“मानव का इंसान बने रहना जब कठिन प्रक्रियाओं का मंजर बन जाएगा तो सामाजिक उत्थान के लिए निमित्त बनी मर्यादाओं का उल्लंघन होना कोई असामान्य घटना नहीं होगी। सामाजिक सरोकारों के मध्य बदला लेने की नकारात्मक प्रवृत्ति को आज केवल मानवाधिकार का सकारात्मक एवं सार्थक पक्ष ही दिशा दे सकता है। क्या अमानवीयता का दंश मानवाधिकार को पूरी तरह से बेजान कर देने में सफल हो जाएगा? समस्त नीति – नियम इंसानियत और हैवानियत के इर्द – गिर्द घूमते हुए जब अपना अस्तित्व तोड़ देंगे और उसकी परवाह किए बिना मानव स्वयं की आत्मिक सच्चाई को जानने से अनभिज्ञ हो जाएगा, तो मानवाधिकार का सबल स्वरुप भी हमारे सामने निरीह होता हुआ ही दिखाई देगा।”
संवेदनशील मानवीय संबंधों में परिष्कार :
अनुशंसाओं और आश्वासनों के भंवर जाल में फंसे मानवाधिकार के वृहद् आकार पर आज अमानवीयता का कहर इस कदर काबिज़ हो चुका है कि मानवाधिकार का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। मानवता की आहट का सजग प्रहरी समझे जाने वाले मानवाधिकार को हमारी सरकारें जब अपना सिरदर्द समझ कर उससे सौतेला व्यवहार करने पर उतारू हो जाएंगी तब मानवाधिकार का पक्षाघात से पीड़ित स्वरुप जनमानस की समझ से परे नहीं रह पाएगा। अमानवीय कृत्यों के मध्य मानवता की पहल करते मानवाधिकार की बढ़ती लोकप्रियता और घटती विश्वसनीयता की परिणिति, मौत के सबब का प्रतिउतर ढूंढने में संलग्न है। कानून की तूती के सामने मानवाधिकार की गुहार का हश्र इतना बौना हो गया है कि मानवाधिकार से जनमानस यह पूछ रहा है कि – व्यापक कर्तव्य और सीमित अधिकार, क्या यही है मानवाधिकार? अमानवीयता के सर्प दंश से बेजान होती मानवाधिकार की संजीवनी भले ही अंतरराष्ट्रीय संधि का सुफल एवं उपलब्धि पूर्ण परिणाम हो लेकिन आज मानवता के स्थायित्व के लिए वह अप्रभावी बन चुकी है। सामाजिक संबंधों के परिष्कार के लिए नीति शास्त्रों की उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न लग जाना इसलिए यथार्थ प्रतीत होता है क्योंकि मानव ने यह मान लिया है कि इंसान बने रहना बहुत मुश्किल है।
कर्तव्य – धर्म निर्वहन की वास्तविकता :
सामाजिक परिष्कार की प्रक्रिया में विस्तार और विकृति का साहचर्य कुछ इस प्रकार प्रविष्ट होता चला गया कि मानव को स्वयं के आत्मिक अस्तित्व पर नज़र फेरने की फुर्सत ही नहीं मिली और वह धीरे – धीरे दानवीय प्रवृत्तियों के शिकंजे में न चाहते हुए भी जकड़ता चला गया। जन-जन को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले मानवाधिकार की आंतरिक एवं बाह्य पृष्ठभूमि केवल अनुशंसाओं और आश्वासनों में ही उलझकर रह जाएगी ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। अपेक्षाओं के साथ उम्मीद का दामन थामे हुए जब कोई व्यक्ति इंसानियत के खातिर मानवाधिकार हनन के मामले को लेकर मानवाधिकार आयोग के सम्मुख दस्तक देता है तब उसे आश्वासनों का पुलिंदा झुनझुने के रूप में थमा दिया जाता है और भविष्य में चंद रुपयों के मुआवजे की अनुशंसा, मानव के अधिकार को पूर्ण विराम देने के लिए कर दी जाती है।
मानव द्वारा अपने कर्तव्य – धर्म को निभाने की वास्तविकताएं जब पूर्णत: धूमिल पड़ जाएंगी तब मानवाधिकार की भूमिकाओं को सशक्त बनाने की अनिवार्य आवश्यकता उत्पन्न होने लगेगी। सच तो यह है कि मानवाधिकार के ऊपर अमानवीय प्रवृत्तियों का बोलबाला कुछ इस तरह व्याप्त हो गया है कि अपने निजी अस्तित्व की रक्षा में अब मानवाधिकार सम्पूर्ण रूप से केन्द्रित हो चुका है। मानवीय व्यवहार की वास्तविकताएं कुछ इस कदर चतुराई को आत्मसात कर चुकी है कि उसके कृत्यों को परिभाषित करना वर्तमान स्थितियों में अत्यधिक दूभर हो गया है इसलिए ऐसी स्थिति में मानवाधिकार से इंसानियत की रक्षा का अर्थपूर्ण दायित्वबोध के साथ अपेक्षा किया जाना आम जनमानस के लिए डूबते जहाज से साहिल की तलाश के अलावा और क्या हो सकता है?
आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना में मानवाधिकार :
व्यवस्थागत प्राणियों में सुधार की गुंजाइश को अंकुश के रूप में स्वीकारने की राजसत्ता की मंशा कभी नहीं होती है ऐसे में जनहित याचिकायों के फैसले और उससे जुड़े सरोकारों का सबब तथा मानवाधिकार आयोगों की अनुशंसाएं सरकार की नाक में दम की स्थिति का कारक बन गई हैं। मानवाधिकार आयोग आज सरकार के लिए अनावश्यक दायित्व बन कर रह गए हैं क्योंकि राज्य सत्ता की सुख – सुविधा एवं शांति में मानवाधिकार हनन की घटनाएं खलल पैदा कर देती हैं। आधुनिकता की चकाचौंध, गतिशीलता में मानवीय भावनाओं पर कुठाराघात की घटनाएं मानसिक विचलन की आंधी का पर्याय बनकर जब उभरती हैं तो उन्हें आत्मसम्मान के साथ पुनर्स्थापित करने का कार्य मानवाधिकार आयोग का होता है। विकासात्मक स्थितियों के मध्य दम तोड़ती संवेदनशीलताएं अपने आंकड़ों के माध्यम से जगत के सम्मुख सब कुछ अर्थात् वास्तविक यथार्थ को स्पष्ट कर चुकी हैं जिन्हें रोकने एवं टोकने के लिए मानवाधिकार आयोगों की भूमिकाएं पूर्णरूपेण पारदर्शी स्वरूप में स्पष्ट तो हैं लेकिन उन्हें निरंतर अनसुना कर देने की प्रक्रियाएं सरकार की मंशा को पूर्णत: स्पष्ट कर देती है। अमानवीयता के दमन चक्र में स्थायी रूप से बेड़ियाँ डालने हेतु तत्पर होती व्यवस्थागत एवं सामाजिक संस्थाएं क्या निरंतर रूप से असहयोग के बावजूद भी जीवित रह सकेंगी? यह यक्ष प्रश्न बौद्धिक वर्ग के साथ – साथ वर्तमान सामाजिक परिवेश में आज जनमानस के मध्य चर्चा एवं परिचर्चा का नियमित विषय बन चुका है।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि की समग्रता :
मानवाधिकार की बढ़ती लोकप्रियता और घटती विश्वसनीयता की परिणिति जब मौत के सबब का प्रतिउत्तर खोजने में व्यस्त हो जाएगी तब अमानवीय कृत्यों के मध्य मानवता की पहल करते मानवाधिकार की सुध – बुध भला कौन लेगा ? अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि के अंतर्गत समग्र मानवीय दृष्टिकोणों को क़ानूनी दांव पेंच के द्वारा पुन: तौलने की खंडित प्रवृत्ति ने मानवाधिकार की व्यापकता को अत्यधिक सीमित कर दिया है। विभिन्न राष्ट्रों के द्वारा स्थापित मानवाधिकार आयोग जब यह ज्ञात करने कि – पहल करने लगे की कानून के हिसाब से यह देखा जाएगा कि पीड़ित पक्षकार के मानवाधिकार का वास्तविक रूप में हनन हुआ है अथवा नहीं ऐसी स्थिति में मानवीय भावनाओं से जुड़ी इंसानियत को कितनी राहत और अंतर्मन को कितना संबल मिलेगा यह स्थिति मानवाधिकार के मामले में अत्यंत चिंतनीय पहलू बन जाता है।
सामाजिक घटनाओं का विकृत स्वरुप यह स्पष्ट संदेश तो देता है कि मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप की पहल करके मार्गदर्शन और परामर्श के द्वारा मानवता को स्थापित किए बिना सामाजिक समरसता से युक्त समानता कायम नहीं हो सकती। वर्तमान समाज द्वारा यह अपेक्षा किया जाना कि प्रत्येक व्यक्ति के अमानवीय व्यवहार पर नियंत्रण रखने के लिए मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रशासनिक स्तर पर पुलिसिया भूमिका को अख्तियार कर लिया जाए, यह स्थिति सामाजिक व्यवस्था में असंभव क्रिया – विधि का जीवंत नमूना ही कहा जाएगा।
मानवाधिकार की समग्रता का स्वरूप :
मानव का इंसान बने रहना जब कठिन प्रक्रियाओं का मंजर बन जाएगा तो सामाजिक उत्थान के लिए निमित्त बनी मर्यादाओं का उल्लंघन होना कोई असामान्य घटना नहीं होगी। सामाजिक सरोकारों के मध्य बदला लेने की नकारात्मक प्रवृत्ति को आज केवल मानवाधिकार का सकारात्मक एवं सार्थक पक्ष ही दिशा दे सकता है। क्या अमानवीयता का दंश मानवाधिकार को पूरी तरह से बेजान कर देने में सफल हो जाएगा? समस्त नीति – नियम इंसानियत और हैवानियत के इर्द – गिर्द घूमते हुए जब अपना अस्तित्व तोड़ देंगे और उसकी परवाह किए बिना मानव स्वयं की सच्चाई को जानने से अनभिज्ञ हो जाएगा, तो मानवाधिकार का सबल स्वरूप भी हमारे सामने निरीह होता दिखाई देगा।
अत: आंतरिक हृदय के उमंग – उत्साह के साथ सम्पूर्ण मानवता को मानवीय स्वरूप में एकत्रित करने हेतु मानव को मानव से जोड़ने की तीव्रगामी अंतर्यात्रा ही अमानवीयता के दंश से बेजान होते मानव अधिकार को पुनर्जीवित करके – सशक्त और सक्षम, समर्थ स्वरूप में स्थापित कर सकती है।