हिन्दी साहित्य के इतिहास में आदि काल को चारण काल भी कहा जाता है। इस कालखंड में चारण गाने की परम्परा थी। इस परम्परा का निर्वाह स्त्री रचनाकारों ने भी किया था पर बहुत कम लोग इन रचनाकारों से परिचित हैं। ऐसी ही दो स्त्री रचनाकारों की चर्चा आज करुँगी।
झीमा
झीमा जी बीकानेर राज्य में निवास करने वाले बीठू चारण की बहन थी। झीमा चारणी का समय 15वीं शताब्दी मध्य माना जाता है। इनका रचनाकाल सन् 1403 ई0 माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यह बहुत वाचाल और मुखर स्वभाव की थी। इन्होंने अपनी चतुरता से अपनी सहेली उमा दे का विवाह राजा अचलदास से करा दिया था। पूरे मारवाड़ में धीमा की वीरता की कथाएं प्रसिद्ध हैं। झीमा ने कई युद्धों के लिए चारणी का कार्य किया था। जैसे चारण कवि युद्ध के समय राजा की प्रशंसा और उनके शौर्य का वर्णन करते थे वैसे ही झीमा चारणी ने भी किया है। झीमा संगीत की अच्छी जानकारी थी। जीमा के द्वारा लिखे गए वीरगाथात्मक रचनाएं प्राप्त नहीं होती हैं। पर मुंशी देवी प्रसाद ने महिला मृदु वाणी में इनका उल्लेख बड़े आदर से किया है। इनकी प्रसिद्धि एक अच्छी चारण लेखिका के रूप में रही है। परंतु इनके लिखे वीर गीत अद्यतन अनुपलब्ध है।
झीमा रानी के 3 पद प्राप्त होते हैं जिनमें उनकी सखी उन्मादे, उनके पति रावजी तथा उनकी दूसरी पत्नी लाला दे के बीच चलने वाले तकरार और धीमा द्वारा उन्मादे के साथ देने का वर्णन मिलता है। लालादे राजा की प्रथम पत्नी है। उमादे राजा के न आने के कारण दुखी रहती थी। तब झीमा ने अपनी चतुराई से राजा को उमा दे के महल में बुलाया। राजा साहब आते हैं तो उमा दे उनके चरण दबाती है और झीमा अपने मधुर स्वर में गीत गाती है –
धिन उमा दे सांखली तै पीय लियो मुलाय
सात बरसयो बिछ्ड्यो तो किम रैन विहाय
किरती माथे ढल गई हिरनी लूंबा खाय
हार सटे पिय आणियो संसे न सामो थाय
चनण काठरो टोलिया किस्तूरियां अवास
धण जागे पिय पौढयों बालू औघर बास
लाला लाल मेवाड़ियां उमा तीज बल भार
अचल ऐरेक्या ना चढै रोढ़ा रो असवार
काले अचल मोलाबियो गज घोड़ा रे मोल
देखत ही पीतल हुओ सो कड़ल्यां रे बोल
धिन्य दिहाड़ो धिन घड़ी मैं जाण्यो थो आज
हार गयो प्व सो रह्यो कोई न सिरियो काज
निसि दिन गई पुकारतां कोई न पूगी दांव
सदा बिलखती धण रही तोहि न चेत्यो राव
ओढ़न झीणा अंबरा सूतो खूंटी ताण
ना तो जाग्या बालमो ना धन मूक्यो मांण
तिलकन भागो तरूणि को मुखे न बोल्यो बैण
माण कलड छूटी नही आजेस काजल नैण
खीची से चाहें सखी कोई खीची लेहु
काल पचासां में लियो आज पचिसां देहु
हार दियां छेदो कियो मूक्यो माण मरम्म
(स्त्री का काव्य धारा पृ0 44)
इस पद के अतिरिक्त झीमा के दो और पद प्राप्त होते हैं जिसका उल्लेख मुंशी देवी प्रसाद ने भी किया है। मुझे यह पद स्त्री काव्य धारा पुस्तक में मिले हैं जिनका यहां उल्लेख करना आवश्यक है। इनका दूसरा पद है –
माग्या लाभे जब चरण मौजि लभे जुवार
माग्यां साजन किमि मिले गहली मूढ़ गंवार
पहो फाटी पगड़ो हुओ विछरण री है बार
ले सकि थारो बालमो उरदे म्हारो हार
इनका दुसरा प्राप्त पद इस प्रकार है ——
लाल मेवाड़ी करें बिजो करे न काय
गायो झीमा चारणी उमा लियो गुलाय
पगे बजाऊं गुधरा हाथ बचाऊं तुंब
उमा अचल गुलाबियो ज्यूं सावन की लुंब
आसावरी अलापियो धिनु झीमा धण जाण
धिण आजूणे दीहने मनावणे महिराण
इन प्राप्त पंक्तियों के आधार पर झीमा को काव्य कसौटी पर कसना अन्याय होगा। पर प्राप्त इन पदों के आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि वह हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना नाम लिखा सकती हैं। परंतु किसी इतिहासकार ने इनका नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज नहीं किया है। अब तक इनके सिर्फ यही 3 पद प्राप्त हुए हैं। शोध के अभाव में संभव है कि वह अब मिले भी नहीं। अगर उस समय प्रयास किया गया होता तो शायद इनके संदर्भ में अन्य जानकारी तथा इनकी रचनाएं प्राप्त हो सकती थी।
भाषा की अगर हम बात करें तो मुंशी देवी प्रसाद ने इनकी भाषा डिंगल माना है। डॉ0 सावित्री सिन्हा का भी यही मत।है इनकी भाषा बहुत परिष्कृत तो नहीं है पर कुछ पदों के आधार पर हम कुछ कह भी नहीं जा सकते है। हो सकता है श्रुत परम्परा से लेने के कारण यह दोष आ गया है। इनकी भाषा में स्थानीय शब्दों का प्रयोग हुआ है और भावों में सरलता है। डॉ0 सावित्री सिन्हा इन के संदर्भ में कहती हैं कि —— “काव्यशास्त्र के नियमों से अनभिज्ञ, भाषा के प्रवाह और माधुर्य की महत्ता का मूल्यांकन करने में असमर्थ, छंद अलंकार के नाम से के अलंकार के नाम से भी अपरिचित उस चारणी की इन पंक्तियों में विदग्धता तथा व्यंग ही प्रधान है। यही व्यंग तथा उपमायें किसी कुशल कलाकार की भाषा के परिधान में सुंदर का काव्य बन जाते।“ (सावित्री सिन्हा : मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ पृ0 30)
इनके पदों में हृदय पक्ष प्रधान दिखाई देता है। प्राप्त पदों के आधार पर इनकी अनुभूतियों का सूक्ष्म विवेचन नहीं किया जा सकता है पर जो पद प्राप्त हैं उससे यह पता चलता है की यह सहृदय थी और भाव पक्ष इनकी रचना में प्रधान था। तत्कालीन समय में स्त्री रचनाकार का मिलना भी दुर्लभ था। उस परिवेश और परिस्थिति में जब शिक्षा और स्वतंत्रता का अभाव था उस समय में झीमा के प्राप्त यह पद भी मूल्यवान है। जब पूरा हिंदी साहित्य का इतिहास ही स्त्री रचनाकारों से सूना हो वहाँ झीमा के यह पद उनका नाम इतिहास के पन्नों में अवश्य लिखे जाने योग्य है।
पद्मा
पद्मा चारणी का समय सन् 1597 ई0 के आसपास माना जाता है। यह माला जी साहू की पुत्री तथा बारहट शंकर की पत्नी थी। यह बीकानेर में रहती थी। पदमा भी चारणी का काम करती थी। राजा अमर सिंह के यहां इनके चारण के पद गाए जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि अकबर से साहसपूर्ण लड़ते हुए राजा अमर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। स्त्रीयों नेने सती परम्परा का निर्वाह किया। इस से सम्बंधित अनेक गीत पद्मा ने लिखे है जो अब अप्राप्त है या लोक में समाहित हो गये है जो प्रमाण के अभाव में पद्मा के है या नही यह ठोस आधार पर नही कह सकते है। राठौरों की प्रशस्ति गीतों के एक संग्रह में इनका भी एक गीत मिलता है जिसका उल्लेख मुंशी देवी प्रसाद जी करते है। इनके प्राप्त पद का एक उदाहरण देखा जा सकता है –
गगणे गाज आवाज रणतूर पारवर गरर
सालू लै सिंधु औ राग साथै
दुरित धनराज रो वैर जल डोलते
झलकियो मूंगली फौज माथे
धी खे कमंध खगधार और धुलिये
======================
सारदल सामुंही हंस पावासारी
झीलियो नारियण लोहु जाझे
सती पुहुपा अने अछर अग्र सिवा णै
जाह नह नाम संसार जमी यो
हरि सहर को चले हंस अविहड हरो
कवध नारायणो सरोग क्रमियो
डॉ0 सावित्री सिन्हा के ग्रंथ में इसका अनुवाद मिलता है जो इस प्रकार है -“आकाश में रणतूर का कठोर गर्जन गूंज रहा है। सिंधु का भयानक स्वर लेकर सेना झुकी आ रही है। वीर राजा के वैर रूपी जल को मथता हुआ मुगल सेना का अग्रणी आगे बढ़ रहा है। उसकी तलवार की धार राजा के धड़ पर पड़ती है और उसे उड़ा देती है। राजा अपनी रक्षा का भरसक प्रयास करता है। पावासर में इस प्रकार खड्ग युद्ध चल रहा है। राजा वीरता पूर्वक लड़ने के बाद नाडियों से निकलते हुए रक्त से नहाया पड़ा है। सती पुष्पा तथा दूसरी अप्सरावत रूपवाली सती स्त्रियां उसके सम्मुख आती हैं। हरि की नगरी से आए हुए विमान पर उसके झूलते हुए प्राण आसीन होते हैं और राठौर राय इस प्रकार स्वर्ग को प्रयाण करते हैं।“ (सावित्री सिन्हा : मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ पृ0 32)
वीर रस का यह गीत हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। निसंदेह साहित्य के इस समुद्र में पदमा जैसी रचनाकार की और भी मोतियां रही होंगी जो हमें आज नहीं मिल पाई है। इस गीत में ओज गुण के साथ भाव प्रबलता भी है। सेना का गर्जन रक्त रंजन जैसे शब्द वीर रस के हर कवि प्रयुक्त करते हैं वैसे ही पदमा चारणी भी करती हैं। परंतु स्त्री होने के कारण इनका उल्लेख हमें हिंदी साहित्य के इतिहास में नही मिल पाता है।
इनकी शैली चित्रात्मक शैली कही जा सकती है। डिंगल भाषा का प्रयोग इन्होंने किया है जिसमें अपभ्रंश के शब्द सरग (स्वर्ग) का भी प्रयोग है। इनकी अन्य रचना अगर पूर्णरूपेण प्राप्त होती तो निसंदेह कल्पना और संवेदना का अनुपम संयोग हमें दिखाई देता जिसकी एक झलक इस उदाहरण से तो मिलती ही है। सजीव चित्रण की अनोखा गुण हम पदमा चारणी में पाते हैं। इनकी इस पद को देख करके इनकी काल्पनिकता का भी आभास होता है जो किसी भी कवि से कमतर नही है।