‘सातपगला आकाश माँ’ की लेखिका कुंदनिका कापड़िया गुजराती की एक जानी – मानी लेखिका हैं. ९३ साल की उम्र में उनका नंदीग्राम में निधन हो गया. लिंबडी में जन्मी लेखिका ने वलसाड के पास नंदीग्राम में अपने पति मकरंद दवे के साथ नंदीग्राम नामक आश्रम स्थापित किया था. प्रकृति प्रेमी लेखिका अपने आश्रम के लोगों में ‘ईशा माँ’के रूप में जानी जाती थी. वहीं उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँस ली. गुजराती साहित्य में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें १९८५ में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा गया था.
‘परोड थता पहेला ‘ १९६८ में लिखा गया उनका पहला उपन्यास है. उसके पश्चात् १९७२ में उन्होंने ‘अगनपिपासा’ लिखा. १९८४ में उनका ‘ सात पगला आकाश माँ’ उपन्यास आया. जिसने आलोचकों की ढेर सारी प्रशंसा प्राप्त की. ‘प्रेम ना आँसू’ उनकी पहली कहानी है जिसने जन्मभूमि अखबार द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में दूसरा पुरस्कार जीता. उसके बाद उन्होंने ओंर कहानियां लिखना शुरू किया. प्रेम ना आँसू – १९५४, वधु ने वधु सुन्दर- १९६८,कागद नी होडी-१९७८ ,जवा न दैशु तमने -१९८३,ओर मनुष्य थवु -१९९० है. उन्होंने १९५५ से १९५७ तक यात्रिक का तथा १९६२ से १९८० तक नवनीत का संपादन किया था.
लेखिका के रूप में कुन्दनिकाजी एक सिद्धहस्त कहानीकार थीं. किसी गूढ़ भावात्मक संवेदना से प्रेरित होकर वे कहानियाँ लिखती थीं. फेशनपरस्ती से वे दूर थी. जीवन है तो उसकी समस्याएँ भी हैं.उन समस्याओं का वे निदान ही नहीं करती उन पर टार्च लाइट भी डालती हैं. उनकी समस्याओं का समाधान उनके जीवन के प्रति देखने का उनका स्वस्थ दृष्टिकोण ही है. अपनी कहानियों में वे जीवन को प्रगट होने देती है और प्रकट होने की प्रक्रिया में उसका कोई मर्म,कोई सौंदर्य, कोई रहस्य खुलता है. उनकी कहानियों में स्त्री हृदय सहज रूप से प्रकट हुआ है. उनके चित्रित पात्रों में भिन्न – भिन्न स्तर के, कक्षा के, ग्रामीण तथा शहरी, स्त्री – पुरुष,बच्चे हैं. उनके कण – कण में लेखिका बसी हैं. उनके उजले तथा म्लान दोनों रूपों को लेखिका ने स्थान दिया है. सर्वत्र सहानुकम्पा का अभिसिंचन होता रहा है.
ऐश्वर्य,सुख और वैभव से परे उनकी सोना के लिए भौतिक सुख क्षणिक और नाशवंत है. जबकि बड़ी बहन अमिता के लिए ऐश्वर्य और सुख ही सबकुछ है. उनकी ‘सुख’ कहानी की बहनों की विचारधारा एक – दुसरे से बिल्कुल भिन्न है. सोना एक चिन्तनशील नारी है. बड़ी बहन को जैसा सुख मिला है वैसा सुख वह नहीं चाहती. विदेश से लौटकर आने पर भी वह अपने साथ जो कुछ लेकर जाती है वही सबकुछ लेकर वापस लौटती है. बड़ी बहन जो उसे लेने गई थी उसे देखकर गुस्सा हो जाती है –‘कैसे कपड़े पहने हैं?और बैग भी एक ही है. परदेस से कोई लौटता है तो कितना स्मार्ट लगता है.आठ वर्ष में जरा भी मोटी नहीं हुई.डायेटिंग की इसे जरा भी जरुरत नहीं.’ नारी का एक और नया रूप ‘छलना’ कहानी में देखने को मिलता है. शारीरिक रोग से व्यथित किंतु व्यथा को छिपाने की कोशिश करनेवाली पढ़ी – लिखी नायिका का चित्रण है. सुधा खुद के प्रति ही छल करके वांछित सुख के नशे में पली रहकर अपने गम को भुलाने की कोशिश करती है और अपने सहकर्मियों पर भी भ्रम का जाल बिछाए रखती है. वह अपने जीवन में कुंठा रूपी जहर पीने के लिए मजबूर है. उसे कोढ़ जैसा भयंकर शारीरिक रोग है जिसकी वजह से उसका विवाह नहीं हो पाता. अत: खुद का घर हो,पति हो, बच्चे हों आदि नारी – सुलभ इच्छाएँ अधूरी रह जाती है.
‘तो’ कहानी में बेटी के प्यार ममता के लिए तरसती स्त्री की व्यथा का निरूपण हुआ है. परन्तु खुद एक पति रूपी पुरुष की जोहुकमी सह रही थी. स्त्री का बौद्धिक अस्तित्व पति को स्वीकृत नहीं था.बुद्धि का, जीवन के एक विशाल अंश का त्याग कर जीना ही उसके सुख की शर्त थी. पति केवल बेटे ही चाहता था.कई बार हँसता और कहता – लड़की नहीं है अच्छा है.ब्याह की चिंता ……….दहेज़ की चिंता……मगर सुजाता का हृदय द्रवित हो जाता. उसके मन से टीस उठती : क्या बेटी बाप के लिए यही मायने रखती है? कोमल मधुर …….पाजेब की रुनझुन घर में झंकृत होती रहे …..घर को खुशियों से भर दे……. उसका कोई मोल नहीं ? पति उसके लिए प्रतिष्ठा और सलामती का पर्याय था तो बच्चे उसके इगो का एक्सटेंशन. उसे लगता जैसे वह विचारों, भावनाओं और प्रेम से दूर केवल चीजों में सरकती जा रही है. प्रेम नहीं था ऐसा नहीं था परन्तु उसका मतलब था केवल अधिकार और आत्मतृप्ति.
‘जवा दईशुं तमने’ कहानी कुन्दनिकाजी की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है. कहानी में वृद्धा मृत्यु शैया पर पड़ी है. मारिया नामक सबसे छोटी अंग्रेज बहु, जिससे शायद पहले कभी मुलाकात नहीं हुई थी. वह बहु देर रात वृद्धा के कमरे में आती है. थोड़ी देर बात करने के पश्चात् वृद्धा के मस्तक पर बहुत ही प्रेम से हाथ फेरते हुए पूछती है – ‘आपको भय तो नहीं लगता न ? अज्ञात का भय.सबकुछ अपना छोड़कर शून्य में समा जाने का भय ? आर यु अफ्रेइड ?’
……………और वृद्धा के मन में आनंद की एक लहर दौड जाती है. ये लड़की मुझे समझती है. मेरे भीतर भावनाओं, विचारों की कैसी उथल – पुथल मची है, जानना चाहती है. मेरे भय की उसे चिंता है ! कुंदनिका जी आगे लिखती हैं – ‘जीवन के अंतिम पलों में एक नया संबंध उदित हो रहा था. देर से ही सही लेकिन अत्यंत सुन्दर! लोग कहते हैं – पति जीवित हों तब तक स्त्री की अगर मृत्यु हो जाती है तो वह सौभाग्यवती कहलाती है. ओह ! लोग क्या जाने सौभाग्य क्या होता है? ये सौभाग्य है. अंतिम क्षणों के आकाश में एक नए संबंध का, एक नए प्रेम का इस तरह उदित होना सौभाग्य है! आनंद से मृत्यु को गले लगाना वही सबसे बड़ा सौभाग्य है!’
‘सात पगला आकाश मा’ उनके श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है. उपन्यास विशेष रूप से सत्य घटनाओं पर आधारित है. इस दुनिया में स्त्री का स्थान हमेशा दोयम दर्जे का रहा है.इस वास्तविकता को कहीं ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं. यह स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के सभी देशों में यही स्थिति रही है. इस तरह से उपन्यास में स्त्रियों के संघर्ष, उनकी समस्याओं, उनके व्यवहार आदि को सुन्दर ढंग से निरुपित किया गया है. स्त्री को पति की सेवा करनेवाली, पति के वंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र को जन्म देनेवाली साधन मात्र मानी जाती है. पुरुष प्रधान समाज में स्त्री पर अनेक प्रकार के बंधन,मर्यादाए, और नीति-नियम लगाए गए. स्त्री को सती होने के लिए केवल पति की निष्ठा की आवश्यकता है. पर एक पुरुष को संत बनने के लिए पुरुषार्थ या साधना करने की कोई आवश्यकता नहीं. ऐसी कई बातों और घटनाओ का इसमें निरूपण हुआ है. वे कहती हैं : मेरे कई उपन्यास चर्चित रहे हैं , पर ‘सात पगला आकाश माँ’ को में अपना सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास मानती हूँ, जिस पर मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. इस उपन्यास ने गुजराती महिलाओं की चेतना को इस तरह झकझोर दिया कि यह सामाजिक क्रांति का अग्रदूत बन गया. इस उपन्यास की पात्र वसुधा की पीड़ा से द्रवित होकर महिलाएंमुझे चिट्ठियां लिखती थीं, जबकि अनेक औरतें मेरे पास अपने जीवन की वेदना सुनाने आती थी. दूसरी ओर इस उपन्यास से नाराज कुछ पुरुषों ने मुझे धमकी देते हुए कहा की आपको जेल में होना चाहिए.’ यों समाज की महिलाओं की स्थिति ने उन्हें बहुत क्षुब्ध किया,इसलिए पत्रकारिता और साहित्य में औरतों के मुद्दों को उन्होंने प्रमुखता से उठाया. वे वर्षों तक यात्रिक और नवनीत पत्रिकाओं की संपादक रही. उन्होंने १९५५ से १९५७ तक यात्रिक तथा १९६२ से १९८० तक नवनीत का संपादन किया था.