येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:। / तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल ।।
अर्थात-जिस रक्षसूत्र से महान शक्तिशाली दानवेंद्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षा से मैं तुम्हे बांधता हूँ जो तुम्हारी रक्षा करेगा। इसके बारे में आम धारणा यह है कि यह त्योहार भाई द्वारा बहन की रक्षा का संकल्प लेने का प्रतीक है, लेकिन साथ-साथ यह भी कहा जाता है कि यह त्योहार हमारे देश में अत्यंत प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। यह घटना उस समय की है जब महादनी राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहें थे तब नारायण ने राजा बलि के दान की परीक्षा लेने के लिए ‘बामन अवतार’ लिया और दान में तीन पग भूमि की मांग की। जब भगवान तीसरे पग में ही भूमि पर अपना चरण रखा तो जमीन घट गयी। तब स्वयं राजा बलि उस स्थान पर लेट गए और इस प्रकार नारायण ने अपने तीन पग में राजा बलि समेत पूरी भूमि को दान स्वरुप स्वीकार कर लिया एवं बलि को रहने के लिए पाताल लोक दिया।
तब बलि ने नारायण से कहा कि मैं पाताल लोक में रहने को तैयार हूँ परन्तु मेरी एक शर्त है। नारायण ने कहा वैक है तब बलि ने कहा ऐसे नहीं प्रभु, आप छलिया हैं पहले मुझे वचन दें कि जो मांगूँगा जो आप देंगें। जब नारायण ने कहा दूँगा, दूँगा, दूँगा। जब तिर्बाचा (तीन बार) करा लिया तब बलि ने नारायण से कहा मैं जब सोने के बाद जब उठूं तो जिधर भी नजर जाये उधर आपको ही देखूं। नारायण ने अपना माथा पीट लिया और सोचे इसने तो मुझे ‘चौकीदार’ बना लिया और सब कुछ हार कर भी जीत गया है। नारायण वचनबद्ध थे।
काफी समय बीत चुका था और उधर बैकुंठधाम में लक्ष्मी जी को नारायण की चिंता होने लगी। नारद जी को बुलाया गया। लक्ष्मी जी ने, नारद जी से कहा आप तो तीनों लोकों में भ्रमण करते हैं क्या नारायण को कहाँ देखा है आपने? तब नारद जी ने लक्ष्मी जी को बताया कि पाताल लोक में हैं और राजा बलि की चौकीदार बने हुए हैं और पूरे घटनाक्रम को विस्तार से बताया।
तब लक्ष्मी जी ने कहा मुझे आप ही राह दिखाएं कि कैसे नारायण को छुड़ाया जाये बलि से।तब नारद ने कहा आप राजा बलि को भाई बना लें और रक्षा का वचन लें और पहले तिर्बाचा करा लीजियेगा कि दक्षिणा में जो मांगूँगी वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को माँग लीजियेगा। लक्ष्मी जी स्त्री के भेष में रोते हुए पहुँची बलि के पास। बलि ने जब महिला से रोने का कारण पूछा, तब लक्ष्मी जी बोली की मेरा कोई भाई नहीं हैं इसलिए मैं दुखी हूँ। तब बलि बोले की तुम मेरी धर्म बहन बन जाओ और तब लक्ष्मी ने तिर्बाचा कराया और बोली मुझे आपका यह ‘चौकीदार’ चाहिये।
अपनी धर्म बहन की मांग सुनकर बलि अपना सर पीटने लगे और सोचा ‘धन्य हो माता पति आये सब कुछ ले गये और ये महारानी ऐसी आयीं कि उन्हें भी लें गयीं।’
तब से ये रक्षाबंधन शुरू हुआ था और इसी लिये जब कलावा बांधते समय मंत्र बोला जाता हैं येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:। / तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल ।।
उस जमाने की अनेक ऐसी गाथाएं आज भी सुनने को मिलती हैं कि उस समय जो भी राजा हुआ करते थे, वे किस तरह अपनी प्रजा की भलाई का हर संभव ख्याल रखते थे। यहां तक कि अपनी प्रजा की देखभाल के लिए वे गुप्तचर भी रखते थे, जो उन्हें ऐसी वारदातों की जानकारी दे सकें। कई बार राजा खुद भी अपना वेश बदल कर भ्रष्टाचार करने वाले लोगों की निगरानी करते थे। तो क्या उस समय की माताएं और बहनें इतनी असुरक्षित थीं, जो अपने भाईयों के हाथ में राखी बांध कर सुरक्षा की गुहार करती थीं?
बहनों के अलावा ब्राह्मण लोग भी अपने यजमान को राखी बांधते हैं और उससे यह कहते हैं कि इंद्राणी ने इंद्र को राखी बांधी थी और उससे इंद्र को विजय प्राप्त हुईं थी। यदि यह त्योहार भाई द्वारा बहन की रक्षा के संकल्प का ही प्रतीक होता, तो फिर ब्राह्मणों द्वारा राखी बांधने का रिवाज क्यों शुरू होता ? इससे ऐसा लगता है कि यह त्योहार बहनों को भी ब्राह्मणों का दर्जा देकर, और भाई को यजमान समझ कर राखी बांधने का प्रतीक है, क्योंकि दोनों द्वारा राखी बांधने की रीति समान है।
असल में रक्षा बंधन का अर्थ केबल शारीरिक रक्षा नहीं है, बल्कि आत्मा की रक्षा पांच विकारों से करने से है। हर एक को इनसे रक्षा करनी ही चाहिए। यह सारा घालमेल इसलिए हुआ है क्योंकि रक्षा और बंधन – ये दोनों ही मूल रूप से संस्कृत से आए हुए शब्द हैं। लोगों ने अपने-अपने हिसाब से इनका अर्थ निकाल लिया है।
संस्कृत साहित्य में रक्षा का प्रयोग रहस्य की रक्षा के अर्थों में हुआ है। शरीर की भी रक्षा होती है। लेकिन धन की भी रक्षा होती है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में धर्म रक्षा का काफी वर्णन है। पर वहां इसका अर्थ धर्म की रक्षा के लिए दूसरों का गला काटना नहीं है। धर्म रक्षा का अर्थ अपने धर्म का पालन करना और उस रास्ते से नीचे नहीं फिसलना माना गया है। कोई व्यक्ति धर्म की रक्षा तब करता है, जब वह अपने लिए निर्धारित धर्म का पालन करने में सफल होता है। ग्रंथों में लिखा गया ‘आपदे धनम रक्षति’। इसका आशय यह था कि जो आपदा में आपकी रक्षा करे वही धन है। लेकिन इसका अर्थ हमने यह बना लिया कि आपद काल के लिए धन बचा कर रखो।
इस त्योहार के दो स्तर हैं। पहला स्तर दुनियावी है। इसमें शुभकामनाओं, आशीष और रक्षा के लिए एक व्यक्ति, दूसरे को राखी बांधता है। लोक जीवन में यह देखने में आता है कि या तो पुरोहित अपने यजमान को राखी बांधते हैं या बहन अपने भाई को बांधती है। राखी बांधते समय बहन पहले अपने भाई के ललाट पर तिलक लगाती है। फिर भाई का मुख मीठ कराती है अर्थात कुछ मिठा खिलाती है। इसके बाद उसकी कलाई पर राखी का सूत बांधती है। यह बहन-भाई के निस्वार्थ प्यार का प्रतीक है।
रक्षा सूत्र बांधते समय मंत्र पाठ किया जाता हैं, जिसके दो उद्देश्य होते हैं -बांधे जा रहे सूत्र को अभिमंत्रित करना और आशीर्वाद देना। ऐसा मानते हैं कि बहन अपने भाई को जो राखी बांधती है, उसका प्रतीकात्मक महत्व है। तिलक लगाते समय बहन-भाई को याद दिलाती है कि आत्मा के रूप में हम एक समान हैं। तुम्हारे ललाट पर यह आत्म-स्मृति का तिलक है, क्योंकि आत्मा का स्थान भृकुटी के बीच में माना गया है। तुम्हारे मुख से सदैव मीठे बोल निकलें। कलाई पर राखी बांधने का संदेश यह है कि तुम्हारे भीतर जो भी बुराइयां हैं, उन्हें बांधो। मन और इंद्रियों पर इस राखी की तरह संयम का बंधन रखो। राखी बांधते समय बहन अपने भाई को इन बातों की याद दिलाती है, क्योंकि इन आध्यात्मिक रहस्यों में सत्यता व पवित्रता का बल समाया हुआ है।
इस उद्देश्य ने इतिहास और हमारे लोक जीवन में अनेक कहानियों को जन्म दिया। द्रौपदी ने अपनी लाज की रक्षा के लिए कृष्ण को पुकारा था। इंद्राणी ने इंद्र को राखी बांधी थी और उससे इंद्र को विजय प्राप्त हुई थी। रानी कर्णावती की राखी के एवज में हुमायूं ने उसकी रक्षा की थी।
लेकिन भाई- बहन के बीच के रक्षा बंधन का एक और आध्यात्मिक पक्ष है, जिसका संबंध धार्मिक प्रतीकों से नहीं, बल्कि मानव मनोविज्ञान और हमारी चेतना से है। एक स्त्री है, एक पुरुष है। दोनों एक-दूसरे से सहज भाव से ही आकर्षित होते हैं। यह आकर्षण प्राकृतिक है। दोनों एक-दूसरे के सानिध्य का सुख हर स्तर पर प्राप्त करते हैं। तो क्या हम इसे देह के परे भी महसूस कर सकते हैं? स्त्री के लिए पुरुष के दो रूप हैं –पिता और पुत्र पुरुष के लिए दैहिकता से परे स्त्री के दो रूप और हैं -मां और बेटी। बेटी से वह खेलता है, उसे खेलाता है, जीवन भर उसके हित के लिए उद्यम करता है। मां से वह जीवन ही नहीं, अपने बचपन के भी सारे सुख पाता है। उम्र के अंतर और अपने रक्त संबंध के कारण इन दोनों से मिलने वाले आत्मिक और अदैहिक सुख की महानता वह पहचान लेता है।
लेकिन स्त्री-पुरुष के बीच एक तीसरा संबंध भी है -बराबरी का संबंध। लगभग एक ही उम्र के, एक ही माहौल में पले-बढ़े, एक ही तरह की परंपरा और आदर्शों के अनुयायी। साथ खेले, साथ-साथ सोचा। एक ही तरह की बात से खुशी मिली, एक ही तरह की बात से दुखी हुए। लेकिन एक स्त्री है, दूसरा पुरुष। पति-पत्नी को भी एक-दूसरे के इतना निकट आने में बहुत लंबा समय लगता है। पर दोनों के बीच का जो अदैहिक संबंध है, वह भाई-बहन का संबंध है।
आम तौर पर पुरुष, समवयस्क स्त्री के साथ अपने अदैहिक संबंध की सुंदरता को नहीं पहचान पाता। बहन को वह सिर्फ रक्त संबंधों के स्थूल कारणों के आधार पर ही अलग करता है। लेकिन रक्षाबंधन के दिन जब बहन राखी बांधती है, तो वह अपने भाई को इस संबंध के उस दिव्य सौंदर्य की याद दिलाती है। पुरुष उस राखी का सच्चा अधिकारी तभी हो सकता है, जब अपनी चेतना के उस स्तर तक पहुंचा है जहां इस अशरीरी प्रेम का सौंदर्य आह्लादित करता है।
रक्षा-बंधन की हार्दिक शुभकामनाएं।