“अन्तर्मन की पवित्रता को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु मानवीय संवेदनशीलता सर्वाधिक प्रखर एवं मुखर रूप से प्रेरणादायी भूमिका निभाती है जिसमें मानवनिष्ठ सरोकार के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही अन्तःकरण की पवित्र भावना का स्वरूप भाषायी शुचिता के द्वारा प्रतिबिंबित होता है। जीवन में सुख. शांति एवं आनंद के प्रकल्प की तलाश करते हुए व्यक्ति सैद्धान्तिक रूप से – ‘ रहिमन मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर…’ तक पहुँच जाता है जहाँ उसे स्वयं की भावना पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होते ही – ” जाकी रही भावना,जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…’ का व्यावहारिक एवं निष्पक्ष व्याख्या अनुगमन हेतु प्राप्त हो जाती है हृदय की निर्मलता से ही मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले विचारों की स्पष्टता अर्थात् बोधगम्यता के संदर्भ एवं प्रसंग में विश्लेषण निर्धारित हो पाता है जिसे मर्यादित आचरण द्वारा सम्प्रेषण को वृहद स्तर पर सामाजिक स्वीकारोक्ति के स्वरूप में मान्यता प्राप्त होती है।”
आत्मगत स्वरूप से क्षमा कल्याण : –
व्यवहार जगत में पवित्र अंतर्मन से स्वयं का अति सूक्ष्म मूल्यांकन क्षमा कल्याण की भावभूमि को स्वीकार करते हुए – क्षमा द्वारा आत्महित एवं परहित के संज्ञान से आत्मगत स्वरूप में उत्तम क्षमा का यथार्थवादी प्रयोग किया जाना जीवन की उच्चता का प्रमाण है। सर्व मानव आत्मा के लिए मंगलकारी परिवेश की व्यापकता हेतु शुभ भावना एवं शुभ कामना जीवन की श्रेष्ठतम प्रार्थना के साथ-साथ व्यावहारिक दृष्टि से घटित और फलित के प्रति वृहद कल्याणकारी प्रवृत्ति की शुभेच्छा का सात्विक परिणाम होता है। जीवन में निमित्त स्थिति की अनुभूति द्वारा सर्व जनहिताय कार्य करते हुए स्वयं को उन्मुक्त रखना ही निर्माण चित्त अवस्था की व्यावहारिकता है जो निर्मल हृदय के स्वरूप में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है तथा क्षमा कल्याण की सद्भावना शक्ति से निर्वाण को भी प्राप्त हो जाती है।
दया धर्म के मूल सिद्धांत को आत्मसात करके जीवन में व्यावहारिक रूप से अनुपालन करने पर जीव दया का संवेदनशीलता पक्ष , क्षमा के कल्याणकारी श्रेष्ठतम स्वरुप में परिलक्षित एवं प्रस्फुटित होकर वीरों का आभूषण बन जाता है। प्रकृति के पंच तत्वों का नैसर्गिक धर्म और व्यावहारिक कर्म सृष्टि के संपूर्ण प्राणी मात्र को दाता स्वरूप बनकर उन समस्त जीवात्मा के प्रति – दया , करुणा , प्रेम , वात्सल्य , सहयोग एवं सहानुभूति रूपी सद्गुणों के सानिध्य में जीवन पर्यन्त सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप से पालनहार की भूमिका में क्षमा कल्याण का भाव जगत भी सन्निहित रहता है।
मानवीय आचरण द्वारा व्यवहार दर्शन : –
जीवात्मा संपूर्ण जीवन काल में स्वयं को आत्मगत स्वभाव के आधारभूत पक्ष से नियम-संयम के प्रति संचेतना द्वारा सजगता हेतु मर्यादित शैली में चेतावनी प्रदान करती है क्योंकि उसके वृहद परिदृश्य में मानवीय आचरण की गरिमामयी स्थिति को बनाए रखना का मूलभूत उद्देश्य अर्न्तनीहित होता है। सामाजिक जीवन में मानवीय आचरण को अत्यधिक संवेदनशील स्वरूप में विश्लेषित किया जाता है जिसे अध्यात्म की आत्मिक ऊर्जा को आत्मसात करके ही स्वीकृत एवं सुनिश्चित किया जा सकता है जिसमें आत्मा की त्रिविध शक्तियाँ – मन, बुद्धि और संस्कार के श्रेष्ठतम सांमजस्य की कला समाहित रहती है। चेतना की पवित्रता से उपजने वाली उन्मुक्त अवस्था श्रेष्ठ व्यवहार को निभाने हुए मानवतावादी संबंध को विकसित करने में विश्वास रखती है जिसके परिणाम स्वरूप आत्मीय जुड़ाव के अंतर्गत निष्ठापूर्ण व्यावहारिकता की कुशलतम पृष्ठभूमि निर्मित हो जाती है।
आध्यात्मिक चिंतन के परिवेश की विराटता द्वारा – मन, वचन, कर्म, समय, संकल्प ,सम्बन्ध एवं स्वप्न में भी पवित्रता का पुरुषार्थ करने में संलग्न साधक – आचरण के आचार्य स्वरूप में पारदर्शी जीवन से सदा सृजित रहकर व्यवहार दर्शन की उपयोगिता को प्रतिपादित कर देते हैं। जीवन में उच्चतम व्यवहार की दीर्घकालीन अपेक्षा का आरम्भिक परिवेश निज आत्मन से सर्व आत्मन बंधुओं की ओर सम दृष्टि के सानिध्य में अग्रसर होता है जिसमें क्षमा भाव का कल्याणकारी दृष्टिकोण आत्मिक परिष्कार के हितार्थ सम्पूर्ण सक्रियता से क्रियाशील बना रहता है।
आत्मिक उत्कर्ष में मनोगत पवित्रता : –
मनोगत पवित्रता की अवधारणा जीवात्मा के कल्याणकारी स्वरूप का महत्वपूर्ण बिन्दु होता है जहाँ से मन की शुद्धता का आरंभिक काल श्रेष्ठतम के प्रति श्रद्धा को अभिव्यक्त करते हुए – शुभम करोति कल्याण ’ में आस्था का बीजारोपण कर देता है जिससे व्यक्तिगत मान्यता पवित्र कर्म को क्रियान्वित करने के लिए अग्रसर हो जाती है। आत्म हित की दिशा में जब स्व-परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाता है तब अन्तर्मन में रूपान्तरण की क्रियाविधि आत्मानुभूति के लिए सम्पूर्ण रूप से तत्पर हो जाती है और चेतना स्वयं को परिमार्जित करने के साथ ही परिवर्धन अर्थात आत्मगत विकास को आत्मिक परिष्कार के सम्बन्ध में पूर्णतया स्वीकार कर लेती है। व्यावहारिक जगत में मनोगत पवित्रता से अन्तःकरण के परिवेश को शक्तिशाली बनाने का कार्य पुरुषार्थ के द्वारा गतिशील रहता है जिसमें बाह्य जगत से भी मदद प्राप्त करने हेतु क्षमा भाव के कल्याणकारी परिदृश्य को अनुकरण एवं अनुसरण करने की सदा अनिवार्यता बनी रहती है।
अनहद नाद का निरंतर अभ्यास आत्म तत्व एवं परमात्म सत्ता के पवित्रम संबंधों का आधार बनता है जिसमें स्वयं से संवाद हेतु आत्म दर्शन की प्रक्रिया को आत्मसात करना होता है इसके साथ ही परमात्म दर्शन से परमानंद स्वरूप की अनुभूति आत्मिक उत्कर्ष का कारण बन जाती है। जगत में – मन, वचन एवं कर्म से पवित्र आत्माओं को ही चरित्रवान और महान आत्मा की संज्ञा से निरूपित किया जाता है तथा उनके जीवन को मूल्यवान स्वरूप में स्वीकार करके सर्व मानव आत्माओं के कल्याण में सहयोगी बनने के कारण आभार युक्त भाव अभिव्यक्त किया जाता है।
भाव भासना का नैसर्गिक उपयोग : –
प्रकृति प्रदत्त सृजनात्मक विद्या के अंतर्गत – ‘ सृजन के लिए सृजन ‘ की उत्पत्ति एवं उसका नैसर्गिक उपयोग चिन्तनशील स्वरूप में विद्यमान रहता है जिसमें मानवीय भावना और भासना अपनी सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से जीवात्मा की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं। आत्मीयता से युक्त भाव एवं भासना मनुष्य जीवन में मधुर सम्बन्धों महत्वपूर्ण आधार होते हैं जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व को क्षमा के कल्याणकारी गुण के साथ जोड़ देने पर आत्मगत चिंतन का परिवेश ही परिष्कृत स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है। भाव जगत की पवित्रता को बनाये रखने के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में तत्व चिंतन की ओर अभिमुखित होते हुए आत्मा और परमात्मा के गुणानुवाद से समर्पित चेतना को सम्पूर्णता एवं सम्पन्नता अर्थात आत्म वैभव की भासना से अभिसिंचित करने का पुरुषार्थ सहजता से किया जाना परम आवश्यक होता है।
आन्तरिक और बाह्य जगत के वातावरण को सौहार्दपूर्ण बनाये रखने हेतु भाव एवं भासना का नैसर्गिक उपयोग क्षमा कल्याण के सद्गुण से सुसज्जित होकर अर्न्तमन को शक्तिशाली बनाने की क्रियाविधि में गहनता से संलग्न रहता है। मानवीय व्यवहार के केन्द्र में जीवन के मूल्यपरक गुणों एवं शक्तियों से युक्त विभिन्न प्रकार की आदर्श स्थितियां होती हैं जिनके अनुगमन हेतु अंत:करण की पवित्रता से युक्त मनोगत की उपस्थिति सदा ही उपयोगी होती है।
सुख शांति हेतु भावना भासना : –
आत्म जगत से सम्बंधित सम्पूर्ण स्वरुप का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि आत्मा के स्वमान , स्वरूप एव स्वभाब में अर्न्तनीहित तत्व क्षमा के कल्याणकारी स्वरूप स प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध हैं जिसके द्वारा सर्व मानव आत्माओं को व्यवहार दर्शन से आत्म साक्षात्कार सुनिश्चित हो जाता है। अन्तर्मन की पवित्रता को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु मानवीय संवेदनशीलता सर्वाधिक प्रखर एवं मुखर रूप से प्रेरणादायी भूमिका निभाती है जिसमें मानवनिष्ठ सरोकार के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही अन्तःकरण की पवित्र भावना का स्वरूप भाषायी शुचिता के द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। जीवन में सुख. शांति एवं आनंद के प्रकल्प की तलाश करते हुए व्यक्ति सैद्धान्तिक रूप से – ‘ रहिमन मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर…’ तक पहुँच जाता है जहाँ उसे स्वयं की भावना पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होते ही – ” जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…’ का व्यावहारिक एवं निष्पक्ष व्याख्या अनुगमन हेतु प्राप्त हो जाती है।
हृदय की निर्मलता से ही मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले विचारों की स्पष्टता अर्थात् बोधगम्यता के संदर्भ एवं प्रसंग में विश्लेषण निर्धारित हो पाता है जिसे मर्यादित आचरण द्वारा सम्प्रेषण को वृहद स्तर पर सामाजिक स्वीकारोक्ति के स्वरूप में मान्यता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक परिदृश्य के अन्तर्गत प्रविष्ठता से मुक्ति एवं जीवन मुक्ति की प्रासंगिकता को ढूंढ़ने का जतन मानवीय स्वभाव की प्रवृत्ति में समाविष्ट होता है जिसे क्षमा की पवित्र भावना एवं विचार द्वारा कल्याणकारी स्वरूप में प्राप्त करके आत्महित से शुद्ध उपयोग का श्रेष्ठतम परिवेश निर्मित किया जा सकता है।