सिक्किम भारत का 22 वां राज्य है I इसके पश्चिम में नेपाल, उत्तर में तिब्बत, दक्षिण में प. बंगाल और पूरब में भूटान है I तिब्बत, नेपाल, भूटान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर अवस्थित सिक्किम एक लघु पर्वतीय प्रदेश है । यह सम्राटों, वीर योद्धाओं और कथा-कहानियों की भूमि के रूप में विख्यात है । पर्वतों से आच्छादित इस प्रदेश में वनस्पतियों तथा पुष्पों की असंख्य प्रजातियां विद्यमान हैं । सिक्किम राज्य की स्थापना 16 मई 1975 को हुई थी I इसकी राजधानी गंगटोक है I प्रदेश में चार जिले और सोलह सबडिविजन हैं I तीस्ता नदी सिक्किम की जीवनधारा है I यह सिक्किम की एक मात्र नदी है जिसकी अनेक उपनदियाँ हैं I सिक्किम में 150 से अधिक प्राकृतिक झील हैं जिन्हें अत्यंत पवित्र माना जाता है I कुल भौगोलिक क्षेत्र 709,600 हेक्टेयर में से मात्र 13.67 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य है I कुल क्षेत्रफल की 42 प्रतिशत भूमि में वन है I मौसम की दृष्टि से सिक्किम अत्यंत खूबसूरत जगह है I इस प्रदेश की गणना भारत के उन चुनिन्दा राज्यों में होती है जहाँ हर साल नियमित तौर पर बर्फ़बारी होती रहती है। यहाँ के निवासी हमेशा नियंत्रित और सुहाने मौसम का मजा लेते हैं। यहाँ का मौसम उत्तरी क्षेत्र में टुन्ड्रा से पूर्वी क्षेत्र में उपोष्णकटिबंधीय मौसम में बदल जाता है। उत्तरी क्षेत्र हर साल चार महीने बर्फ से आच्छादित रहता है और यहाँ का तापमान 0 डिग्री सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है। यहाँ का मौसम सुहाना इसलिए भी रहता है क्योंकि यहाँ का तापमान गर्मियों में कभी 28 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा नहीं होता है और जाड़े में 0 डिग्री सेल्सियस पर जमता नहीं है। सिक्किम को रहस्यमयी सौंदर्य की भूमि व फूलों का प्रदेश जैसी उपमाएं दी जाती हैं। नदियां, झीलें, बौद्धमठ और स्तूप बाहें फैलाए पर्यटकों को आमंत्रित करते हैं। विश्व की तीसरी सबसे ऊंची पर्वत चोटी कंचनजंगा राज्य की सुंदरता में चार चांद लगाती है। सिक्किम को चार भागों में बांटा जा सकता है-पूर्वी, पश्चिमी-उत्तरी और दक्षिणी सिक्किम । पूर्वी सिक्किम में 2000 वर्ष पुरानी इंचे मोनास्ट्री है। व्हाइट मेमोरियल हाल में फूलों के त्योहार मनाए जाते हैं व जड़ी-बूटियों के पौधे भी देखने को मिलते हैं। सिक्किम सरकार ने वर्ष 1998 में पवित्र धार्मिक स्थलों, गुफाओं, बौद्ध मठों की जांच करने के लिए एक समिति का गठन किया था I समिति ने सरकार के सामने अपनी अनुशंसा प्रस्तुत की जिसके आधार पर सिक्किम सरकार ने 24 अप्रैल 2001 को पवित्र शिखरों, गुफाओं, चट्टानों, झीलों आदि को सबसे पवित्र बौद्ध धर्म स्थल घोषित किया I
लेपचा-सिक्किम में कंचनजंघा के निकट लेपचा समुदाय का निवास है I इन्हें ‘रोंग’ अथवा ‘मोन-पा’ भी कहा जाता है I वेलोग स्वयं को “रोंगकुप” कहते हैं I तिब्बती इन्हें “मोन” कहते हैं तथा भूटानी इन्हें “मेरी” कहते हैं I लेपचा सिक्किम राज्य के उच्च पर्वतीय घाटियों में विशेष रूप से कंचनजंगा पर्वत के निकट रहते हैं । कुछ लेपचा पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग और पड़ोसी देश भूटान और नेपाल में भी रहते हैं। लेपचा लोगों को हिमालय की कठिन तराई में जीवन निर्वाह करने का कौशल ज्ञात है I उनकी मातृभूमि को ‘मएल लाएंग’ के रूप में जाना जाता है जिसका अर्थ वास्तव में भगवान का आशीर्वाद होता है। ऐसा माना जाता है कि ‘लेपचा’ नेपाली शब्द ‘लेपचे’ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘’व्यर्थ बोलनेवाला” अथवा अधम, नीच । यह पहले अपमानजनक उपनाम था, लेकिन अब इसे नकारात्मक रूप में नहीं देखा जाता है। लेपचा की उत्पत्ति के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । कुछ लोगों की मान्यता है कि वे म्यांमार, तिब्बत या मंगोलिया में उत्पन्न हुए हैं, लेकिन लेपचा लोग दृढ़ता से मानते हैं कि वे इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं। वे तिब्बती-बर्मी भाषा बोलते हैं । इसके आधार पर कुछ नृविज्ञानी मानते हैं कि वे तिब्बत, जापान या पूर्वी मंगोलिया से आए थे । वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार सिक्किम में इनकी आबादी लगभग 9 % है। लेपचा लोग मांसाहारी होते हैं तथा गोमांस, सूअर मांस, बकरी आदि जानवरों के मांस खाते हैं I मक्का, गेहूं, बाजरा इनका मुख्य भोजन है I वे कंद–मूल, बांस का कोंपल और अनेक प्रकार की जंगली सब्जियाँ भी खाते हैं I सिक्किम के गाँवों में प्रातःकाल में मक्का, चिउरा, उबले आलू आदि के साथ लोग चाय अथवा मदिरा पीते हैं I दोपहर के समय येलोग भात, दाल, तरकारी और अचार खाते हैं I कुछ लोग मक्के अथवा कोदो या गेहूं की रोटी भी खाते हैं I येलोग रात्रि के भोजन में भी भात, दाल, तरकारी और अचार खाते हैं I ग्रामीण लोग मक्के का भात भी खाते हैं I धीरे–धीरे रात में लोग चावल की जगह रोटी खाने लगे हैं I लेपचा समुदाय द्वारा मदिरा का नियमित उपयोग किया जाता है I मदिरा का इनके दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान है I इनके सभी संस्कारों– उत्सवों में मदिरा परोसी जाती है I लेपचा समुदाय में जातीय भेदभाव नहीं है, लेकिन जन्म और विवाह के आधार पर ये अनेक समूहों में विभक्त हैं I पिता की मृत्यु के बाद उसकी जमीन सभी पुत्रों के बीच बराबर भागों में बाँट दी जाती है जबकि माता के गहने बेटियों को दे दिए जाते हैं I पिता की मृत्यु के बाद माँ और बहन बड़े पुत्र के साथ रहती हैं I संपत्ति में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं होता है I खेती में महिलाएं महत्वपूर्ण योगदान देती हैं I महिलाएं जलावन की लकड़ियाँ और पीने के लिए पानी लाती हैं तथा कताई– बुनाई करती हैं I लेपचा समुदाय की आजीविका का मुख्य साधन कृषि है I वे विभिन्न प्रकार की फसलें जैसे- मक्का, चावल, इलायची और सब्जियां उगाते हैं I वे बकरियां और सूअर भी पालते हैं। लेपचा लोग बहुत विनम्र और भद्र होते हैं I उनकी संस्कृति में आक्रामकता और प्रतिस्पर्धा का कोई स्थान नहीं है । लेपचा समुदाय की अपनी लेपचा भाषा है। लेपचा भाषा को “रोंगरिंग” कहते हैं I लेपचा भाषा को वर्ष 1977 में सिक्किम की राजभाषा का दर्जा दिया गया I स्कूल और कॉलेज स्तर तक लेपचा भाषा की पढाई होती है और इस भाषा में पाठ्यपुस्तकें भी तैयार हो चुकी हैं I आकाशवाणी से लेपचा भाषा में समाचार एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रसारित होते हैं I यह तिब्बती-बर्मी समूह की भाषा है। लेपचा भाषा की अपनी लिपि है जिसे ‘रोंग’ या लेपचा लिपि कहा जाता है I यह तिब्बती लिपि से ली गई है । इसे 17 वीं और 18 वीं शताब्दी के बीच संभवतः सिक्किम के तीसरे चोग्याल (तिब्बती राजा) के शासनकाल के दौरान थिकुंग मेन्सालोन्ग नाम के एक लेपचा विद्वान द्वारा विकसित किया गया था । लेपचा पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह नीदरलैंड्स के लीडेन में मिला है जहाँ 180 से अधिक लेपचा पुस्तकें उपलब्ध हैं ।
भूटिया-भूटिया तिब्बती मूल के हैं। इन्हें ‘भोटिया’ भी कहा जाता है I इनका मूल निवास स्थान ‘भोट’ (तिब्बत) होने के कारण इन्हें भूटिया कहा जाता है I तिब्बत का प्राचीन भारतीय नाम “भोट” था I इसलिए जो ‘भोट’ अथवा तिब्बत से आया उसे भूटिया कहा गया I 15 वीं शताब्दी के बाद ये लोग सिक्किम में आए । भूटिया मुख्य रूप से सिक्किम के उत्तरी भाग में बसे हुए हैं तथा इस प्रदेश में इनकी आबादी कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत है I इन्हें लछेनपा और लाचुंगपा भी कहा जाता है । इन्हें लोपो भी कहा जाता है I भूटिया समुदाय ने अपनी परंपरा, संस्कृति, धर्म आदि के कारण सिक्किम में अपनी एक अलग पहचान बनायी है I यह समुदाय अनेक गोत्रों में विभक्त है I येलोग माँसाहारी होते हैं तथा गोमांस और सूअर का मांस इन्हें अधिक पसंद है I मांस के साथ चावल इनका नियमित भोजन है I वे फल और सब्जियाँ भी खाते हैं I खाना बनाने के लिए वेलोग पशुओं की चर्बी या मक्खन का उपयोग करते हैं I मोमो और थुकपा (नूडल्स) इनके अन्य खाद्य पदार्थ हैं । पिता परिवार का मुखिया होता है I परिवार में लड़कियों की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है I पिता की मृत्यु के बाद माता परिवार का उत्तरदायित्व संभालती है I इस समुदाय में जन्म संबंधी संस्कारों का विधिवत पालन किया जाता है I जन्म के बाद माँ-बच्चे का जल से स्नान कराया जाता है I उन्हें परिवार के अन्य सदस्यों से अलग रखा जाता है I जन्म के बाद नवजात बच्चे को थोड़ा मक्खन और शहद की कुछ बूँदें दी जाती हैं I दूसरे दिन से उसे मक्खन के साथ चावल का आटा दिया जाता है I जन्म के तीन दिनों के बाद लामा द्वारा माँ और बच्चे का शुद्धिकरण संस्कार कराया जाता है जिस अवसर पर परिवार के सभी सदस्य एवं सगे–संबंधी एकत्रित होते हैं I इस समय बच्चे का नामकरण भी किया जाता है I लामा द्वारा बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना की जाती है I भूटिया सिक्किमी भाषा बोलते हैं जो तिब्बती भाषा की एक बोली है। लेपचा समुदाय की अपेक्षा भूटिया बड़ी संख्या में गाँवों में बसे हैं। भूटिया घर को ‘खिन’ कहा जाता है जो आम तौर पर आयताकार होता है। पुरुषों की पारंपरिक पोशाक को ‘बाखू’ कहा जाता है जो पूरी आस्तीन के साथ ढीले कपड़े का एक प्रकार है। महिलाओं की पोशाक में सिल्क की ‘होंजू’ शामिल है जो पूरी आस्तीन की ब्लाउज और ढीला गाउन होता है। महिलाओं को शुद्ध सोने से बने भारी गहनों का बहुत शौक है। भूटिया परिवार में शादी परस्पर बातचीत के माध्यम से होती है। शादी से पहले लड़के का चाचा उपहारों के साथ अपने भतीजे के लिए हाथ मांगने लड़की के घर जाता है। भूटिया समाज में शादी–विवाह एक खर्चीला और जटिल संस्कार है I माता–पिता और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा अधिकांश विवाह आयोजित किए जाते हैं I विवाह की पहल वर पक्ष की ओर से की जाती है I सर्वप्रथम वर पक्ष की ओर से लड़के के चाचा या किसी भरोसेमंद व्यक्ति को लड़की के माता–पिता और लड़की की इच्छा जानने के लिए भेजा जाता है I गाँव के दो– तीन और व्यक्ति भी उनके साथ होते हैं I इसे दिचंग कहा जाता है I उपहार के रूप में वे अपने साथ मदिरा लेकर जाते हैं I उनके साथ ज्योतिषी भी जाते हैं जो लड़के– लड़की की कुंडली का मिलान करते हैं I वे विवाह की शुभ तिथि भी बताते हैं I कुछ औपचारिकताओं के बाद यह दल वापस आ जाता है I यदि तीन दिनों के भीतर कन्या पक्ष मदिरा लौटा देता है तो समझा जाता है कि लड़की के माता– पिता को यह रिश्ता मंजूर नहीं है, लेकिन यदि तीन दिनों के भीतर कन्या पक्ष द्वारा मदिरा नहीं लौटाई जाती है तो मान लिया जाता है कि उन्हें विवाह का प्रस्ताव मंजूर है I इसके बाद ‘खचन’ की तैयारी की जाती है I इसके बाद ‘नंग–चंग’ का आयोजन होता है जिसमें मध्यस्थ पुनः एक बार लड़की के घर जाता है और उसके चाचा से लड़की के लिए माँग के बारे में जानकारी प्राप्त करता है I माँग में नकद रुपए, सूअर, एक बोरा चावल, मदिरा, आटा, चाय, मक्खन आदि वस्तुएं शामिल होती हैं I इसके बाद विवाह की तिथि निश्चित की जाती है I विवाह समारोह में सगे–संबंधियों, मित्रों और पड़ोसियों को आमंत्रित किया जाता है I लामा द्वारा विवाह संपन्न कराए जाते हैं I सभी आमंत्रित अतिथि और रिश्तेदार खाते–पीते और नाचते–गाते हैं I सभी आमंत्रित अतिथि और ग्रामीण दूल्हा–दुल्हन को उपहारों के साथ सुखी जीवन का आशीर्वाद देते हैं I
नेपाली-सिक्किम में लेपचा और भूटिया समुदाय के बाद नेपाली लोगों का आगमन हुआ । अंग्रेजों के आगमन के बाद उन्नीसवी शताब्दी में नेपाली समुदाय के लोग सिक्किम में आए I वे खेती–किसानी करने के लिए यहाँ आए थे, परंतु धीरे–धीरे उन्होंने भूटिया और लेपचा समुदाय की भूमि पट्टे पर ले ली और उस पर खेती करने लगे I दार्जिलिंग के निकट अंग्रेजों के चाय बागानों में काम करने के लिए भी नेपाली लोगों को बुलाया गया था I वे खेती करने का तरीका जानते थे I इन्होने सिक्किम में सीढ़ीनुमा खेती की शुरुआत की I नेपाली लोग मेहनती और मितव्ययी होते हैं I अपने कठोर परिश्रम और लगन के बल पर नेपाली समुदाय ने कुछ ही समय में समृद्धि प्राप्त कर ली I अपने अध्यवसाय से इन लोगों ने सिक्किम में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है I जिस पट्टे की जमीन पर इन लोगों ने खेती शुरू की थी उस जमीन को खरीदकर उसके मालिक बन गए I वर्तमान में यहाँ कुल आबादी में 70% जनसंख्या नेपाली समुदाय की है। इस समुदाय के लोगों द्वारा राज्य में इलायची की खेती की शुरुआत की गई थी। नेपाली लेपचा की तरह एक सजातीय समूह नहीं है। यह भिन्न- भिन्न और विशिष्ट जनजातियों व समुदायों का एक समूह है जिन्हें मोटे तौर पर दो बुनियादी समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है- मंगोलियन और आर्य। सिक्किम में लिंबू को भी नेपाली कहा जाता है, लेकिन वे लोग स्वयं को नेपाली नहीं मानते हैं। इसी तरह शेरपा को संवैधानिक रूप से भूटिया समूह के अंतर्गत रखा गया है, लेकिन वे खुद को नेपाली मानते हैं। केवल नेपाली भाषा बोलने के आधार पर किसी को नेपाली नहीं कहा जा सकता है I भूटिया, लेपचा या मारवाड़ी लोग नेपाली के अलावा कोई भी भाषा नहीं जानते हैं, फिर भी उन्हें नेपाली नहीं माना जाता है, लेकिन लिंबू, राई या गुरुंग समुदाय के लोग नेपाली नहीं बोलकर अपनी भाषा बोलते हैं, फिर भी अन्य लोगों के लिए वे नेपाली हैं । अतः नेपाली पहचान न केवल भाषाई है, बल्कि नस्लीय और ऐतिहासिक है I नेपाली एक छतरीनुमा शब्द है जिसके अंतर्गत अनेक जनजातियों और समुदायों को प्रतिनिधित्व मिलता है। नेपाली में निम्नलिखित समूहों को शामिल किया गया है-बाहुन (ब्राह्मण), ठकुरी, छेत्री, नेवार, राई, गुरुंग, तमांग, लिंबू, मंगर, जोगी, भुजेल, थामी, योलमो, शेरपा, देवान, मुखिया, सुनार, सरकी, कामी, दमाई । बाहुन, छेत्री, ठकुरी, कामी, सरकी और दमाई को छोडकर शेष समुदाय की अपनी भाषा, परंपरा, संस्कृति, नायक और आदतें हैं । बाहुन, छेत्री आदि नेपाली भाषा बोलते हैं जो नागरी लिपि में लिखी जाती है जबकि मंगोल प्रजाति समूह के ज्यादातर लोग द्विभाषी हैं । वे नेपाली भाषा के अलावा अपनी भाषा भी बोलते हैं । श्री ए.सी.सिन्हा के अनुसार “सिक्किम में नेपाली समुदाय की तीन मुख्य उप-सांस्कृतिक प्रजाति हैं जिनके नाम हैं -किराती, नेवारी और गोरखा। किराती में लिंबू, राई, लेप्चा, गुरुंग, तमांग और मांगर शामिल हैं ।“ इनकी भाषा नेपाली है I हिंदी और नेपाली भाषा में बहुत समानता है I नेपाली पूरे सिक्किम राज्य में बोली- समझी जाती है। नेपाली समुदाय की बसावट पूरे राज्य में है। उनकी जीवन शैली तुलनात्मक रूप से बहुत किफायती है। नेपाली समुदाय साधारण कपड़े पहनते हैं और इनका आहार भी साधारण होता है । वे अच्छे किसान और व्यापारी हैं। इसके अलावा वे शिक्षा में भी आगे हैं जिसके कारण उन्हें सरकारी नौकरी सरलता से मिल जाती है। वे अपने साथ खुखरी रखते हैं जिसे लकड़ी या चमड़े के म्यान में रखा जाता है I इसे दाब के नाम से जानते हैं । धार्मिक दृष्टि से नेपाली समुदाय हिंदू धर्मको मानता है और हिंदू धर्म से सम्बंधित सभी पर्व– त्योहार मनाता है I शेरपा और तमांग समुदाय के लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं, लेकिन शेष नेपाली हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं I नेपालियों में जाति व्यवस्था पाई जाती है I नेपाली लोग अनेक त्योहार मनाते हैं जिनमें माघी संक्रांति, दसईं, तिहार आदि प्रमुख हैं I
नेवार (प्रधान)-नेवार समुदाय मूल रूप से नेपाल के काठमांडू के निवासी थे I नेपाल शब्द के आधार पर नेवार शब्द की उत्पत्ति हुई है I “नेपाल” नाम की व्युत्पत्ति नेपाल के प्रसिद्ध तपस्वी और संरक्षक संत “ने मुनि” से हुआ है जिन्होंने एक धर्मपरायण चरवाहे के पुत्र को राजा के रूप में प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार ‘गोपाला’ वंश की शुरुआत की। कुछ विद्वान इस समुदाय का मूल स्थान तिब्बत मानते हैं, लेकिन इनके पक्ष में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है I सिक्किम में नेवार समुदाय की जनसंख्या बहुत कम है, लेकिन यहाँ की राजनीति और लोकजीवन में येलोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं I यह समुदाय अपनी भाषा, संस्कृति, रीति– रिवाज, परंपरा और धर्म के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं I येलोग नेवार भाषा बोलते हैं I सिक्किम के विद्यालयों में नेवार भाषा पढ़ायी जाती है I सिक्किम सरकार ने नेवार समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल किया है I नेवार समुदाय के लोग व्यापार करने में कुशल माने जाते हैं I व्यापार इस समुदाय की आजीविका का मुख्य साधन है I ग्रामीण क्षेत्रों के नेवार कृषि, बागवानी और पशुपालन पर निर्भर हैं I येलोग हस्तशिल्प में भी कुशल होते हैं I वाणिज्य– व्यापार और खेती के अतिरिक्त ये बुनाई, बढ़ईगिरी और धातुकर्म भी करते हैं I कुछ अपवादों को छोडकर सिक्किम के सभी नेवार को ‘प्रधान’ कहा जाता है I नेपाल में नेवार समुदाय के अंतर्गत ‘प्रधान’ एक जाति है, परंतु सिक्किम में सभी नेवार को प्रधान संबोधित किया जाता है I नेवार लोग मांसाहारी होते हैं I उनके लिए गोमांस, सूअर का मांस, याक का मांस आदि खाना प्रतिबंधित है I वे भैंस का मांस खाते हैं जबकि अधिकांश पहाड़ी जातियां भैंस का मांस नहीं खाती हैं I इनका मुख्य भोजन चावल है I चावल की कमी होने पर वेलोग गेहूं, मक्का आदि अनाज खाते हैं I वे मूंग, मसूर, चना, मटर आदि दाल खाते हैं I वे खाना बनाने के लिए सरसों के तेल का उपयोग करते हैं I वेलोग स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सभी प्रकार के कंद- मूल, सब्जियाँ और फल खाते हैं I नेवार समुदाय के लोग अनेक तरह की मदिरा बनाते हैं और उनका नियमित रूप से सेवन करते हैं I नेवार समुदाय पितृसत्तात्मक है I परिवार में कई पीढियां एक साथ रहती हैं, लेकिन आधुनिकता बोध के प्रवाह में धीरे–धीरे संयुक्त परिवार प्रणाली कम होती जा रही है I पिता की संपत्ति सभी पुत्रों के बीच समान भाग में बाँट दी जाती है I इस समाज में महिलाओं की दशा ठीक नहीं है I महिलाएं खेतों में काम करती हैं, पशुओं की देखभाल करती हैं, जंगल से जलावन की लकड़ियाँ और जल लाती हैं, लेकिन परिवार में उनकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है I धर्म की दृष्टि से यह समुदाय हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों का मिश्रण है, फिर भी वेलोग हिंदू के रूप में अपना परिचय देते हैं I वेलोग हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों के रीति– रिवाजों का पालन करते हैं I येलोग अनेक पर्व– त्योहार मनाते हैं I कुछ त्योहार सामुदायिक स्तर पर मनाए जाते हैं जबकि कुछ त्योहार व्यक्तिगत स्तर पर मनाए जाते हैं I सामुदायिक स्तर के त्योहार हैं– भैरव जात्रा, गाथे मंगल अथवा घंटा करन जात्रा, गाय जात्रा, वर्ण जात्रा, इंद्र जात्रा, कुमारी जात्रा, मछेन्द्र जात्रा, नारायण जात्रा, गणेश जात्रा, भीमसेन जात्रा, कृष्ण जात्रा I नेवार समुदाय के व्यक्तिगत स्तर पर मनाए जानेवाले त्योहार हैं–गोवर्धन पूजा, महा किजा (भाई टीका), मुखा अष्टमी, हरि बोधनी एकादशी, योमाफ्ही पुन्ही, खिला गाय दशमी (दसईं), मकर संक्रांति, राम नवमी, दिवाली, राखी पूर्णिमा इत्यादि I
शेरपा-शेरपा समुदाय तिब्बती मूल के हैं I तिब्बती भाषा में ‘शेरपा’ का अर्थ “पूर्वी मनुष्य” है I नेपाल में शेरपा उसे कहा जाता है जो लोग तिब्बत के पूरब से आए थे I सिक्किम के चारों जिलों में शेरपा का निवास है I येलोग मांसाहारी होते हैं I आलू, चावल और गेहूं इनका मुख्य भोजन है I वे हरी सब्जियाँ, दूध, फल भी खाते हैं I वे गोमांस, अंडा और कंद- मूल खाते हैं I सर्द वातावरण में रहने के कारण इन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है I इसलिए वे उबले आलू, आलू ब्रेड, आटा और आलू का मिश्रण आदि खाद्य पदार्थ का अधिक सेवन करते हैं I वे छांग और अरक (मदिरा) का नियमित सेवन करते हैं I शेरपा एक पितृसत्तात्मक समाज है I पिता परिवार का मुखिया होता है I इस समाज में अधिकांश एकल परिवार पाए जाते हैं I पिता की मृत्यु के बाद पैतृक संपत्ति सभी पुत्रों के बीच बराबर भागों में बाँट दी जाती है जबकि माता के गहने बेटियों को दिए जाते हैं I इस समुदाय में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है I महिलाएं उद्यमशील होती हैं और वे परिवार पर नियंत्रण रखती हैं I सामान्यतः महिलाओं को संपत्ति नहीं दी जाती है, लेकिन पहला बच्चा होने के बाद पिता अपनी जमीन का एक टुकड़ा, बर्तन और सोने के कुछ गहने अपनी बेटियों को देते हैं I इस रिवाज को “लारू” कहा जाता है I महिलाएं खेती, पशुपालन एवं सामाजिक–धार्मिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाती हैं I इस समुदाय में गोत्र को “रू” कहा जाता है जो उनकी सामाजिक संरचना की आधारशिला है I सिक्किम के शेरपा को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है–i)शेरपा और ii)युकपा I फिर ये दोनों समूह कई गोत्रों में विभक्त हैं I गोत्रों के नाम हैं–शालाखा, फिनाशा, लामा शेरपा, चायबा, गोपरमा इत्यादि I इस समुदाय में समगोत्रीय विवाह प्रतिबंधित है I शेरपा समुदाय में विजातीय विवाह अर्थात गोत्र से बाहर विवाह होते हैं I अधिकांश विवाह बातचीत से तय होते हैं I इस समाज में पलायन विवाह भी प्रचलित है I पलायन विवाह की स्थिति में लड़के के घर पर “गेंगु किब्जा” का आयोजन किया जाता है I मुख्य विवाह को “गेनु” कहा जाता है I इस समुदाय में वधू मूल्य भुगतान की भी परंपरा है I वधू मूल्य का भुगतान नकद अथवा वस्तु के रूप में किया जाता है I इस समाज में एकविवाह की परंपरा है I पति–पत्नी के बीच सामंजस्य नहीं होने पर समाज द्वारा तलाक मान्य है I तलाक होने पर क्षतिपूर्ति राशि देने का कोई प्रावधान नहीं है I पति–पत्नी दोनों में से कोई एक बच्चों का उत्तरदायित्व ग्रहण करता है I विधवा, विधुर अथवा तलाकशुदा स्त्री–पुरुष को पुनर्विवाह करने का अधिकार है I विवाह के प्रथम चरण को ”सोदानी” कहते हैं I इस दिन लड़के के रिश्तेदार दो बोतल मदिरा (अरक) लेकर लड़की के घर जाते हैं एवं विवाह प्रस्ताव पर लड़की के माता–पिता की सहमति मांगते हैं I लड़की के माता – पिता की सहमति के बाद लड़के के माता–पिता को मदिरा, 20 किलोग्राम कोदो और सफ़ेद स्कार्फ दिया जाता है I एक दूसरा रिवाज भी प्रचलित है जिसमें वर पक्ष द्वारा लड़की के माता–पिता को 30 किलोग्राम बाजरा और खमीर दिया जाता है I विवाह में लामा (पुजारी) द्वारा “खालु पूजा” कराई जाती है I जब बारात लड़की के घर पहुँचती है तो उनका स्थानीय मदिरा (छांग) से स्वागत किया जाता है I शेरपा बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं I वे समर्पण भाव से भगवान बुद्ध और गुरु रिनपोचे की पूजा करते हैं I बौद्ध मठ (गोम्पा) इनके लिए सर्वाधिक पवित्र स्थान है I पुजारी (लामा) सभी प्रकार की पूजा, अनुष्ठान, संस्कार आदि संपन्न कराते हैं I इसलिए शेरपा समाज में इन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है I शेरपा लोग अनेक पर्व–त्योहार मनाते हैं जिनमें प्रमुख हैं- गुरु रिमपोचे जयंती, पंग ल्हासोल त्योहार, सागादावा त्योहार, लोसूंग त्योहार, द्रुक्पा सेझी त्योहार, ल्हा–बाप–धूचेन त्योहार इत्यादि I