कोरोना महामारी का बाज़ अपने शिकंजे में ये दूसरा साल भी बड़ी तेजी से निगल रहा है। लेकिन इस दफ़ा भी किसी तंत्र या दूसरों को कोसने की बजाय यदि हम अपने गिरेबान में पहले झाँकें तो समझने में शायद आसानी हो कि-यह हमारी ही गलतियों व लापरवाहियों का नतीजा है। किसी और पर इसका ठीकरा फोड़ देने से हम बच नहीं सकते हैं!
कोई भी पेंडेमिक चार लहरियों में पूरा होता है, तो निश्चित ही उससे जूझने की तैयारी भी उसी स्तर पर होनी चाहिये थी। यहाँ ढील तंत्र द्वारा हुई सो हुई पर क्या हमने भी सभी एहतियात रखे?
सौ की सीधी एक बात-कोई भी अपनी परचमगिरी नहीं छोड़ता मसलन दादा की दादागिरी, भाई की भाईगिरी,पुलिस की पुलिसियागिरी,बनिया की बनियागिरी आदि।फिर राजनेता अपनी नेतागिरी कहाँ से छोड़ेगा?
लोकतंत्र की व्यवस्था ने जब चुनाव करना हमारे हाथों में थमा दिया है, तो चुनाव रैलियों में जाना या ना जाना भी हमारी ही इच्छा पर टिका मसला ठहरा! तंत्र व्यवस्थायें कुंभ जैसे आयोजनों से ढ़ेरों कर एकत्र करती हैं, तो फिर वो उसे फलीभूत होने से डिगने भी कैसे देंगी?
यहाँ हमें स्व-मनन करते हुये खुद को जबाव देना है कि-इन डुबकियों की राजनिति में निर्वस्त्र होकर डुबकी, हमने क्यों कर लगाई? बिना कुछ सोचे-विचारे ये भूलकर कि-हम अभी कोरोना को परास्त नहीं कर सके हैं।
कोई भी तंत्र अपने नियम-कानून अपनी सुविधानुसार तय भी करता है और अपने फायदों की एक्सेल शीट पर अमल भी करता जाता है। इस पेंडेमिक में भी यह कार्य उसने बखूबी किया है।
हमने क्या किया? ओखली में जानते-बूझते सिर दिया! तो भैये!अब मूसल तो ताबडतोड पड़ने ही थे है ना!
हम सब कितने स्वार्थी हैं, तो कहना कहाँ गलत है कि-हम भी तो अपनी स्वार्थीगिरी नहीं छोड़ पा रहे! 2020 में जब कोरोना नामक महामारी ने बत्तीसी दिखाई तब हमने लॉकडाउन जैसे ब्रह्मास्त्र के लागू होने पर बवाल काटा और जबरन लूट लाये ग्रोसरी स्टोरों से सामान अबै-तबै! बिना सोचे-विचारे कि-और भी लोग हैं, परिवार हैं जिन्हें भी तो राशन व दैनिक जीवन में उपयोगी सामान भरना होगा! हम मतलबियों ने सोचा तक नहीं! जहाँ दो कट्टे आटे के लगने थे वहाँ छः खरीदे,जहाँ पाँच-पाँच किलो चीनी-चावल के लगने थे वहाँ बीस-तीस किलो तक खरीदे गये।
अपनी-अपनी पड़ी रही बस!जबकि दैनिक आवश्यकता और राशन,दूध-दही,सब्जियाँ,सभी कुछ लॉकडाउन में भी मिलते रहने वाला था।’एडवाइजरी’ नाम का शब्द बस आप सब स्वार्थियों की सुनामी ही लाया।
शर्त लगा सकती हूँ कि-आपकी भीड़ और हाय मुझे -हाय मेरा की अफ़रातफ़री देख कर कोरोना खुद को विजेता के मंच पर खड़ा कर के मुस्कुरा रहा होगा!
महामारी की पहली लहर को हमने सालभर व्यंजन बनाते-खाते,वर्क फ्रॉम होम के काउच पर जैसे-तैसे काट ही लिया। 2021की फुनगियों पर हम पुनः बद-दिमाग लापरवाह हो गये! महामारी जहाँ अपनी दूसरी और तीसरी लहर के लश्कर के साथ मुस्तैद खड़ी थी,वहीं हम गोलगप्पों,समोसों,जलेबियों में उंगलियाँ चाट रहे थे। सारा खेल उंगलियों, आँखों और ज़ुबान का ही ठहरा साहब!
भई इसे कुछ यूँ देखिये कि- जैसे कोरोना एक नरभक्षी पुष्प हैं,जो आँखों को अपने रंग-रूप से लुभावने लालच देता है,हाथ की उंगलियाँ उसे छूने को आतुर होती हैं और ज़ुबान उसके पराग चखने को लपलपाती है और वो तपाक से धर-दबोचता है हमें और फिर ‘राम नाम सत्य’ बोल हो जाता है।
यही सब इस दूसरी लहर ने मौत का तांडव रच कर बताया और लगातार आगाह किया कि बचो,संभलो,सुरक्षित रहो! लेकिन हम तो इस गुमान में मुटिया रहे थे कि-अमरफल खाकर आये हैं, कुछ नहीं होगा हमें! हम वही पुरानी गलतियों या कहूँ कि स्वैच्छिक हरकतों को लगातार दोहरा रहे हैं। जबकि ये समय काल के विकराल हाथों की पकड़ में निरंतर दम तोड़ रहा है। समय ने और सृष्टि ने जता दिया कि-सब यहीं पर धरा रह जायेगा!हरे नोटों की महक व सिक्कों की,रसूक की खनक धरी रह जायेगी। खाली आये थे खाली ही जाओगे। कहना गलत नहीं कि-कोरोना ने राजा और रंक सब बराबर से ला खड़े किये हैं ।हम तब भी जाने किस गुमान में पुते हैं? चेत ही नहीं रहे हैं।
समय बहुत कुछ सिखा रहा है हमें,वो कह रहा है कि-संतोषी परम सुखी को याद करो ।
चलिये ना थोड़ा सा थमकर सोचते हैं। एक शब्द है ‘मिनिमिलिज्म’, ये प्रक्रिया प्राचीन समय से हमारे संयुक्त परिवारों के प्रांगण में तुलसी चौरे के संग ही मानो बो दी जाती रही है। थोड़े में तरकीब से गुज़ारा हम भारतीय परिवारों को महारथ के रूप में सदा ही हासिल रहा है। गुलजार साहब भी दशकों पहले लिख गये-“थोड़ा है थोडे की ज़रूरत है, ज़िन्दगी फिर भी यहाँ खूबसूरत है!” …तो भैया काहे को जबरन ज़िन्दगी को बदसूरत बनाने पर तुले हुये हो? कोरोना क्या कम बदसूरती बिखेर रहा है?
यदि ज़मीर में दस ग्राम भी ईमानदारी बची है तो गरीबी, भुखमरी, पलायन, मानसिक अवसाद और आत्महत्याओं के आँकड़ों के पीछे खुद की भी ताजपोशी कर डालिये आप! क्योंकि आपने अति काट डाली है इस विकराल समय में भी! ग्रोसरी,दूध-दही,दवायें,सब्जी-फल मिलने की शर्त पर भी आप भर लाये गाड़ियों की डिक्कियाँ, ढ़ेरों थैले-झोले, बिना ये सोचे कि-और भी तो भिन्न-भिन्न तबकों के लोग हैं, जिन्हें शायद आपसे ज्यादा आवश्यकता हो! आपकी हबड़-दबड़ ने सामान की कमी दिखा दी और तब शुरू हुई बे-भाव की कीमतें व कालाबाजारी।
आपने संयम खोकर इसे बढ़ावे की खुराक चटा दी। एक वीडियो वायरल हुआ और ऑक्सीमीटर ऑउट ऑफ स्टाक, एक और आया तो नेब्यूलाइज़र दुकानों से खत्म! मल्टीविटामिन हों या फ्लू की, इम्यूनिटी बढ़ाती दवायें तक दुकानों से ताबडतोड क्रय करी गयीं वो भी एक सोशल मीडिया की साइट्स पर चलते पर्चों या नीम-हकीमी के आधार पर!
क्या कर क्या रहे हैं आप? राशन,दूध,फल-सब्जी तक ठीक था पर अब चिकित्सकीय यंत्र व दवाईयाँ भी बिना सोचे समझे भेडचाल में लेने लगे! समय बहुत कठिन है, संयम से, धीरज के साथ ही इस से पार निकला जा सकेगा। क्यूँ नहीं समझते कि-हडबडी, बेचैनी काम बिगाड़ देगी।
ऐसा कतई नहीं कि ऐसे में मदद के हाथ कम पड़े हों! वो भी भरपूर भरोसे के संग तैनात थे, बस अनुपात का फ़र्क भर रहा। आप हाय-माया मचाने वाले लोग भी खुद को परोक्ष रूप से उन मदद के हाथों में जोड़ सकते थे, अपने सामान को बस आवश्यकता लायक भर खरीद कर।
हमारी ही दादी-नानियों की रसोई का,हाउस मैनेजमेंट का नियम रहा है कि-एक के चार पकवान कैसे बनें। दही यदि नहीं पूरा पड़ रहा तो रायते की जगह सर्राटा बना लें या पतली छाछ।
कम से कम में ज्यादा से ज्यादा और स्वादिष्ट रसोई हम भारतियों के चौकों से मोहल्ले भर को महकाती और चखाती रही है,ये क्यों भूल जाते हैं हम?
आप पश्चिमी वेशभूषा और आचार-व्यवहार अपनाने में अपनी शान समझते हैं, जो कतई गलत नहीं है! भई ये तो निजी मसला ठहरा, जिसमें मेरा हस्तक्षेप करने का कोई ना तो इरादा है और ना ही मुझे अधिकार है।
लेकिन बस इक बात सोचती हूँ तो लगता है कि पश्चिमी देशों में लोग सच में बहुत आत्मनिर्भर हैं (उस परिप्रेक्ष्य में हम तो बिलकुल नहीं)। उनके वहाँ ज्यादातर घरों में स्वयं के द्वारा ही सभी दैनिक कार्य किये जाते हैं, कामवालियों के भरोसे नहीं।
हम इस विषय में इतने पश्चिमी तो कभी नहीं बन सके!
बताने की ज़रूरत नहीं! भलीभाँति जानती हूँ कि वहाँ कामगर रखना बहुत मंहगा पड़ता है,तो कैसे रखेंगे वो, खुद ही करना पड़ेगा ना सब काम!
तो फिर हम कौन होते हैं किसी की लाचारी, गरीबी, मजबूरी का फायदा उठाकर उसे कम से कम कीमत पर रखकर उसको अपनी लक्जरी का सामान बनाकर?
इतने आत्मनिर्भर बनकर इत्तू से पश्चिमी भी हो जाइये ना! मदद के तरीके हज़ारों हैं, एक यही तरीका किसलिये अपनाया जाये।
सही मायने में तो ये सहायता नहीं हनन है!
उनकी मजबूरी और अपनी कामचोरी को एक सोने से चमकते पीतल के पिंजरे में कैद़ करने का मक्कार दुस्साहस है ये।
ये पेंडेमिक कितना कुछ जीवन से जहाँ छीन रहा है, वहाँ जीवन की,लोगों की,रिश्तों की कद़र भी तो सिखा रहा है। लेकिन हम कुछ सीख ही नहीं रहे शायद।
इंसानियत जहाँ अपनी अर्थी अपने ही काँधों पे लिये घूम रही है, वहीं एक अनुपात(भले ही कम ही सही) उसे झुठला भी रहा है कि- कहीं कुछ तो इंसानियत ज़िंदा है।
तो क्यों ना इस ज़िंदा अनुपात को मिलकर बढ़ाया जाये। अखबारों को पढ़कर उन पर घंटों कर्श करते बैठने से बेहतर तो कुछ सार्थक करने में है। तो क्यूँ ना थोड़ा सा मिनिमलाइज किया जाये?ताकि दूसरों के लिये पर्याप्त बच सके।
क्यूँ ना थोड़ा सा आत्मनिर्भर बना जाये,ताकि मजबूरी को काँधे पे ढ़ोते कामगर भी अपने घरों में,अपने परिवार को सुरक्षित रख सकें।
सोचकर देखिये कि क्या कुछ छोटे-मोटे अपितु ज़रूरी बदलाव आपके लिये इतने मुश्किल हैं?
मैं हाउसहेल्प को मना नहीं कर रही, बस इतना सा क्या हम नहीं कर सकते कि जब तक ये पेंडेमिक है,तब तक की समयावधि में हम अपने कार्य स्वयं कर लें,जिससे कामगार भी सुरक्षित हो पायें।
हाउसहेल्प का ना होना क्यों सबसे बड़ी प्रोब्लम लगने लगती है?
क्या हम संयम और सहजता से खरीदारी कर के नकली प्रलोभनों से बच नहीं सकते?
क्या हम जितनी आवश्यकता हो उतना ही इस्तेमाल कर के ज़रूरी रिसोर्सेज की वेस्टज को बंद नहीं कर सकते?
थोड़ा सा थम कर सोचिये कि-एक ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर एक घर में इस्तेमाल होने के बाद किसी और जरूरतमंद घर को भी तो दिया जा सकता है!
राहें स्वयं खोजनी होंगी,बचकर निकलिये ताकि कोई भी नरभक्षी पुष्प आपको अपना ग्रास ना बना सके।
अच्छे समय को कुचलकर बुरा आया है, तो अच्छा पुनः शक्ति अर्जित कर बुरे को धराशायी करने अवश्य आयेगा।
मास्क पहनिये,समय-समय पर हाथ धोते रहिये, उचित दूरी बनाये रखिये, सुरक्षित रहिये, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योद्धा बने रहिये, इसी दुआ के संग..!