आज धर्म को लेकर बड़ी बड़ी बहस बाज़ी हो रही है। बात बात पर हमारे धर्म, देवी- देवता का अपमान को लेकर कभी सिनेमा का बायकॉट करने की माँग, कभी किसी रंग को पहन कर नाच गाना करने पर बवाल! समझ नहीं आता कि हमारा धर्म इतना नाज़ुक है कि मात्र किसी कहानी के किरदार से, कविता की पंक्ति से किसी चित्र, किसी कार्टून से आहत हो जाता है और टूटकर बिखर जाता है।
हम अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़े, मिशनरी स्कूलों में भी पढ़ें पर क्या हमने अपना धर्म छोड़ दिया? उन्होंने हमे ईशू के बारे में बताया, हमारी आँखों से आँसू छलके जब उन्हें सूली पर लटके देखा। आज भी माँ की गोद में लहूलुहान बेटे के मृतक शरीर को देखती वह मूर्ति, peita जिसे पेरिस के लूवर louvre museum मे देखा था एक मॉ की वेदना को शिल्पकार में बड़ी बारीकी से अभिव्यक्त किया था। हमने देखा सुना और मानवीय करूणा व्यक्त की किंतु क्या हम उनके अनुयायी हो गए? वहाँ भी हमारे मन में राम थे और साँसों में कृष्ण।
हॉ कुछ तबका ऐसा था, जिसने अपना धर्म त्याग दिया और अन्य धर्म स्वीकार किया। किंतु यदि आपका धर्म उन्हें मंदिर में जाने न दें और उन्हें शूद्र कह उनके मुँह पर मंदिर के पट बन्द कर दे और यदि कोई और उन्हें अपने मंदिर में प्रेम देकर बुला ले उन्हें मनुष्य समझे तो क्यों नहीं वे उनके अनुयायी होगे? एक मंदिर, एक भगवान की प्रत्येक मनुष्य को आवश्यकता होती है! हमने उन्हें अपने कुओं से पानी नहीं पीने दिया। प्यासा मरने छोड़ दिया, सड़क पर चलने नहीं दिया उनकी परछाई से भी भी परहेज़ किया और यदि किसी निम्न जाति वाले ने वेद का एक श्लोक सुन भी लिया तो उसके कान में गर्म तेल डाल कर उसे बहरा कर देने वाला यह कौनसा धर्म है? हम कौन हैं किसी को निम्न कहने वाले?
याद है न आपको सियाराम शरण गुप्त जी कीं कालजयी रचना ‘एक फूल की चाह’! एक शूद्रकुल पिता और उसकी रुग्ण बिटिया की दर्दनाक कविता है। महामारी के दौरान बिटिया ज्वर में तप रही थी और पिता से मंदिर से प्रसाद के एक फूल की कामना करती है और विवश पिता कहता है –
“मैं अछूत हूँ मुझे कौन मंदिर में जाने देगा?”
पर बिटिया की गिरा गूंज रही थी गगन भर, ‘प्रसाद का एक फूल तो दो लाकर’
बेचारा पिता स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर बेटी का हठ पूरा करने मंदिर में जाता है और जैसे ही वह प्रसाद पाकर मंदिर से बाहर निकलने वाला होता है, उसे कुलीन वर्ग के लोग पहचान लेते हैं। शोर मच जाता है, बदजात कैसे मंदिर में आया! और उसे मारते पीटते है, जब तक वो घर लौटता है उसकी सुखिया के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। वो उसकी चिता पर एक फूल मंदिर का रखने की चाह में बिलख- बिलख रोता है।
धर्म का अर्थ क्या है? धर्म क्या भेदभाव करना सिखाता है? मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा व सबसे पवित्र एक धर्म है और वह है मानव धर्म।
मुझे याद है जब सिक्खों के प्रति आक्रोश था और चुन- चुन कर निरीह बेक़सूर सिक्खों को मौत के घाट उतार दिया था। मेरी सबसे घनिष्ठ सखी का सबसे छोटा भाई जो केवल कुछ माह का था जब पिता की मृत्यु हो गई थी। जिसे विधवा मॉ ने पाल पोसकर जवान किया और वो एक बांका जवान फ़ौजी अफ़सर बन कर अपनी पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले माँ के चरण छूकर मेरठ से निकला और ग़ाज़ियाबाद के पास ट्रेन में, मात्र उसके धर्म के चिन्हों पर उसकी गला काट कर हत्या कर दी। वो कहता रहा मैं फ़ौजी हूँ, मैं रक्षक हूँ पर धर्मान्ध, उन्मादित दहशतगर्दों के कानों तक उसकी अरदास नहीं पहुँची।
क्या यह धर्म के प्रति प्रेम है? प्रेम जोड़ता है न कि तोड़ता। प्रेम गले लगता है न कि गला काटता है। हम ही नहीं विश्व भर में धर्म के नाम पर नरसंहार हुए है।
कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी –
कच्चे तिनकों से नहीं बना है भारत देश
कच्चे धागों से नहीं सिला तिरंगा
कच्चे रंग है नहीं जो धुल जाएँगे किसी अफ़लातून की लगाई नफ़रत की बारिश में
किसी बरसात में दम नहीं जो धो दे उन रंगों को
कच्चे तिनकों से नहीं बना है अपना देश
चली ज़रा सी आँधी और बिखर गये?
धर्म को मिटा सके नहीं आया आज तक कोई सिकंदर
आज़मा कर देख चुके आक्रांता
बाबर अंग्रेज़ कलंदर
कच्ची सूत से नहीं बना कलावा धर्म का!
फट जाये किसी भी दरगाह की चादर तले।
घर – घर में मंदिर है तुलसी और शंख नाद
किसी चिखांड किसी गर्जना से डरा नहीं
सूर्य नमस्कार।
तीज, होली, दीवाली दीप जलते है
माथे पे सजता है रोली अक्षत नित्य प्रति
कोई धो दें किसी नदी के जल से
ऐसी नदी अब तलक बही नहीं!
हिमालय से निकलती गंगा
मानसरोवर की परिक्रमा
हिन्द महासागर की लहरें
यह त्रिकोणीय त्रिभंगा
प्राचीन सिन्धु घाटी की सभ्यता मिटा सके इसको
कोई ऐसा लाल धरती पर पैदा हुआ नहीं!
मोमबत्ती का मोम पिघला सके हमारे दीप की ज्योति
किसी कैंडल में इतना साहस नहीं
राम कृष्ण बुद्ध की भव्यता कम कर दे
किसी बुत में इतना दम नहीं!
भयाक्रान्त क्यों है आज तिलक
डर रहे मंदिर में कृष्ण?
कोई कंस नहीं हुआ पैदा
जो मार सका उन्हें आज तक!
क्यों भय है राम के मिट जाने का?
क्यों पीट रहे बचाओ – बचाओ का ढोल।
भय है?
या है यह टेढ़ी चाल?
शकुनि फेंक रहा फिर से पासे
महाभारत रचाने को।