ग्राम संवेदना के कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की 100वीं जयन्ती मनाने के लिए गुरुवार(4मार्च2021) को भादर के कुरंग गाँव में एक समारोह आयोजित हुआ । समारोह में मौजूद साहित्यकारों ने रेणु को युगपुरुष बताया ।
वर्तमान समय में जब साहित्य नगरीय/ महानगरीय हो गया है, गाँव वहाँ आमतौर पर अनुपस्थित है या छौंक की तरह बचा है, ऐसे में कथाकार शिवमूर्ति के द्वारा अपने गांव कुरंग, अमेठी में रेणु जन्मशती समारोह का आयोजन रेणु के कथन को मूर्त करने की सुचिंतित कोशिश है। यह साल रेणु के जनमशती का वर्ष रहा और 4 मार्च सौंवा जन्मदिन। इस मौके पर ‘स्मरण रेणु’ के तहत विचार गोष्ठी और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसमें बंगाल, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सो से बड़ी संख्या में लेखक व कलाकार जुटे। बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों ने हिस्सेदारी की और हिन्दी के इस रचनाकार रेणु को जाना-समझा। इसकी संयोजक थीं सावित्री बाई फुले पुस्तकालय की शिक्षिका ममता सिंह। रेणु के चित्र पर माल्यार्पण से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।
‘रेणु स्मरण’ के माध्यम से रेणु का सहित्य, उनकी परम्परा, सामाजिक संघर्ष तथा वर्तमान के संदर्भ में साहित्यकारों की भूमिका पर चर्चा हुई। इसके केन्द्र में ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’, ‘जुलूस’ और ‘पलटू बाबू रोड’ जैसे उपन्यास, ‘पंचलेट’, ‘लालपान की बंगम’, ‘मारे गये गुलफाम’, संवेदिया’, ‘रसप्रिया आदि कहानियां, ‘जल प्रलय’ कथा रिपोर्ताज तथा रेणु की कविताओं के साथ उनकी सामजिक-राजनीतिक भूमिका थी। दो सत्रों में सम्पन्न विचारगोष्ठी के पहले सत्र के अध्यक्ष मंडल के सदस्य थे प्रसिद्ध कथाकार संजीव व जाने-माने आलोचक वीरेन्द्र यादव। इस सत्र में कमल नयन पांडेय, स्वप्निल श्रीवास्तव, अखिलेश, लाल रत्नाकर, अनिल कुमार सिंह, अनिल त्रिपाठी, तरुण निशान्त, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव, शिव कुमार यादव और पंकज शर्मा ने विचार प्रकट किये। वहीं, दूसरे सत्र की अध्यक्षता ‘समकालीन जनमत’ के प्रधान संपादक रामजी राय और इप्टा के महासचिव राकेश ने की। वक्ता थे रामप्रकाश कुशवाहा, डी एम मिश्र, राधेश्याम सिंह, दीर्घ नारायण, भगवान स्वरूप कटियार, प्रो सूर्यदीन यादव,, आशाराम जागरथ, अरुण सिंह, ब्रजेश यादव, हरेन्द्र मौर्य, सोमेश शेखर, इन्द्र मणि कुमार, अरुण निषाद, मोती लाल, प्रवीण शेखर और जमन्नाथ दूबे। सत्रों का संचालन कौशल किशोर और के के पाण्डेय ने किया।
वक्ताओं का कहना था कि फणीश्वरनाथ रेणु आन्दोलन के रास्ते साहित्य में आए। उनके सामाजिक जीवन का आरम्भ किसान आन्दोलन से होता है। सन्1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे शामिल हुए। नेपाल की राणाशाही हो या भारत की तानाशाही इसके विरुद्ध लोकशाही के संघर्ष में वे शामिल हुए और जेल भी गए। वे लेखकों से जब गाँव जाने की बात करते हैं तो इसके पीछे के वास्तविक सन्दर्भ को समझा जाना चाहिए। उनका जीवन एक सक्रिय बुद्धिजीवी का जीवन है और इस दायित्व को उन्होंने निभाया।
प्रेमचन्द की परम्परा के साथ उनके जुड़ाव के सन्दर्भ में वक्ताओं की राय थी कि यहाँ परम्परा का अनुवाद नहीं है। प्रेमचन्द के सबल पक्ष का यहाँ आत्मसात है तो वही इन्होंने बहुत कुछ नया दिया। जहाँ प्रेमचन्द का सहित्य आजादी के संघर्षे का प्रतिनिधित्व करता हैं, वहीं रेणु का लेखन आजादी के बाद पैदा हुए मोहभंग का लेखन है। दोनों की अन्तर्वस्तु में समानता है पर अभिव्यक्त का भूगोल अलग है। रेणु ने यथार्थ को भेदने की अपनी भाषा विकसित की। प्रेमचंद में विचार की बहुलता है, वहीं रेणु में संवेदना की सघनता है।
वक्ताओं का यह भी कहना था कि रेणु ने भारत की सामाजिक व्यवस्था, उत्पीड़ित समुदाय व इस लोकमन के मर्म को समझा और मनुष्य के अंदर की संवेदनशीलता और करुणा को व्यक्त किया। इनके यहाँ इन्द्रियबोध है। ध्वनियां मूर्त होती दिखती हैं। लोकजीवन अपनी पूरे रूप, रंग, रस, स्पर्श, संगीत आादि के साथ उपस्थित है। रस और रोचकता जरूरी है पर रोचकतावाद नहीं। सार रूप में कहा जा सकता हैं रेणु ने कला विधाओं का समुच्चय रचा और अपने समय यथार्थ को अभिव्यक्त किया।
जन्मशती समारोह के दूसरे चरण में रेणु की कहानी ‘पहलवान की ढ़ोलक’ का मंचन हुआ। आजमगढ़ की नाट्य संस्था सूत्रधार ने इसे प्रस्तुत किया जिसकी परिकल्पना और निर्देशन ममता पंडित का था। जन्मशती समारोह के आरम्भ में कथाकार शिवमूर्ति ने सभी का स्वागत किया और कहा कि रेणु को स्थापित करने की आवश्यकता नहीं। हम इसके लिए नहीं आये हैं। कोशिश यह है कि हम देखें कि रेणु हमें क्यों अपील करते हैं और हम उनसे क्या ग्रहण कर सकते हैं। सावित्री बाई फुले पुस्तकालय की संयोजक ममता सिंह ने बाहर से आये लेखकों, कलाकारों व नाटय संस्था सूत्रधार और स्थानीय लोगों को इस आयोजन को सफल बनाने के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।