“उसके चश्मे का काँच उसी की आँखों में धंसा था, कॉलर बोन टूट चुकी थी, पैर 90 डिग्री के कोण पर थे और पेल्विस चकनाचूर….” जिस सिहरते मन और काँपते हाथों से मैं कोलकाता की डॉक्टर से जुड़े इस तथ्य को लिख रही हूँ, उससे लाख गुना अधिक क्षोभ और क्रोध से भी भरी हूँ। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की वर्ष 2022 में जारी रिपोर्ट के अनुसार हर 15 मि. में एक और प्रत्येक माह 2700 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। अब याद करने की कोशिश कीजिए कि कितने अपराधियों को अब तक फ़ांसी हुई है या जेल ही गए हैं। उत्तर अपने आप सामने आ जाएगा कि बलात्कारियों की हिम्मत और वीभत्सता कैसे बढ़ती जा रही है! समझ लीजिए कि बलात्कार अब इतना आम हो चुका है कि उसकी जघन्यता ही उसे खबरों में लाती है। मेरी इन पंक्तियों को लिखते समय भी न जाने कितनी ऐसी स्त्रियाँ होंगी जिनके साथ यह कुत्सित कृत्य हो रहा होगा! वे न खबर में आएंगी, न न्याय की गुहार ही लगाएंगीं। घर, परिवार की नाजुक ‘नाक की रक्षा’ करते हुए एक गहरी चुप्पी, घुटन और अवसाद से भरा जीवन भुगत चुपचाप इस दुनिया से गुज़र जाएंगीं।
हाल के हादसे में हम इन प्रश्नों के उत्तर भी चाहते हैं कि “क्या वहाँ कोई कैमरा नहीं था? उसकी कोई साथी नहीं थी? सुरक्षा के क्या इंतज़ाम थे? क्या किसी को सचमुच कुछ नहीं पता?” सबको पता होता है, पर बोलता कौन है!”लेडीज़ वॉशरूम क्यों नहीं था?” इस प्रश्न को तो हम इस देश में कहाँ-कहाँ पूछेंगे लेकिन यह तो बताया ही जा सकता है कि जहाँ स्त्रियों के लिए वॉशरूम तक नहीं है वहाँ उनकी नाइट ड्यूटी क्यों लगाई जाती है? और अगर यह नाइट ड्यूटी लगाना भी परम आवश्यक है तो हटाइए पुरुषों को ऐसे सब स्थानों से क्योंकि हमें अब चाहकर भी किसी पर भरोसा नहीं करना है। हाँ, जानते हैं कि अच्छे पुरुष भी बहुत हैं समाज में, पर किसके चेहरे पर लिखा है?
बात इस एक कांड की ही नहीं है। इतिहास पलट लीजिए। हर स्थान पर यही सब दोहराया जाता है। किसकी भूमिका सही थी, किसकी गलत इन सबका हिसाबी नाटक कागज़ों पर अनवरत चलता रहेगा। एक उच्च स्तरीय समिति कारणों की जाँच करने को भी बैठा दी जाएगी, जो किन्हीं और उच्च लोगों के कहे अनुसार मुँह खोलेगी और अपराधी वर्षों मुफ़्त की रोटी तोड़ता हुआ एक दिन अपनी आरती उतरवा रिहा भी हो जाएगा। सिस्टम और इसका काम करने का तरीका हम बहुत अच्छे से समझ चुके हैं। और यह यूँ ही नहीं है। हाथरस, उन्नाव, मंदसौर, कठुआ, मणिपुर और देश के लगभग हर राज्य की स्त्रियों ने यही पीड़ा भोगी है। उसी से समझे हैं कि ‘लकवाग्रस्त सिस्टम’ को किसी की भीषण चीत्कार से रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ता!
इसे फ़र्क़ पड़ता है इस बात से कि “कौन जात है!, गरीब है कि अमीर?” यदि हिंदू-मुस्लिम ऐंगल मिल गया, फिर तो नेताओं की बल्ले-बल्ले! आनन-फानन में जमकर राजनीति की बिसात बिछाई जाती है। यह प्रिय ऐंगल न मिला तो देखा जाता है कि भइया उस राज्य में सरकार किसकी है? फिर अपने-अपने पसंदीदा दल का पक्ष रखने, उस हिसाब से घटना की विवेचना करने और उसका राजनीतिक लाभ उठाने को चमचों का एक भरा पूरा दल सशस्त्र सोशल मीडिया पर तैनात रहता ही है। वह स्त्री के वस्त्रों से लेकर उसके सोशल मीडिया अकाउंट के वर्णन के साथ उसका चाल-चलन पूरे चटखारे के साथ बताता है और चरित्र पर हमला करने में एक पल को चूकता नहीं! परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के अश्लील तमाशे में न्याय की तो बात ही कहाँ होती है। ज्यादा हुआ तो मामला दबाने की पुरजोर कोशिश होती है या फिर मुआवजे की लिजलिजी चाशनी टपकाई जाती है। छी! घिन आती है इस अवसरवादी, बदबूदार व्यवस्था पर! ये घिनौने अपराधी स्वयं ही मर क्यों नहीं जाते!
क्या ही तमाशा बना रखा है! गिरना, पड़ना, झुकना, कटना, तेजाब से जलना, बलात्कार, चूल्हे में झोंककर मरना, टुकड़े होकर तंदूर में भूना जाना, लाश का बोरी, सूटकेस, गहरी खाई या जंगलों में मिलना यह सबऔर इससे कहीं अधिक उस स्त्री के हिस्से आया है जिसे यह समाज मनुष्य तो समझता ही नहीं लेकिन दिन रात देवी मानने का ढोंग जरूर रचता आया है। पर एन मौके पर वह देह भर रह जाती है, मरने के बाद भी उसकी आत्मा को चैन नहीं लेने दिया जाता। समाज के रहनुमाओं की संवेदनाएं कहीं सुरक्षित ऊपर लटक जाती हैं जिन्हें उचित अवसर मिलते ही छींके से उतार लिया जाता है।
मेरे पास शब्द नहीं है कि इन अपराधी, जंगली नरभक्षियों को क्या नाम दूँ लेकिन पीड़िता के परिवार का सोचती हूँ और सिर फटने लगता है। वे माता-पिता जो एक हल्के बुखार में भी सारी रात अपनी फूल सी बच्ची के माथे पर ठंडी पट्टियाँ रखते थे, वे उस लाड़ली के साथ हुए इस दर्दनाक हादसे से क्या कभी उबर सकेंगे? मैं यह सोचकर भी बेचैन हूँ कि जिस घटना ने हम सबको झकझोरकर रख दिया है तो उन पीड़ित लड़कियों के माता-पिता को नींद कैसे आती होगी अब? वह क्षतविक्षत शरीर और कुचली आत्मा कैसे भूल सकेंगे वे! कैसे उनके भाई उम्र भर अपनी मुट्ठियाँ भींचते रहेंगे?, कैसे उनकी बहिनें और घर की स्त्रियाँ घर से बाहर पैर रखने में थर-थर काँपेगी? रीत तो यही चली आई है न कि अपराधी को नहीं बल्कि पीड़िता के परिवार को अब और डरना होता है। हमने तो उनकी हत्याओं की भी खबरें देखी हैं।
आडंबर पसंद समाज को एक और किस्सा मिल गया, लड़कियों को भयभीत करने का? उन्हें क़ैद में रखने का! उन्हें पुनः गर्त में धकेलने का!
ये जो भय हर बेटी और उसके माता-पिता के हृदय में भीतर तक धँस गया है इसने हमें केवल तोड़ा ही नहीं है बल्कि पुनः कई सदी पीछे पहुँचा दिया है। ये भय ही है जो उन्हें इस आदिम युग तक बार-बार छोड़ आता है जहाँ उन्हें बेटियाँ बोझ लगती थीं और वे बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती-प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या को सही ठहराया करते थे। जानते हो न! सदियाँ लगी हैं हमें इन कुरीतियों से बाहर निकलने में। इन जंगलियों को अंदाज़ भी नहीं कि इन्होंने क्या कर दिया है। एक लंबे संघर्ष के बाद तो स्त्रियों ने पढ़-लिखकर घर से निकलना सीखा, बेड़ियों से निज़ात पाई लेकिन मनुष्य का भेस धरे कुछ निर्मम, क्रूर, देह के भूखे जंगली जानवरों ने स्त्रियों को नोच-नोचकर उसी आदिम युग में फिर धकेल दिया है। ये मानवता के लिए तो शर्मनाक है ही, देश के लिए भी डूब मरने वाली बात है।
स्वतंत्रता का गान हम अब भी गाते हैं लेकिन दिल जानता है कि स्वतंत्रता के तमाम उत्सवों के मध्य हम कितने असुरक्षित हैं। स्त्री समाज का मन, विश्वास और व्यवस्था पर भरोसा पूरी तरह छलनी हो चुका है।
समाज द्वारा लड़कियों को तो बहुत उपाय बताए जाते हैँ कि “रात को न निकलो, ये न पहनो, वो न करो, झुककर रहो, डरकर रहो, वो तो लड़का है, तुम्हारी इज़्ज़त न लूट ले कोई, हम तो भले के लिए कहते हैं….” और ऐसी ही सैकड़ों सलाहें कोई भी बिन मांगे दे जाता है। वर्षों से हमें ज्ञान ही तो बाँटा जा रहा है कि जरूरत पड़ने पर दुर्गा बनो, काली बनो, फूलन बन जाओ लेकिन उन राक्षसों को कोई एक सामान्य सा व्यवहार नहीं सिखा पाया कि “मनुष्य बनो और सबका सम्मान करना सीखो!” हमें देवी बनने का कोई शौक़ नहीं! मत कीजिए हमारी पूजा! लेकिन हमें इंसान समझने में क्या दिक्कत है?
जब से तमाम बलात्कारियों और अपराधी बाबाओं को चुनाव लड़ते, मुस्कुराते हुए जमानत पर रिहा होते और नेताओं का वरदहस्त पाते देखा है तबसे यह कहने की इच्छा ही बिल्कुल मर चुकी है कि “अपराधी के साथ भी वही करो, उसके टुकड़े कर दो, ज़िंदा जला दो, वगैरह वगैरह!” जानती हूँ यह सब स्वयं को झूठा दिलासा देने से अधिक कुछ नहीं है। ये रैलियाँ, कैंडल मार्च, निरर्थक चर्चाएं, यह रोष सब हमारी दिनचर्या के हिस्से में धीरे-धीरे घुलते जा रहे हैं। संभव है कि आज विचलित होती तमाम स्त्रियां भी एक दिन मानवता भूल जाएं और उनमें ममता, दया, करुणा, आशा के समस्त भाव विलुप्त हो जाएं! क्या करें? समाज और व्यवस्था यदि स्त्री को पाषाण बनाना चाहते हैं तो यह भी सही!
बेतहाशा दुख और निराशा के साथ कहना पड़ रहा है कि समाज भरोसे के लायक़ नहीं रहा! हम अपना देख लेंगे कि क्या और कैसे करना है लेकिन अब इतने मूर्ख नहीं रहे कि सड़ी गली व्यवस्था से न्याय की कोई आस रखें! अपना झूठा दिलासा अपने पास रखिए।