियर कब बनाएंगे? जीविका से अपना और अपने परिवार का पेट कैसे पालेंगे? उन्हें घर से तो निकलना ही पड़ेगा। कभी-कभी तो काम से वापसी आने पर लंबा वक्त लग जाता है, उस वक्त बड़े बुजुर्गों और माता-पिता को संयम से काम लेते हुए युवाओं की थोड़ी बहुत जिम्मेदारी को खत्म करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि पोते पोतियां उनकी भी ज़िम्मेदारी है। नन्हें मुन्नों के लिए दादा दादी का घर किसी आंगनबाड़ी से कमतर साबित नहीं होता है। अच्छे संस्कार पड़ते हैं। इसके अभाव में यह पीढ़ी कुछ भी नहीं जान पाती है। बस क्रैच के संस्कार ही उनमें पढ़ते हैं। अगर युवा काम नहीं करेंगे तो खायेंगे कहां से। आज का युग पति-पत्नी दोनों के कमाने का है। क्योंकि जीवन स्तर को उच्च स्तरीय बनाने के लिए आय के स्रोत बढ़ाने पढ़ते हैं। इसलिए दोनों को समान रूप से बाहर निकल कर या घर से ही काम करने की दरकार है। तभी सभी लोगों का जीवन सुखमय व्यतीत हो सकता है। अकेलेपन से उबरने के लिए यदि शारीरिक स्वास्थ्य ठीक ठाक है तो कुछ काम तो अवश्य करना चाहिए। इससे हाथ में कुछ आयेगा ही। यह नहीं कि सेवानिवृत्ति के बाद काम नहीं किया जा सकता है, हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं।
होता क्या है कि मां-बाप अपनी जिंदगी भर की कमाई, जमा पूंजी, उधार-व्यवहार करके अपने बच्चों को पढ़ाते हैं। फिर वही बच्चे उच्च शिक्षा पाकर विदेशों में फिर से पैसा कमाते हैं। इधर मां-बाप एकाकीपन से ऊबकर बच्चों को कोसते हैं कि हैं कि “हाय! यह हमने क्या किया, ऐसी औलादों से तो इनका ना होना ही अच्छा था।“ लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है, कि इसके मूल में गलती किसकी है? आजकल एक बड़ी जनसंख्या में बुज़ुर्ग परिवार के लिए आर्थिक सहयोग करते हुए देखे जाते हैं। केवल आर्थिक सहयोग ही नहीं और भी कितने घरेलू कार्य होते हैं जिनसे स्वयं को व्यस्त रखा जा सकता है। जैसे छोटे-छोटे काम के लिए आप बाजार जा सकते हैं। घर में भी कुछ कर सकते हैं। बच्चों को पढ़ा सकते हैं आदि। यही समय की मांग है। दोनों को एक दूसरे की समस्याओं को समझना होगा और आपस में हाथ बंटाना होगा। दोषारोपण बंद करना होगा, तभी स्थितियों में सुधार अवश्यंभावी है। दूसरी तरफ जो लोग कभी ना कभी, कहीं ना कहीं, किसी से धोखा खाए हुए होते हैं, उनको चाहिए कि वह अपना ध्यान दूसरी तरफ लगाएं और कुछ क्रिएटिव कार्य करें। जिस से उनकी जीवन शैली भी सुधरेगी और समाज को एक नई दिशा भी मिलेगी। हालांकि लोग कह सकते हैं यह कहना आसान है, करना नहीं।
लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता है एक कहावत तो सभी ने सुनी होगी, “कौन कहता है आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।“
वैसे डिप्रेशन एक ऐसा राज रोग है जिससे बहुतायत में लोग पीड़ित हैं। अरसा पहले, 1961 में मरहूम केदारनाथ शर्मा ने एक शानदार नग़मा पेश किया था, जिसे मशहूर खनकती आवाज की मलिका मुबारक बेगम ने अपने सुरों में साधा था,”कभी तनहाइयों में हमारी याद आएगी।“ सौ फीसदी आज के ज़माने में ख़रा उतरता है। ज़रूरत है कुछ ऐसे एन जी ओ की जो ऐसे व्यक्तियों को नया जीवन प्रदान करने में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाएं। इस दिशा में कदम तो उठे हैं लेकिन वह न्यून हैं, आवश्यकता जन-जन की है।