कविता मानवीय मूल्यों एवं भावों की सहज अभिव्यक्ति है। अगर कविता सामजिक सरोकारों को अपने में समेट लेती है तो उसके वैभव के चरमोत्कर्ष की सम्भावनाएँ और अधिक बढ़ जाती है।
जनवादी चिन्तक कवि महेशचन्द्र पुनेठा का विचार है कि “मेरी नजर में कविता की एक बड़ी कसौटी उसकी पक्षधरता है अर्थात् वह किसके पक्ष में खड़ी है। ऐसी कविता जो किसी सत्ता या ताकतवर के पक्ष में खड़ी है और यथास्थिति को पोषित करती है, उसकी मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है।”
प्रो.रामविनय सिंह अपने युग के एक सजग रचनाकार हैं। उनकी कविताओं में मानवीय मूल्य और संवेदनाएं पग-पग पर दिखाई देती हैं। ‘प्राभातिकशतकम्’ प्रो.रामविनय सिंह का नवीन काव्यसंग्रह है। इसमें उन्होंने सूर्य के माध्यम से अपनी बात कहने का प्रयास किया है। वेदों में सूर्य को प्राण कहा गया है –‘आदित्यो ह वै वाह्य प्राण। सूर्य को ऊर्जा का मूल स्रोत भी माना गया है –चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूस्याग्ने…। सूर्य की किरणें अनन्त विश्व में प्रकाश और चेतना भर देती हैं –सूर्यो रूपं कृणुते द्योरूपस्थे …।
डॉ.रामविनय सिंह की कविताओं में, कवि के मन के भीतर, चल रही उठा पटक महसूस की जा सकती है। इन रचनाओं में कवि के मन की अन्तर्व्यथा उजागर हुई है।
पश्याद्य देव! निजलालितलोक तन्त्रे
मन्त्रेष्वशक्तगतयो विलसन्ति तन्त्र।
तन्द्रालसा विनिपतन्ति नभस्यसारम्
तारा विहाय रजनीं कुरु सुप्रभातम् ||13||
डॉ.रामविनय सिंह वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं। तभी तो वे कहते हैं-
पक्षा: न सन्ति खलु सत्तवबलैर्बललक्षा :
दक्षा: न वाग्भिरुपकर्त्तुमिमे विपक्षा: |
रक्षार्थमेव समयान्त: पातिनो वै
सत्यं कुरुष्व समयाधिप ! सुप्रभातम् ||47||
अपनी कविता में डॉ.रामविनय सिंह बड़ी निर्भीकता से शोषक वर्ग को बेनकाब करते हैं। कवि ने जो देखा, सुना, जिया, भोगा उन्हीं अनुभव, अनुभूतियों, जीवन-मूल्यों को शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त किया है –
जाने नु देव! नवभारतभूतलेऽस्मिन्
सर्वंसहा इव वसन्ति नरास्सुधीरा: |
किञ्चित्सहस्व नलिनेश! जगद्व्रणार्ति
संवेदनैश्च पुनरत्र कुरु सुप्रभातम् ||40||
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शोकाकुलाश्च जनता: जनताधिपाश्च
के केभ्य अद्य नयनाश्रुतिपातनोत्का: |
स्वार्थैकसाधनधनार्तिभरेभ्य ऐभ्य:
भास्कर! कुरुष्व सदयं किल सुप्रभातम् ||56||
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मृद्नाति भूमि भृदपीह पदै: क्षुधार्तान् ||74||
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जीमूतधौतधरणावतिमानसानां
चेतो न चिन्तयति किञ्चिदपि प्रपश्य |
पूर्णोदरस्य तुलनाऽनुदरेण साकं
कार्यं न देव! सुविचार्य कुरु प्रभातम् ||75||
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नैके मदीयसुहृदोऽपि विषण्णवक्त्रा
त्राणाय नित्यनयनाश्रुकृताभिषेका: |
त्वामेव प्रातररुणाभवपुर्भजन्ते
शीघ्रं प्रसीद परमेश! कुरु सुप्रभातम् ||60||
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वर्षन्ति नैव जलदा: निपतन्ति शीर्ष्णि
कुप्यन्त्यकारणमिमे सहसा नरेभ्य: |
सम्प्रत्यसाम्प्रतमिदं भुवि लोकसाक्षिन् !
दृष्ट्वा कुरुष्व नयर्वत्मनुतं प्रभातम् ||64||
बसन्त को ऋतुराज कहा है। सभी भाषाओं के कवियों ने अपनी-अपनी तरफ से इसका वर्णन किया है। डॉ.रामविनय सिंह बसन्त का वर्णन करते हुए लिखते हैं।
गोधूमपूर्णहरिताननभव्यभूमिं
प्रोत्फुल्लपीतसुमसर्षपगन्धमुग्धाम्|
शाखासु कोकिलकुलानपि वीक्ष्य चोत्कान्
कुत्रासि सूर्य! कुरु मङ्गलसुप्रभातम् ||11||
सृष्टिकाल से ही मनुष्य का प्रकृति के साथ गहरा नाता है। डॉ.रामविनय सिंह के इस काव्य संग्रह में अत्र-तत्र का प्रकृति वर्णन दर्शनीय है।
शैत्यं व्यतीय प्रकृतिर्नुं कवोष्णभावा
रागाधरारुणविलोचनवारुणीभि: |
आकारयत्यहह तन्द्रिलभङ्गि: मौनं
आयाहि मित्र! कुरु मत्तसुप्रभातम् ||45||
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हृष्यद्रसालनवमञ्जुलमञ्जरीभि:
सौरभ्यमेति भुवनं किल कालहेतो !
रोलम्बमत्तनिकुरम्बसरागरावं
मन्दन्निशम्य कुरु देव! मधुप्रभातम्||50||
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सद्यो निपात्य निजनीरसजीर्णपत्रा-
ण्येते द्रुमा: नवलपेलवपल्लवाढ्या: |
शाखाशयै: प्रतिपलन्तु निबोधयांत:
त्वामानमन्ति भगवन् ! कुरु सुप्रभातम् ||51||
‘जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं / हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’ डॉ.रामविनय सिंह इसी भाव को (गणतन्त्र दिवस) अपनी कलम से कुछ इस प्रकार से कहते हैं।
राष्ट्रध्वजैयरनुपमैस्सुभगस्त्रिरङ्गै-
राबालवृद्धमहिलामितभावशोभै|
साकं समागतमहो गणतन्त्रपर्व
सम्यग्विलोक्य सवित:! कुरु सुप्रभातम् ||29||
प्राचीनकाल से ही मनुष्य उत्सव प्रिय प्राणी रहा है वह अपने त्यौहारों को बड़े ही धूमधाम और उल्लास के साथ मानता है। कविवर डॉ.रामविनय सिंह को अपने तीज-त्यौहारों,पर्वों तथा अपनी संस्कृति सदैव स्मरण रहता है। तभी तो उन्होंने लिखा है।
कुम्भोत्सवोऽस्ति भुवि भव्यतर्मोऽशुमालिन् !
दिव्या कथा रसमयी सरतीह नित्यम् |
गङ्गातरङ्गसितपुण्यपुरीं प्रसन्ना-
मासाद्य मज्जनसुखं कुरु सुप्रभातम् ||52||
डॉ.रामविनय सिंह की भाषा-शैली अत्यन्त ही सरल एवं सरास है। इस काव्यसंग्रह में वसन्ततिलका छन्द है। वैदर्भी रीति,प्रसाद गुण है। अनुप्रास,उपमा और श्लेष आदि अलंकार को सुन्दर प्रयोग हुआ है |कवि ने अपनी बात को सीधे-सीधे न कहकर अन्योक्ति का सहारा लिया है।
पर्यस्तमूर्द्धजघनाम्भसि भासमाना
चञ्चत्कचारुवदनाम्बुजसौम्यशोभा |
त्वद्धेतवेऽत्र खलु जीवति जीवलोके
आयाहिदेव! सवित:! कुरु सुप्रभातम ||39||
इस काव्यसंग्रह का प्रथम संस्करण समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून उत्तराखण्ड से अक्टूबर 2022 ई. प्रकाशित हुआ है। इसका अंकित मूल्य 490 रूपया है |इसमें कुल 108 पद्य हैं। जो मुक्तक शैली में निबद्ध हैं। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ अभिनवकाव्यालङ्कारसूत्रम्, मेंमुक्तक छन्द का लक्षण इस प्रकार देते हैं –‘अनिबद्धं तु मुक्तकम्’ अर्थात् मुक्तक अनिबद्ध होता है अर्थात् जो पद्य पूर्वापर रूप से निरपेक्ष होते हुए भी रसचर्वणा करता है वह मुक्तक कहलाता है। इन पद्यों का हिन्दी अनुवाद स्वयं कवि द्वारा तथा अंग्रेजी अनुवाद डी.ए.वी.कालेज देहरादून के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर डॉ.हरवीर सिंह रन्धावा ने किया है।