जब कविता की बात होती है तो सर्वप्रथम यह गुण परखा जाता है कि वह पाठकों के हृदय को कितना स्पर्श करती है, उनके भीतर कितना उतरती है, कैसे उनकी भावनाओं से संवाद करती है और उन्हें विचार हेतु प्रोत्साहित करती है। ये कविताएँ हमारे जीवन से होकर गुजरती हैं, वैविध्य प्रदान करती हैं और हमें अपनी ही जी हुई दुनिया उनमें दिखने लगती है। जब ये अभिव्यक्ति क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होती है तो सहज ही एक जुड़ाव हो जाता है और कविता को समझना, उसका आनंद लेना सुखद प्रक्रिया हो जाता है। पाठकीय दृष्टिकोण से विश्वमोहन जी की नई पुस्तक ‘किलकारी’ इन सभी मायनों में सटीक सिद्ध होती है।
संभवतः ‘किलकारी‘ नाम देखकर पाठक के हृदय में विषयवस्तु को लेकर कोई असमंजस उत्पन्न हो सकता है लेकिन स्पष्ट कर दूँ कि यह जीवन की किलकारी है। यूँ तो जब इसका पठन प्रारंभ होता है तो स्वतः ही यह भ्रम टूट जाता है और हम एक सम्पूर्ण छंदबद्ध जीवन यात्रा के साक्षी होने लगते हैं।
मातृ वंदन से प्रारंभ हुई इस पुस्तक में माँ के आँचल की ठंडी छाँव तो है ही, साथ ही जीवन के वे समस्त चरण भी हैं जिनसे हम सभी होकर गुजरते हैं। फिर चाहे वह प्रेमिल भावोच्छवास हो, प्रकृति प्रेम, आध्यात्म या जीवन दर्शन। माटी की सुगंध हमें जड़ों से जोड़े रखती है और सम सामयिक कविताएं कवि के सजग और चिंतनपूर्ण लेखन की ओर इंगित करती हैं। इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि कवि ने इसमें रचनाओं की खिचड़ी नहीं पकाई है बल्कि एक कुशल एवं दक्ष माली की तरह अपनी बगिया के सुंदर पौधों को अलग-अलग क्यारियों में बड़ी कुशलता से रोप दिया है। जिससे पुस्तक अत्यंत व्यवस्थित एवं श्लाघनीय बन पड़ी है। भावानुरूप विविध खंडों में विभाजित यह पुस्तक क्रमशः मातृ-वंदन, आध्यात्म, जीवन दर्शन, प्रेमिल भावोच्छवास, माटी की सुगंध, प्रकृति प्रेम, सम सामयिक व अन्य कविताओं की मंत्रमुग्ध, रागमय फुलवारी से होते हुए शीर्षक गीत किलकारी पर समाप्त होती है।
विश्वमोहन जी की पिछली पुस्तक ‘कासे कहूँ‘ में हमने देशज शब्दों और आंचलिकता की जो मधुर फुहार अनुभूत की थी, वह तिलिस्म यहाँ भी देखने को मिलता है। कई रचनाओं में उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है तो कहीं एक आम मनुष्य की तरह उनके उद्गार अभिव्यक्त होते हैं। यह बताता है कि भाषा को लेकर उनका कोई विशेष आग्रह नहीं है और वे जानते हैं कि व्यंजन जिस भी विधि से बने और जैसे भी परोसा जाए, परिणाम स्वादिष्ट होना चाहिए। यही उनके लेखन की जीत भी है। कहन शैली, शब्द संरचना, भावाभिव्यक्ति इतनी सरल, सहज और सरस है कि पाठक इस अद्वितीय भाव में डूबा रहना चाहता है।
जहाँ ‘किलकारी‘ है वहाँ जीवनदायिनी माँ की उपस्थिति और स्नेह भी अवश्यंभावी है। माँ के चरणों में स्वर्ग होता है, इसी भाव को नमन करते हुए ‘मातृ वंदन‘ खंड की संकल्पना की गई है। ‘माँ मेरा उद्धार करो!’ और ‘माँ, तुमसे कुछ कह न पाया!’ इत्यादि भावप्रवण कविताएं हैं। इनमें माँ की ममता, उनके विशाल हृदय, प्रेमिल आँचल और सघन वृक्ष सी छाया है और उनके गुजर जाने के बाद स्मृतियों को सहेज लेने का कोमल यत्न भी। कई अंश अत्यंत मार्मिक बन पड़े हैं। ‘आँचल‘ में कवि लिखते हैं –
माँ, शव मैने ढ़ोया तेरा/ शोक नहीं ढो पता।
नहीं मयस्सर आँचल तेरा/ पल भर को खो जाता!
‘पद-तल, मरुथल के‘ कविता से पाठक का अध्यात्म की दुनिया में प्रवेश होता है। इस खंड में ध्यान और समर्पण के साथ ईश्वर की स्तुति है जो हृदय में आस्था और विश्वास के भाव भर स्वयं को उस परम पिता परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देना चाहती हैं। ‘काठमांडू, पशुपति-निवास हूँ’, ‘शिवरात्रि सुर-संगीत सुनो’, ‘प्रणव ॐ कार’ इत्यादि श्रद्धा और भक्ति में डूबी रचनाएं पाठक को भाव-विह्वल कर देती हैं। एक उदाहरण देखिए –
अब निर्गुण संग सगुण होगा/ भक्ति में ज्ञान निपुण होगा।
रस ज्ञान में भक्ति घोलेगी/ नवसूत्र सृजन का खोलेगी ।
अनहद में आहद कूजेगा/ त्रिक ताल तुरीय गूँजेगा ।
अद्वैत में द्वैत यूँ निखरेगा/ स्पंद-सार स्वर बिखरेगा ।
कविता “मैं” मानव चरित्र की गहरी समीक्षा करती है और मानव जीवन का उसकी वास्तविकता से साक्षात्कार कराती है यहाँ कवि ने मनुष्य को उसके उस अहंकार और भ्रांतियों के लिए सचेत किया है, जहाँ वह स्वयं से इतर कुछ देखना ही नहीं चाहता। जबकि मायामोह के भंवर में वह अपनी मूल छवि और सत्य को भूल जाता है।
ईश्वर के पश्चात कवि हमें ‘जीवन दर्शन‘ की ओर लिए चलते हैं। इस खंड की कविताएँ जीवन के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करती हुई, इसे और बेहतर तरीके से जीने को प्रेरित करती हैं। कवि कहते हैं कि समय क्षणभंगुर है और यूँ ही सरकता जाता है तो क्यों न समस्त भेदभाव को बिसराकर साथ चला जाए। समाज और राष्ट्र के उत्थान हेतु हम सभी मिलकर कदम बढ़ाएँ। ‘चल पथिक, अभय अथक पथ पर‘ में कवि निर्भय हो चलने का आह्वान करते हैं –
डर भ्रम मात्र अवचेतन का/ शासित संशय स्पंदन का।
जब जीव-जगत है क्षणभंगुर/ फिर, जीना क्या और मरना क्या!
चल पथिक, अभय अथक पथ पर/ मन में घर डर यूँ करना क्या!
‘न ब्रुयात, सत्यं अप्रियम‘ में साँच को आँच नहीं को सत्यापित करते हुए कवि ने सत्य की महत्ता को उजागर किया है। इस ब्रह्मवाक्य का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि
बड़ा ताप है, इन बातों में/ कहना कोई खेल नहीं है।
ढोंगी, पोंगी वाजश्रवा का/ नचिकेता से मेल नहीं है।
‘तुभ्यमेव समर्पयामि‘ के मध्यम से वे तिमिर से बाहर निकल,आशा का दामन थाम लेने की प्रेरणा देते हैं।
‘सो अहं, तत् त्वं असि’ में, कवि ने आत्मा और ब्रह्म के मिलन को उजागर किया है। वे आत्मा और परमात्मा के एकत्व की महत्ता को बताते हैं और इसे अपने भावनात्मक और धार्मिक संदेश के माध्यम से सुंदरता से प्रस्तुत करते हैं। “कुदरत का खेल”: कविता में, कवि ने प्राकृतिक प्रक्रियाओं की अनुपमता को चित्रित किया है। वे जीवन की अनिश्चितता को दर्शाते हैं और हमें इसे स्वीकार करने की महत्ता को समझने का अवसर देते हैं।
पुस्तक में प्रेमिल भावोच्छ्वास के रस में डूबी कई कविताएं भी संकलित की गई हैं। इस खंड में प्रेम और विरह में रची-बसी रचनाएं स्वागत को खड़ी मिलती हैं। यहाँ ‘चतुर्मास संग जीव प्रिये’ एवं ‘आज जो जोगन गीत वो गाऊं‘ प्रेम के आत्मिक रूप को बड़ी ही सुंदरता से छायांकित करती हैं। विभिन्न अद्भुत शृंगारिक रचनाओं के माध्यम से कवि ने प्रेम और विचार के सूक्ष्मतम और गहरे पहलुओं को छूने का प्रयास किया है, यह कविता सौंदर्य और भावना की गहराइयों को खोजने का एक माध्यम है और पाठकों को अपनी आत्मा के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।
‘पुरुष की तू चेतना‘ कविता दर्शनात्मक तरीके से पुरुष की चेतना का वर्णन करती है। इस कविता में भाव तरलता से प्रवाहित होते हैं और यह चेतना के रहस्यमयी और आध्यात्मिक पहलुओं की ओर मोड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसमें पुरुष की चेतना को प्रकृति के पंच-तत्व और आत्मा के साथ तुलना करने एवं एकाकार करने का प्रयास किया गया है।
विरह की पीड़ा केवल दर्द ही नहीं होती! यह निराशा, दुख और अवसाद की वह स्याह बदली है कि अश्रु कण पलकों की कोर में बसे ही रहते हैं। प्रिय का छलावा कितना दुखदायी है और अलविदा जैसे उम्र भर के दुख का पर्यायवाची बन भीतर तक भेद जाता है। इसे कवि की इन पंक्तियों से समझिए –
निश्छल मन मेरा गया छला/ अलविदा! निःशब्द,निष्प्राण चला
अवशोषित शोणित के कण में/ पार प्रिये प्राणों के पण में
आज उड़े जब पाखी मन के/ ढ़लके हो तुम आँसू बन के
संग्रह में माटी की सुगंध से लबरेज रचनाएं भी हैं जो कवि की आंचलिक भाषा से प्रगाढ़ता दर्शाती हैं। साथ ही यहाँ उनकी इन शब्दों से सहजता और निस्पृह भाव से खिलंदड़पन भी व्यक्त करती हैं। ‘सतुआनी‘ में कवि ने ग्रीष्म काल और सतुआनी के दिनों के मौसम का सुंदर वर्णन किया है। इसे पढ़ते ही गाँव के अपने घर-आँगन की तस्वीर उभरने लगती है और सत्तू की सुगंध गर्मी में शीतलता भर देती है। यह छोटी सी कविता, प्रथम पाठ में ही पाठक से गहरा रिश्ता स्थापित करने में सफ़ल होती है।
‘कर प्यार गोरिया‘ पूर्णतः आंचलिकता की चाशनी में भीगी प्रेममय रचना है, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इसे पढ़ते ही किसी अपने की याद ताजा हो जाए और नवीन स्वप्न कुलबुलाने लगें। प्रेम के इंद्रधनुषी रंग, मान-मनुहार और कोमल भावनाओं से सजी यह रचना चेहरे पर एक मधुर मुस्कान भी बनाए रखती है। बानगी देखिए –
छोड़अ नखड़ा, ना रुसअ, न रार गोरिया/ हम गइनी इ हियवा अब हार गोरिया।
देखअ मिलिंदवा के मिलल, मकरंद गोरिया/ आव बहिंयाँ, तू अँखियाँ कर ल बंद गोरिया।
प्रकृति-दर्शन की यात्रा की ओर बढ़ते हुए पाठक का कई सुंदर कविताओं से साक्षात्कार होता है। यहाँ प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य से पुलकित मन है तो निगोड़े सूरज के प्रचंड ताप से झुलसती उस प्यासी धरती की भीषण पीड़ा भी है जो जीवन धार की प्रतीक्षा में व्याकुल हो बादलों का मुख ताकती है। ‘कैर, बैर और कुमट‘, ‘बरसाती आवारा‘ ऐसी ही भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं।
‘ब्रह्म योग‘ अनुप्रास में पगी, श्रृंगारिक रचना है जो आत्मिक आनंद की अनुभूति कराती है। तनहा चाँद अपना विरह-गान कुछ यूँ सुनाता है –
कब तक जगता चाँद गगन में/ तनहा था, वह सो गया।
थक गई आंखें अपलक तकती/ सूनेपन में खो गया।
सम-सामयिक खंड का प्रारंभ कोरोना महामारी और उससे उपजी प्रतिकूल परिस्थितियों का चित्रण करती हुई दो कविताओं से होता है, ‘कोरोना का कलि काल‘ एवं ‘बदलेगा परिवेश‘। ये दोनों कविताएं अनायास ही कोरोना काल की उन स्मृतियों को जीवित कर देती है जहाँ हर रात की सुबह होगी भी या नहीं, जैसी आशंकाएं हमारे जीवन का हिस्सा बन गईं थीं। ये पंक्तियाँ कितने ही बिछुड़े चेहरों को सामने रख, आँखें नम कर देती है –
श्मशान में भगदड़-सी है/ मुर्दे रोते जमघट में
जलने की अपनी बारी की/ बाट जोहते मरघट में
कवि ने इसमें मानव और प्रकृति संबंधी विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत किया है। कविता, मानव समाज के सुधार की आवश्यकता और इस उम्मीद के बीज भी रोप देती है जिसमें मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझे और उसके हृदय में प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सकारात्मक भाव, संवाद और प्रेम की बेल लहलहाए।
इस खंड में दस कविताएं हैं। ‘फिर! बवाल न हो‘ कविता में कवि विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों की ओर ध्यानाकर्षित कराते हैं और एक ऐसे समाज और समाजवाद की आवश्यकता का संदेश देते हैं जिसमें बवाल और असहमति की जगह सद्गति और सुधार हो। यहाँ वे अन्याय, अदालतों की लचर कार्यप्रणाली और सामाजिक दुर्बलता, असमानता को भी ध्यानाकर्षण करते चलते हैं।
कर्म भी भक्ति से भिड़े/ ज्ञान भ्रम में जा गिरे
और कृष्ण वाचाल न हो/ फिर! बवाल न हो?
‘कारगिल की यही कहानी‘ कर्तव्यपथ पर चलने वाले सैनिकों के अदम्य साहस, निष्ठा, संकल्प और पराक्रम की गाथा है, जो भारत की गरिमा और स्वाधीनता के प्रतीक के रूप में खड़े होते हैं। कविता देशभक्ति की भावनाओं को उद्वेलित करती है और पाठकों को याक चरवाहे ताशी नामोग्याल के उत्कृष्ट उदाहरण के माध्यम से प्रेरित भी करती है।
‘क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम!‘ एक अत्यंत प्रेरक कविता है जहाँ वे संदेश देते हैं कि –
‘मेरा-मेरा‘ रट ये छोड़ो यह ‘मेरा‘ वह ‘मेरा‘ है/
ये मत भूलो तन-मन-धन और प्राण नहीं कुछ ‘तेरा‘ है।
क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम ,लड़ो समर में जीवन के/
करो आहुति जीवन अपना वीरगति आभूषण-से।
संकलन की अंतिम रचना शीर्षक कविता ‘किलकारी‘ है। ‘किलकारी‘, भारतीय इतिहास के उन महत्वपूर्ण पृष्ठों को चिह्नित करती है जिनके पठन और स्मरण के बिना सारी शौर्य गाथाएं अधूरी हैं। यह कविता उन बाल वीरों एवं प्रेरणास्पद चरित्रों का अभिनंदन करती है जिनके साहस,लगन,कौशल, निष्ठा और समर्पण की कहानियाँ आज भी हमारी समृद्ध संस्कृति के सुनहरे झरोखे के रूप में प्रस्तुत होती हैं। इस कविता के माध्यम से भक्त प्रह्लाद, बाल ध्रुव, नचिकेता, अभिमन्यु, एकलव्य, छत्रसाल, वीर बाला काली बाई, नागा-कन्या गाइदिन्ल्यू आदि के महत्वपूर्ण योगदान को सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है। जिनकी अमर कहानियाँ हमारी संस्कृति और सभ्यता की धरोहर के रूप में हमारे नौनिहालों के लिए प्रेरणा पुंज का कार्य करती हैं। यह कविता आगे बढ़ने और महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने संदेश भी देती है।
‘किलकारी’ पुस्तक विश्वमोहन जी ने सृजनात्मकता, सहजता, और सजीवता की महत्वपूर्ण भूमिका को समाहित किए हुए प्रस्तुत की है। संकलित कविताओं में प्राकृतिक तत्वों के साथ मानव जीवन के असली मूल्यों की प्रतिस्थापना की गई है। साथ ही यह जीवन के गहन पहलुओं को सुंदरता से चित्रित करते हुए पाठक को आध्यात्मिकता के महत्त्व को समझाने में भी सफ़ल होती है। उनकी कविताएँ व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक विकास की ही बात नहीं करतीं बल्कि एक सकारात्मक जीवन जीते हुए समाज के उत्थान और पतन के विषय पर भी गंभीरता से विचार करती हैं। कवि का धर्म भी यही है कि वह वस्तुस्थिति को न केवल स्पष्ट करे बल्कि आवश्यकतानुसार समाज को आत्ममंथन की प्रेरणा और चेतना भी दे। पाठकीय तृप्ति से लबरेज पुस्तक ‘किलकारी’ के लिए कवि विश्वमोहन जी को मेरी अनंत शुभकामनाएँ!