किसी भी देश और समाज की प्रगति और विकास को वहां की महिलाओं की स्थिति से आंका जा सकता है। कोई भी समाज जितना सुसभ्य और सुसंस्कृत होगा वहां महिलाओं की स्थिति उतनी ही श्रेष्ठ होगी। वास्तव में राष्ट्र की संस्कृति का मुख्य मापदंड नारी की स्थिति भी रहा है। यूँ भी नारी में नेतृत्व और व्यवस्था संचालन की नैसर्गिक शक्ति होती है क्योंकि वह समूची मानवता और सभ्यता की जनक है। सृष्टि के विकास और संचालन का आधार भी वही है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की धारणाएं और जबरदस्त विरोधाभास भी देखा गया है। ऐसे ढेरों उदाहरण है जिससे पता चलता है कि नारी समय-समय पर उभरी है वहीं दमित भी की गई।
इस बार 15 अगस्त को हम देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ को अमृत महोत्सव के रूप में मना रहें हैं। बेशक यह हम सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात है। इस आजाद भारत में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती नजर आ रही है। हमारे देश की महिलाओं ने धरती से लेकर आसमान तक अपने नाम का लोहा मनवाया है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे बुलंद ना किए हो लेकिन इन सबके बावजूद एक दर्दनाक पहलू यह भी है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की अनदेखी की जा रही है। यह एक ऐसा अभिशाप है, जिसे महिलाओं के जन्म के साथ ही उनके मुकद्दर में लिख दिया जाता है।
एक अध्ययन से इस बात की जानकारी मिलती है कि आने वाले 10 सालो में लिंग परीक्षण के कारण दुनिया में 50 लाख लड़कियों की कमी हो जाएगी तो वही इस सदी के अंत तक बेटों की चाहत में 2.2 करोड़ बेटियां कम पैदा होने का अनुमान लगाया जा रहा है। मेडिकल जनरल ग्लोबल हेल्थ (बीएमजे) के अध्ययन में यह दावा किया गया है कि लिंग चयन के कारण 10 वर्षों में 4.7 मिलियन लड़कियां कम होगी। अब सवाल यह उठता है कि 21वीं सदी में भारत में जहां हम समता और समानता की बात करते है। फ़िर जन्म से पहले ही लड़का-लड़की का भेद क्यों?
हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के बीच कुछ ऐसे प्रावधान हैं कि वे महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का अधिकार प्रदान करने की वकालत करते हैं। फ़िर इन सबके बावजूद महिलाओं की स्वतंत्रता महज कोरी कल्पना ही क्यों प्रतीत होकर रह जाती है। आज भी महिलाओं के प्रति समाज की सोच नहीं बदल पा रही है। जिसका कारण भी कहीं न कहीं समाज पर पितृसत्तात्मक सोच का हावी होना है।
महात्मा गांधी ने महिलाओं को लेकर आजादी से पहले जो बातें कही थीं, वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। गांधी के अलावा किसी ने भारत को इतने बेहतर ढंग से नहीं समझा। गांधी की नजर में स्त्री की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कहा कि स्त्री को चाहिए कि वह खुद को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुषों के बजाय स्त्रियों के हाथ में ज्यादा है। उसे पुरुष ही की खातिर जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर साझीदार बनेगी। उन्होंने तब लिखा था, यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो पुरुषों के इस दावे के खिलाफ विरोध करता कि स्त्रियां उनका मन बहलाने के लिए ही पैदा हुई हैं। पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसकी आदत पड़ गई है। धीरे-धीरे इस पीढ़ी को अपनी इस भूमिका में मजा आने लगा है क्योंकि पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी खींच लेता है।
महात्मा गांधी स्त्रियों के सामाजिक उत्थान के लिए भी बहुत चिंतित थे। महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाले सामाजिक कृत्यों के बारे में उनके मन में काफी कड़वाहट थी। वे मानते थे कि बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों को महिलाएं सहन नहीं कर पातीं और शोषण, अन्याय, अत्याचार को झेलने के लिए विवश होती हैं।
एक समाज सुधारक के रूप में गांधी जी ने स्त्री उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न किया। वे दहेज प्रथा को खरीद-बिक्री का कारोबार मानते हैं। उनके अनुसार कोई भी युवक जो दहेज को विवाह की शर्त रखता है, वह अपने शिक्षक को कलंकित करता है। अपने देश को कलंकित करता है और नारी जाति का अपमान करता है।
गांधीजी ने भारतीय समाज को कुरीतियों से मुक्त कराने का कार्य किया। अपने जीवन काल में दहेज प्रथा का मुखर विरोध तथा विधवा पुनर्विवाह का स्पष्ट समर्थन, गांधीजी कास्त्री जाति के प्रति संवेदनशीलता का द्योतक था। उन्होंने अपने अथक प्रयत्नों के माध्यम से भारत को आजादी दिला कर देश की जनता को अपने मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। गांधीजी दहेज प्रथा के विरोधी थे। वह कहते थे कि अपनी बेटी को पढ़ने का अवसर दो, उसके लिए यही सबसे बड़ा दहेज है। गांधीजी बाल-विवाह के विरोधी थे। उनका विचार था जब बच्चे के भौतिक विकास की क्रियाएं आरंभ होती हैं तो उसे शादी के बंधन बांध दिया जाता है। जिस बच्ची को गोद में उठाकर प्यार करना चाहिए, उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कराया जाता है। वे विधवा विवाह के पक्षधर थे।
भारतीय नारी की क्षमता और किसी भी उन्नतिशील देश की नारी से कम नहीं है। हमारे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में बिल्कुल बताया गया है कि देवी शक्तियां वहीं पर निवास करती हैं, जहां नारी का सम्मान होता है। किसी भी समाज का विकास तभी हो सकता है, जब उस राष्ट्र में नारी और नर में कोई भेद न हो।
एक नये समाज के निर्माण की सृजनात्मक पहल हमें करनी ही होगी। अतीत की गलतियों से सीखते हुए और भविष्य की आशा से ऊर्जस्वित होते हुए सभ्य और मानवीय समाज बनाने के लिए रूढ़िवादी समाज से लड़ना जरूरी है। निष्क्रिय और भाग्यवादी हो जाने पर सबसे पहले हमारी सृजनशीलता की क्षति होती है। भाग्य के बजाय कर्म में आस्था रखते हुए आगे बढ़ कर वह सब करना होगा, जो एक अच्छेऔर गरिमामय मानवीय जीवन जीने के लिए जरूरी है। अगर हमें निरंतर भय, आतंक युद्ध के साये में घुट- घुट कर नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र समाज में अच्छी तरह जीना है तो मिल-जुलकर वैचारिक आन्दोलन अहिंसा के मूल्य पर चलना आज पुनः अत्यंत प्रासंगिक हो गया है। जीवन से प्यार करने का मतलब, हिंसा से नफरत करना भी है। समाज के सुधारने-संवारने की इच्छा रखने और कोशिश करने वाले लोगों के सामने यह एक बड़ा महत्वपूर्ण और चुनौती भरा काम है।
स्वतंत्रता आंदोलन में भी सरोजनी नायडू, मधुबन, सुशीला नायर, सरला देवी चौधरानी ने जमकर हिस्सा लिया। गांधी का आंदोलन फलीभूत होने का कारण, महिलाओं को साथ लेकर चलना है। महिलाओं ने घर से निकलकर सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और स्वर्णिम इतिहास रचा। बदलते समय के साथ गांधीजी के जीवन-दर्शन और विचारों की प्रासंगिकता पूरी दुनिया में बढ़ी है। स्वतन्त्रता आन्दोलन से लेकर अब तक उन्होंने भारत के रूढ़िवादी समाज में परिवर्तन और विकास के लिए जो अनूठे उपाय देश की जनता के समक्ष रखे, उसका उदाहरण विश्व के इतिहास में कहीं अन्य नहीं मिलता। इस प्रकार गांधीजी केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व भर के लिए अमूल्य निधि हैं। उनका जीवन दर्शन आज भी सभी के लिए अनुकरणीय हैं।
भारत में नारियों को मौलिक अधिकार, मतदान का अधिकार और शिक्षा का अधिकार तो प्राप्त है लेकिन अभी भी स्त्रियां अभावों में जिंदगी जीती रही हैं। हमारे समाज में धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो नारियों से अछूता हों। चाहे फिल्म हो, इंजीनियरिंग हो या मेडिकल, उच्च शिक्षा हो या प्रबंधन-हर क्षेत्र में स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। अब बेटे और बेटी के बीच फर्क घटा हैं लेकिन अभी भी यह कुछ वर्गों तक ही सीमित है। नारियों के समक्ष खुला आसमान और विशाल धरती है जिस पर वे अनंतकाल तक अपना परचम लहरा सकती हैं।
गौरतलब हो कि समाज के सृजन में महिला और पुरुषों का समान योगदान है फिर ऐसी क्या वजह है कि महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता रहा है। जीवन के रंगमंच पर महिला और पुरुष एक ही धुरी के समान चलते हैं। किसी एक के बिना दूसरे के जीवन की कल्पना आधारहीन है। फिर क्यों महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं मिल पाता है? यह सवाल आज भी विचारणीय है। आज आधी आबादी, घर गृहस्थी संभालने के साथ-साथ अंतरिक्ष तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। घर परिवार की जिम्मेदारी हो या फिर बात व्यापार क्षेत्र की ही क्यों न हो, महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वह हर क्षेत्र में परिपूर्ण है। लेकिन नारी सशक्तिकरण की वकालत करते हुए इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आज जिन क्षेत्रों में पुरुषों का वर्चस्व है उसकी महत्ता को चुनौती देने का कार्य कहीं न कहीं पूर्णरूप से आजादी न होने पर भी महिलाएं कर रही हैं। यही वजह है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को अधिकार देने के पक्ष में कमतर ही नजर आते हैं। महिलाओं के लिए बनाई जा रही तमाम योजनाएं इस बात की गवाह है कि उनके साथ कहीं ना कहीं समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। बात चाहे घरेलू हिंसा की हो या फिर बाल विवाह या स्त्री शिक्षा की ही क्यों ना हो, यह हमारे समाज की एक कड़वी हकीकत को बयान करने के लिए काफी है।
कोरोना काल के परिपेक्ष्य में ही बात करें तो बेशक दुनिया का हर वर्ग इससे प्रभावित हुआ हो पर महिलाओं के लिए यह एक अभिशाप बनकर आया है। इस दौरान विश्व भर में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक रोजगार गंवाना पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 से 2019 के बीच में महिला श्रमिक की भागीदारी बढ़ी है । लेकिन भारत एकमात्र अपवाद देश रहा है। जहां महिला श्रम शक्ति में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसी क्या वजह रही जो भारत की महिलाओं के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार किया गया? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामिक (सीएमआईई) की साल 2019 की रिपोर्ट भी इस बात की ओर इशारा कर रही है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 13.9 प्रतिशत नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा। अचरज की बात तो यह हैं कि अधिकतर पुरुषों ने कोरोना काल में अपनी नौकरियां वापस प्राप्त कर ली तो वहीं महिलाओं की किस्मत इस मामले में भी ठीक नहीं रही। अधिकतर महिलाओं को कोरोना काल में अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
बता दें कि विश्व आर्थिक संघ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 में भी कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं के वेतन संबंधी समानता में 257 वर्षों का समय लग सकता है। यह रिपोर्ट कहीं ना कहीं पुरुषवादी वर्चस्व की ओर इशारा करती है।
हाल ही में विश्व बैंक ने भी महिला कारोबार और कानून 2021 को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में यह साफ कहा गया है कि संपूर्ण दुनिया में केवल 10 देश ही ऐसे हैं। जहां महिलाओं को पूर्ण अधिकार देने की बात कही जा रही या वे देश इसमें सक्षम हैं। भारत इस रिपोर्ट में 190 देशों की सूची में 129 वें स्थान पर है। हमारे देश में आज भी महिलाओं को समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता और संपत्ति जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। देश में एक तरफ तो महिला स्वतंत्रता और सम्मान की बात की जाती है तो दूसरी ओर महिलाओं पर हिंसा और रेप के ग्राफ में कहीं कोई कमी नजर नहीं आती है। जिस देश में महिलाओं को देवी के समान दर्जा दिया गया है वहां इस तरह का दुर्व्यवहार होना कई सवाल खड़े करता है। सवाल यह भी उठता है कि महिलाओं से घरेलू सामान खरीदने में तो राय ली जाती है लेकिन जब प्रॉपर्टी में निवेश की बात आती है तो उन्हें बोलने का अधिकार तक नहीं दिया जाता है। यह कैसी विडंबना है जहां परिवार की इज्जत महिलाओं के हाथ में होती है तो वही प्रॉपर्टी के कागजात पुरुषों को दिए जाते हैं?
स्वामी विवेकानंद जी ने एक बात कही थी कि हमें संगठित होकर जागना होगा, तभी महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोका जा सकता है। महिलाएं आज खेल के मैदान से लेकर देश की राजनीति में अपना योगदान दे रही है। लेकिन यह कड़वा सच ही है कि आज भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्रतिनिधित्व करने का मौका कम ही मिल पाता है। देखा जाए तो हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। आधी आबादी पर भी यही बात लागू होती है। देश की नारियों ने भले ही है नित नए कीर्तिमान अर्जित कर लिए हो लेकिन अब भी उनके लिए चुनौतियां कम नहीं है। मेरिट लिस्ट में भले ही हमारे देश की बेटियां नाम रोशन कर रही हैं। बेटों को पीछे छोड़ रहीं हैं, लेकिन जब महिला और पुरुषों के अनुपात की बात आती है तो फर्क साफ नजर आ जाता है। ऐसे में सवाल यही कि ऐसे ही अगर बच्चियों को पैदा होने ही नही दिया जाएगा, फ़िर कैसे यह समाज आगे बढ़ पाएगा? इस विषय पर मंथन जरूर होना चाहिए।
देश की आजादी के पहले, आजादी के दौरान और आजादी के बाद भी महिला आंदोलन और संघर्ष कभी भी थमा नहीं। बल्कि लगातार जारी है। नारी के संघर्ष का ही परिणाम है कि अब वह हर उस क्षेत्र में भी आगे आ रही है जो कभी पुरुषों के प्रभुत्व वाला जाना माना और समझा जाता था। स्त्री शिक्षा के व्यापक प्रसार के कारण ही उन्हें अपने व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले हैं। सामाजिक बदलाव के साथ-साथ पारिवारिक रूप से भी महिलाएं सशक्त हुई है। कहा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं को जो सामाजिक मान्यता मिली है उसके पीछे बरसों का लम्बा संघर्ष है। यह महिलाओं के अस्तित्व और अस्मिता के संघर्ष का परिणाम है। इसके पीछे उन तमाम स्त्रियों का संघर्ष भी शामिल है, जिन्होंने तमाम विरोधों के बाद भी इसे शुरू करने की हिम्मत दिखाई थी। लेकिन इतना होने के बाद भी यह तो बस एक शुरूआत है।